Monday, June 14, 2010
नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला
मुश्किल दौर का मुकाबला क्रान्ति के औजारों से सोवियत संघ के विघटन से निश्चित ही क्यूबा की अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा। भीषण मंदी ने क्यूबा को अपनी चपेट में ले लिया। सोवियत संघ केवल क्यूबा की कृषि उपज का खरीददार ही नहीं था बल्कि क्यूबा की ईंधन और रासायनिक खाद की जरूरतों का भी बड़ा हिस्सा वहीं से ही पूरा होता था। सोवियत संघ के ढहने से क्यूबा में रासायनिक खाद और कीटनाशकों की उपलब्धता 80 फीसदी तक गिर गई और उत्पादन में 50 फीसदी से ज्यादा गिरावट आई। क्यूबा के प्रति व्यक्ति प्रोटीन और कैलोरी खपत में 30 फीसदी कमी दर्ज की गई। लेकिन क्यूबा इन सभी समस्याओं से बगैर किसी बाहरी मदद के जिस तेजी से फिर सँभला, वह क्यूबाई करिश्मों की गिनती को ही बढ़ाता है। अपने दक्ष व प्रतिबद्ध वैज्ञानिकों और लोगों के प्रति ईमानदार, दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति ने 1995 के मध्य तक अपनी कृषि को पूरी तरह बदल कर नये हालातों के अनुकूल ढाल लिया। रासायनिक खाद के बदले जैविक खाद से खेती की जाने लगी। एक फसल के बदले विविधतापूर्ण फसल चक्र अपनाए गए। आज क्यूबा सारी दुनिया में जैविक खेती और जमीन का सही तरह से इस्तेमाल करने वाले देशों में सबसे आगे है।यही स्थिति ऊर्जा के क्षेत्र में भी हुई। सोवियत संघ से पेट्रोलियम की आपूर्ति बंद हो जाने के बाद क्यूबा के वैज्ञानिकों व इंजीनीयरों ने बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा और पनबिजली के संयंत्रों पर काम किया। कम बिजली खपत वाले रेफ्रीजरेटर, हीटर, बल्ब इत्यादि बनाए गए और आज क्यूबा वैकल्पिक व प्रकृति हितैषी ऊर्जा उत्पादन में भी दुनिया की अग्रिम पंक्ति में है।पश्चिमी यूरोप में प्रत्येक 330 लोगों की देखभाल के लिए एक डॉक्टर है; अमेरिका में प्रत्येक 417 लोगों की देखभाल के लिए एक डाक्टर है, जबकि क्यूबा में प्रत्येक 155 लोगों की देखभाल के लिए एक डॉक्टर है। क्यूबा जैसा छोटा सा देश 70 हजार से ज्यादा डाक्टर्स को प्रशिक्षित कर रहा है और उन्हें दुनिया के हर हिस्से में मानवता की मदद के लिए भेज रहा है जबकि उससे कई गुना बड़ा अमेरिका करीब 64 से 68 हजार डाक्टरों का ही प्रशिक्षण कर पा रहा है।साम्राज्यवाद का दु:स्वप्न: क्यूबा और फिदेलआइजनहावर, कैनेडी, निक्सन, जिमी कार्टर, जानसन, फोर्ड, रीगन, बड़े बुश और छोटे बुश, बिल क्लिंटन और अब ओबामा-भूलचूक लेनी-देनी भी मान ली जाए तो अमेरिका के 10 राष्ट्रपतियों की अनिद्रा की एक वजह लगातार एक ही मुल्क बना रहा - क्यूबा।1991 में जब सोवियत संघ बिखरा और यूरोप की समाजवादी व्यवस्थाएँ भी एक के बाद एक ढहती चली गईं तो यह सिर्फ पूँजीवादियों को ही नहीं वामपंथियों को भी लगने लगा था कि अब क्यूबा नहीं बचेगा। फिर जब फिदेल कास्त्रो की बीमारी और फिर मौत की अफवाह फैलाई गई तब भी यही लगा था कि फिदेल के मरने के बाद कौन होगा जो इतनी समझदारी और कूटनीति से काम लेते हुए क्यूबा को अमेरिकी ऑक्टोपस से बचाये रख सके। लेकिन क्यूबा बना रहा। न केवल बना रहा बल्कि अपने चुने हुए रास्ते पर मजबूत कदमों के साथ आगे बढ़ता रहा।फिदेल कास्त्रो को मारने और क्यूबा की आजादी खत्म करने की कितनी कोशिशें अमेरिका की तरफ से हुई हैं, इसकी गिनती लगाते-लगाते ही गिनती बढ़ जाती है। सन 2006 में यू0के0 में चैनल 4 ने एक डॉक्युमेंट्री प्रसारित की थी जिसका शीर्षक था-कास्त्रो को मारने के 638 रास्ते (638 वेज टु किल कास्त्रो)। फिल्म में फिदेल कास्त्रो को मारने के अमेरिकी प्रयासों का एक लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया था जिसमें सी.आई.ए. की मदद से फिदेल को सिगार में बम लगाकर उड़ाने से लेकर जहर का इंजेक्शन देने तक के सारे कायराना हथकंडे अपनाए गए थे। तकरीबन 40 बरस तक फिदेल कास्त्रो के सुरक्षा प्रभारी और क्यूबा की गुप्तचर संस्था के प्रमुख रहे फेबियन एस्कालांते बताते हैं कि Óलाल शैतानÓ को खत्म करने के लिए अमेरिका, सी0आई0ए0 और क्यूबा के भगोड़े व गद्दारों ने हर मुमकिन कोशिश की। फिल्म के निर्देशक डॉलन कैन्नेल और निर्माता पीटर मूर ने अमेरिका में ऐशो-आराम की जिंदगी बिता रहे ऐसे बहुत से लोगों से मुलाकात की, जिन पर फिदेल की हत्या की कोशिशों का इल्जाम है। उनमें से एक सी0आई0ए0 का रिटायर्ड अधिकारी फेलिक्स रोड्रिगुएज भी था जो 1961 में क्यूबा पर अमेरिकी हमले के वक्त क्यूबा के विरोधियों का प्रशिक्षक था और जो 1967 में चे ग्वेवारा के कत्ल के वक्त बोलीविया में भी मौजूद था। यहाँ तक कि अमेरिकी जासूसी एजेंसियों की नाकामियों से परेशान होकर अमेरिकी हुक्मरानों ने फिदेल को मारने के लिए माफिया की भी मदद ली थी। कुछ बरसों पहले 80 पार कर चुके फिदेल कास्त्रो भाषण देते हुए हवाना में चक्कर खाकर गिर गए थे। उनकी पैर की हड्डी भी इससे टूट गई थी। बस, फिर क्या था। अमेरिकी अफवाह तंत्र पूरी तरह सक्रिय होकर फिदेल की मृत्यु की अफवाहें फैलाने लगा। लेकिन फिदेल ने फिर दुनिया के सामने आकर सब अफवाहों को ध्वस्त कर दिया। जब फिदेल के डॉक्टर से किसी पत्रकार ने पूछा कि क्या उनकी जिंदगी का यह आखिरी वक्त है तो डॉक्टर ने कहा कि फिदेल 140 बरस की उम्र तक स्वस्थ रह सकते हैं।लेकिन फिदेल ने क्यूबा की जिम्मेदारियों को सँभालने में सक्षम लोगों की पहचान कर रखी थी। सन् 2004 से ही धीरे-धीरे फिदेल ने अपनी सार्वजनिक उपस्थिति को कम करना शुरू कर दिया था। फिर 2006 में फिदेल ने अपनी जिम्मेदारियाँ अस्थायी तौर पर राउल कास्त्रो को सौंपीं। चूँकि राउल कास्त्रो फिदेल के छोटे भाई भी हैं इसलिए सारी दुनिया में पूँजीवादी मीडिया को फिर दुष्प्रचार का एक बहाना मिला कि कम्युनिस्ट भी परिवारवाद से बाहर नहीं निकल पाए हैं। लेकिन ये बात कम लोग जानते हैं कि राउल कास्त्रो फिदेल के भाई होने की वजह से नहीं बल्कि अपनी अन्य योग्यताओं की वजह से क्यूबा के इंकलाब के मजबूत पहरेदार चुने गए हैं। सिएरा मास्त्रा के पहाड़ों पर 1956 में जिस सशस्त्र अभियान में चे और फिदेल अपने 80 अन्य साथियों के साथ ग्रान्मा जहाज में मैक्सिको से क्यूबा आए थे, राउल उस अभियान का बेहद महत्त्वपूर्ण हिस्सा थे। बटिस्टा की फौजों से चंद महीनों के भीतर हुई सैकड़ों मुठभेड़ों में फिदेल, चे, राउल और उनके 10 अन्य साथियों को छोड़ बाकी सभी मारे गए थे। यह भी कम लोग जानते हैं कि फिदेल के कम्युनिस्ट बनने से भी पहले से राउल कम्युनिस्ट बन चुके थे। न सिर्फ जंग के मैदान में एक फौज के प्रमुख की तरह बल्कि सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक चुनौतियों का भी राउल कास्त्रो ने मुकाबला किया है। मंदी के संकटपूर्ण ौर में खेती की उत्पादकता बढ़ाने के लिए आज क्यूबा के जिस शहरी खेती के प्रयोग की दुनिया भर में प्रशंसा होती है, वह दरअसल राउल कास्त्रो की ही कल्पनाशीलता का नतीजा है।बेशक पूरी दुनिया में फिदेल एक जीवित किंवदंती हैं इसलिए क्यूबा से बाहर की दुनिया में हर क्यूबाई उपलब्धि चे और फिदेल के खाते में ही जाती है। लेकिन इसका मतलब यह भी है कि फिदेल ने अपना इतना विस्तार कर लिया है कि वहाँ अनेक अनुभवी व नये लोग तैयार हैं। राउल कास्त्रो सिर्फ फिदेल के भाई होने का नाम ही नहीं, बल्कि इंकलाब की जिम्मेदारी सँभालने के लिए तैयार लोगों में से एक नाम है।इंकलाब का बढ़ता दायराआज सोवियत संघ को विघटित हुए करीब दो दशक पूरे हो रहे हैं। ऐसी कोई बड़ी ताकत दुनिया में नहीं है जो अमेरिका को क्यूबा पर हमला करने से रोक सके। क्यूबा से कई गुना बड़े देश इराक और अफगानिस्तान को अमेरिका ने सारी दुनिया के विरोध के बावजूद ध्वस्त कर दिया। चीन में कहने के लिए कम्युनिस्ट शासन है लेकिन बाकी दुनिया के कम्युनिस्ट ही उसे कम्युनिज्म के रास्ते से भटका हुआ कहते हैं। उत्तरी कोरिया ने अपनी सुरक्षा के लिए परमाणु शक्ति संपन्न बनने का रास्ता अपनाया है। फिर अब अमेरिका को कौन सी ताकत क्यूबा को नेस्तनाबूद करने से रोकती है? वह ताकत क्यूबा की क्रान्तिकारी जनता की ताकत है जिसे पूरी दुनिया की मेहनतकश और इंसाफ पसंद जनता अपना हिस्सा समझती है और अपनी ताकत का एक अंश सौंपती है।पिछले बीस बरसों से वे लगातार चुनौतियों से जूझ रहे हैं अनेक मोर्चों पर बिजली की कमी की समस्याएँ, रोजगार में कमी, उत्पादन और व्यापार में कमी और बाहरी दुनिया के दबाव अपनी जगह बदस्तूर कायम हैं ही, फिर भी, इतने कम संसाधनों और इतनी ज्यादा मुसीबतों के बावजूद क्यूबा ने शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा और जन पक्षधर जरूरी चीजों को अपने नागरिकों के लिए अनुपलब्ध नहीं होने दिया। अप्रैल 2010 में क्यूबा के लाखों युवाओं को संबोधित करते हुए राउल कास्त्रो ने कहा कि Óइतनी मुश्किलों में से उबरने की ताकत सिर्फ सामूहिक प्रयासों और मनुष्यता को बचाने की प्रतिबद्धता से ही आती है, और वह ताकत समाजवाद की ताकत है।Ó ये सच है कि कई मायनों में क्यूबा की जनता आज सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है। लेकिन वे जानते हैं कि इसका सामना करने और हालातों को अपने पक्ष में मोड़ लेने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। सर्वग्रासी पूँजीवाद अपने जबड़े फैलाए क्यूबा के इंकलाब को निगलने के लिए 50 वर्षों से ताक में है। चे ने 1961 में लिखा था कि गलतियाँ तो होती हैं लेकिन ऐसी गलतियाँ न हों जो त्रासदी बन जाएँ। क्यूबाई जनता जानती है कि समाजवाद के बाहर जाने की गलती त्रासदियाँ लाएगी।आज सिर्फ क्यूबा में ही नहीं, सारी दुनिया में हर उस शख्स के भीतर की आवाज फिदेल और क्यूबा के लोगों और क्यूबा की आजादी के साथ है जिसके भीतर अन्याय के खिलाफ जरा भी बेचैनी है। आज चे, फिदेल और क्यूबा सिर्फ एक देश तक महदूद नाम नहीं हैं बल्कि वे पूरी दुनिया के और खासतौर पर पूरे दक्षिण अमेरिका के साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के प्रतीक हैं। अमेरिका जानता है कि फिदेल और क्यूबा पर किसी भी तरह का हमला अमेरिका के खिलाफ एक ऐसे विश्वव्यापी जबर्दस्त आंदोलन की वजह बन सकता है जिसकी लहरों से टकराकर साम्राज्यवाद-पूँजीवाद की नाव तिनके की तरह डूब जाएगी।क्यूबा की प्रेरणा, जोश और फिदेल की अनुभवी सलाहों के मार्गदर्शन में आज लैटिन अमेरिका के अनेक देशों में अमेरिकी साम्राज्यवाद और सरमायादारी के खिलाफ आंदोलन मजबूत हुए हैं और वेनेजुएला और बोलीविया में तो परेशानहाल जनता ने इन शक्तियों को सत्ता भी सौंपी है। अपनी ताकत को बूँद-बूँद सहेजते हुए पूरी सतर्कता के साथ ये आगे बढ़ रहे हैं। क्यूबा ने उनकी ताकत को बढ़ाया है और वेनेजुएला के राष्ट्रपति चावेज और बोलीवियाई राष्ट्रपति इवो मोरालेस के उभरने से क्यूबा को भी बल मिला है। अमेरिकी चक्रव्यूह से अन्य देशों को भी निजात दिलाने के लिए वेनेजुएला की पहल पर लैटिन अमेरिकी देशों को एकजुट करके Óबोलीवेरियन आल्टरनेटिव फॉर दि अमेरिकाजÓ (एएलबीए) और बैंक ऑफ द साउथ के दो क्षेत्रीय प्रयास किए हैं जिनसे निश्चित ही पूँजीवाद के बनाए भीषण मंदी के दलदल में फँसे देशों को कुछ सहारा भी मिलेगा और साथ ही समाजवादी विकल्प में उनका विश्वास बढ़ेगा। अब तक इन प्रयासों में हॉण्डुरास, निकारागुआ, डॉमिनिका, इक्वेडोर, एवं कुछ अन्य देश जुड़ चुके हैं। यह देश मिलकर अमेरिका की दादागीरी को कड़ी व निर्णायक चुनौती दे सकते हैं। नये दौर में ऐसी ही रणनीतियाँ तलाशनी होंगी।भीतर और बाहर: चैकस और मजबूतजो चीज हमने 20वीं सदी के इतिहास में देखी और जिससे हम कुछ सीख सकते हैं वे शोषण और अत्याचारों के खिलाफ हुईं क्रान्तियाँ तो थीं ही, पर साथ ही ये भी कि क्रान्ति कर लेने के बाद उसे सँभालना, उसे वक्त के कीचड़ में धँसने से रोकना और भी बड़ी, और भी कठिन जिम्मेदारी होती है। यह जिम्मेदारी क्यूबा ने निभाई, वहाँ के लोगों ने और करिश्माई क्रान्तिकारी नेताओं ने निभाई। इंकलाब को नाकाम करने वाली ताकतों को खदेडऩा और बाकी रहे लोगों के साथ उत्पादन के समाजवादी ढाँचे का निर्माण करना, लोगों के बीच संपत्ति के सामूहिक सामाजिक स्वामित्व की समझदारी पैदा करना और इस रास्ते पर चलते हुए भी दुनिया की रफ्तार के साथ पीछे न होना, अदब में, तहजीब में, विज्ञान में, नये-नये कारनामे अंजाम देना और इस सब को इंकलाब के दायरे के भीतर इस तरह समेटना कि न किसी को दम घुटता महसूस हो और साथ ही इंकलाब का दायरा भी बगैर शोरगुल के अपना कद बढ़ाता जाए-ये सब क्यूबा ने खुद सीखा और दुनिया में इंकलाब की ख्वाहिश रखने वालों को सिखाया। यह सब तो लम्बी तैयारी वाले रोज-रोज, इंच-इंच बढऩे वाले काम हैं लेकिन लोगों की ऐसी हर कोशिश को नाकाम करने के लिए जो ताकतें सक्रिय हैं, उनसे निपटना, अंदर और बाहर व्यूह रचना कर पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के जबड़ों से इंकलाब को बचाना भी बेहद मुश्किल काम था। लोगों को लगता है कि जब तक सोवियत संघ था तब तक क्यूबा को कोई समस्या नहीं थी। यह सच नहीं है। यह रास्ता कभी आसान नहीं था। जब सोवियत संघ था तब भी देश के भीतर की आबादी को समाजवादी उत्पादन पद्धति में ढालने के प्रयास बरसों की मेहनत और चींटी की चाल ही साबित होते थे। इसके बावजूद नये-नये कल्पनाशील कार्यक्रमों के जरिये लोगों को इस दिशा में आगे बढ़ाना और एक गौरव भाव का विकास करते हुए बाकी दुनिया को रास्ता दिखाना इंकलाब के बाद का एक जरूरी काम था जिसे क्यूबा ने कर दिखाया ।जिंदगी के बारे में नजरिया बदल गया: मारक्वेजहमारे वक्त के एक महान रचनाकार और नोबल से सम्मानित गाब्रिएल गार्सिया मारक्वेज उर्फ गाबो का मानना है कि 1958 के पहले तक वे मनोरंजन पूर्ण लेखन करते थे, व्यंग्यात्मक राजनीतिक लेखन भी करते थे लेकिन 1959 की 1 जनवरी को क्यूबा में जो क्रांति हुई, उसने जिंदगी के बारे में उनका नजरिया बदल दिया। क्यूबा के इंकलाब ने ऐसा सिर्फ गाबो की जिदगी में ही नहीं किया था, बल्कि लैटिन अमेरिका की पूरी आबादी ही जिंदगी, आज़ादी और इंकलाब के ऐसे सुरूर में आ गई थी जो सुरूर आज तक फीका नहीं पड़ सका। उसके बाद से तो खैर सारी दुनिया के ही वे सारे लोग क्यूबा, फिदेल और चे के प्यार की गिरफ्त में पड़ते रहे जिन्हें इंसानियत और न्याय से प्यार है। बहरहाल तो हुआ यूँ कि पूंजीवादी मुल्कों की प्रेस और मीडिया क्यूबा की क्रान्ति को बदनाम करने की काफी कोशिश कर रहे थे। एक रोज़ कोलंबिया में रह रहे और वहां के अखबार से अपनी रोजी-रोटी कमा रहे गाबो से क्यूबा का एक प्रतिनिधि आकर मिला और उसने गाबो को क्यूबा आने, वहाँ की न्याय व अन्य व्यवस्थाएँ देखने का आमंत्रण दिया। क्यूबा की आजादी, वहाँ के लोगों की मासूमियत, ईमानदारी और अपने इंकलाब के लिए सम्मान देखकर गाबो ताजिंदगी क्यूबा के प्यार में रच बस गए। इसके कुछ ही महीनों बाद उन्हें क्यूबा की क्रान्तिकारी सरकार द्वारा बनाई गई समाचार एजेंसी Óप्रेन्सा लेटिनाÓ में काम करने का मौका मिला। बाद में गाबो को प्रेन्सा लेटिना का प्रतिनिधि बनाकर न्यूयॉर्क भी भेजा गया। धीरे-धीरे गाबो और फिदेल की दोस्ती भी बढ़ती गई। दरअसल जब मारक्वेज ने 1970 में Ó दि स्टोरी ऑफ अ शिप रेक्डÓ लिखी थी तो उसमें एवेन्चुरा नामक जहाज की गति की गणना में कुछ गलती थी, जिसकी तरफ सबसे पहले मारक्वेज का ध्यान फिदेल ने ही खींचा था। तब से हमेशा मारक्वेज अपनी किताब छपने के पहले पांडुलिपि फिदेल कास्त्रो को पढ़ाते हैं, और सारी दुनिया में वे लैटिन अमेरिका की शोषण से आजादी, अस्मिता और कोलंबिया व अन्य लैटिन अमेरिकी देशों में संघर्षरत क्रान्तिकारियों की ओर से मध्यस्थ्ता करते हैं, उनकी माँगों को दुनिया के सामने लाते हैं।चे के शब्दों में फिदेलक्यूबा की क्रान्ति के सबसे अहम, सबसे अद्भुत और भूकंपकारी तत्व का नाम है फिदेल कास्त्रो। फिदेल के व्यक्तित्व की यह खासियत है कि वह जिस भी आंदोलन में भागीदारी करेगा, उसका नेतृत्व करेगा। उसके अंदर महान नेतृत्व के गुण हैं और इनके साथ साफगोई, ताकत, और साहस के साथ उसकी लोगों की इच्छा को पहचानने की अद्वितीय क्षमता ने उसे इतिहास में ये सम्मानजनक जगह दिलाई है। भविष्य में उसका असीमित विश्वास और उसे अपने साथियों से ज्यादा साफ और दूर तक समझ कर उससे दो कदम आगे का फैसला ले सकने की उसकी क्षमताओं ने, उसकी सांगठनिक योग्यता और कमजोर करने वाले भेदों का विरोध करने की उसकी ताकत ने, लोगों के लिए उसके बेतहाशा प्यार ने और जन कार्रवाई का रुख तय कर सकने की उसकी क्षमता ने क्यूबा की क्रान्ति का सबसे अहम किरदार बनाया है। -साभार विनीत तिवारी-
Wednesday, June 9, 2010
महाशय चिरकुट जी
Monday, June 7, 2010
इश्क गुनाह क्यों?
कल इश्क के कूचे में इक नौजवां मारा गया, हाथ मलती थी कज़ा वो बे-कज़ा मारा गया
सदियों पहले राजे-रजवाड़ों के समय में किसी ने लिखा था कि कल इश्क के कूचे में इक नौजवां मारा गया, हाथ मलती थी क ज़ा वो बे-कजा मारा गया। प्राचीन काल में एक इश्क करने वाले नौजवान को बेमौत मारे जाने पर साहित्य लिखा गया। उस पर गहन चिंतन हुआ। उस समय शहंशाहों के दरबार हुआ करते थे लेकिन अब लोकतंत्र है। उस समय और आज के समय में जमीन-आसमान का फर्क आ चुका है। आज पुरानी परंपराओं को तोड़ कर आगे बढऩे वाले प्रेमी युगलों की सुंख्या में दिन-प्रतिदिन बढ़ोत्तरी हो रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बात करें तो अजीत-अंशु के बाद मनवीर-रजनी प्रकरण भारतीय लोकतंत्र पर ही सवाल उठा रहे हैं कि आखिर यह कैसा लोकतंत्र है? जहां पर लोगों को खुलकर प्यार करने का भी अधिकार नहीं हैं। एक तरफ तो लोकतंत्र में सबको अपनी आजादी हासिल है तो वहीं दूसरी तरफ उन्हें अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार क्यों नहीं है? कानून किसके हिसाब से चल रहा है? जिनके अंतिम संस्कार कर दिये गये, वे जिंदा लौट रहे हैं। यहां पर तो मूंछ का सवाल होता है। मूंछ की खातिर लोग तलवारें खींच लेते हैं। बेरहमी से अपनों का ही कत्ल कर देते हैं। समाज तेजी के साथ बदल रहा है। युवाओं के अंदर पुरानी मूल्य-मान्यताओं के खिलाफ विद्रोह के अंकुरण फूटना शुरू हो गये हैं। वर्षों से दबा हरित प्रदेश मोहब्बत का जंगल बनकर उभर रहा है जिसमें लाशों की गुत्थियां गढ़ी जा रही हैं। प्रेमी-प्रेमिकाओं ेको सरेआम गोलियों से उड़ा दिया जाता है। कहीं-कहीं तो पत्थर से मार-मार कर बेरहमी से हत्या कर दिया जाता है। इसके बावजूद प्रेमी युगल प्यार करने से पिछे नहीं हट रहे हैं। जितनी तेजी के साथ इसे दबाने का प्रयास किया जा रहा है, उतनी ही तेजी से प्यार करने की परंपरा भी बढ रही है। यह अलग सवाल है कि कुछ प्रेमी युगल कठिन संघर्षों की राह के डर से अत्महत्या कर ले रहे हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि उनके अंदर वद्रोह के अंकुर मरे नहीं हैं बल्कि तेजी के साथ अंकुरित हो रहे हैं। इन हत्याओं का हिस्सा पुलिस भी बन रही है और वर्कआउट के चक्कर में लाशों से खिलवाड़ जारी है। दिखती नहीं प्रशासन की पहल-इस तरह के कशों का पुलिस इतिश्री करने में भी काफी उतावली रहती है। इसी तरह का एक घटना मुजफ्फरनगर स्थित नई मंडी कोतवाली क्षेत्र के मोहल्ला शांति नगर में गत 6 मई को पुलिस ने एक युवक का शव बरामद किया था। इसकी शिनाख्त कूकड़ा गांव निवासी अजीत सैनी पुत्र ओमवीर सैनी के रूप में पुलिस भी हुई थी। मृतक के परिजनों ने उसके 30 अप्रैल से गायब की भी पुष्टि की थी। हत्या के आरोप में अजीत की प्रेमिका अंशु के पिता नरेंद्र तोमर और भाई अनुज को पुलिस ने उठा लिया था। आज के वैज्ञानिक युग में पुलिस के पास तर्क था कि अंशु के परिजन नई मंडी में रहते हैं, जहां अजीत की लाश मिली। इससे पहले बुढ़ाना क्षेत्र में एक युवती की लाश मिली थी तो पुलिस ने उसे अंशु की मान लिया। 9 मई को पुलिस जब आनर किलिंग के मामले में अंशु के भाई और पिता को जेल भेज रही थी कि उसी समय प्रेमी युगल अजीत और अंशु थाने पहुंच गये। इस पर सवाल उठना लाजमी था कि पूर्व में अजीत और अंशु की बताई गई लाशें फिर किसकी थीं? मुजफ्फरनगर पुलिस यह सब देख कर हैरान तो हो गई लेकिन उसकी कार्यशैली का परिणाम एक बार फिर वही ढाक के तीन पात साबित हुये। आज तक इस सवाल का जवाब नहीं ढूंढ पाई है। पड़ोसी राज्यों की पुलिस से संपर्क के अलावा पोस्टर, इश्तिहार के जरिये शिनाख्त की कार्रवाई आज तक चल रही है। ऐसी ही कहानी देश के नवीनतम शहर और इंडस्ट्रियल के रूप में सुमार नोएडा में दोहराई गई। प्रेमी युगल के अंतिम संस्कार के बाद रजनी भी अपने प्रेमी मनवीर के साथ शादी करके वापस आ गयी। चौबीस दिन पहले एक युवती की लाश मेरठ के कुरड़ी गांव में मिली थी। पुलिस और परिजनों ने इसे रजनी की बताकर अंतिम संस्कार कर दिया था। यह युगल 13 अप्रैल को फरार हुआ था। यहां भी वही सवाल कि आखिर रजनी की बताई गई लाश किसकी थी? नोएडा पुलिस अब दावा कर रही है कि वह लाश मोदीनगर के सीकरी गांव की मंजू रानी की थी। पुलिस महकमें का कहना है कि मृतक पूर्व में भट्ठे पर काम करती थी और वहीं काम करने वाले गाजीपुर के राजकुमार उर्फ राजीव मुंशी के साथ दो महीने पहले कही फरार हो गयी थी। दोनों को तलाश कर पंचायत ने शादी का फैसला सुना दिया लेकिन राजीव पंचायत के डर से भाग खड़ा हुआ था। कूड़ी गांव में संदिग्ध हालात में मंजू की मौत हो गई तो उसे बोरी में बंद कर कूड़े के ढेर में फेंक दिया गया था। यह दाश्तां यहीं खत्म नहीं होती बल्कि ऐसी ही कहानी पिछले साल मुरादाबाद जिले के कुढ़ फतेहगढ़ थाना क्षेत्र के अंतर्गत बिचौला डूकी गांव में पुलिस द्वारा तैयार की गयी। 9 मई 2009 को घर से लापता गुलाम हुसैन की बेटी अंजुम की तलाश पुलिस ने झील में तैरती हुयी एक लाश को अंजुम की बताकर केस का इतिश्री कर दी। केस खत्म होने कुछ ही दिन बाद 10 मई को धनारी में अंजुम जिंदा मिली और उसके प्रेमी जाहिद को गिरफ्तार कर लिया गया। सभी मामलों में एक ही बात सामने आई कि पुलिस ने जबरन शिनाख्त कराई। पुलिस ने कानून को अपने हिसाब से उपयोग किया। लेकिन अभी तक उच्च स्तर पर इन मामलों की समीक्षा और कार्रवाई की बातें सिर्फ अफसरों के बयानों तक सीमित हैं। अब देखना यह है कि इन केसों के मामलों में उच्च पदों पर आसीन उच्चाधिकारी क्या निर्णय सुनाते हैं?एडीजी कानून व्यवस्था ब्रजलाल का मानना है कि आजकल हत्याओं में विरोधियों को फंसाने का खेल चल रहा है। विशेष रूप से अज्ञात लाशें इसके लिए सहायक बनती जा रही हैं। उन्होंने आदेश दिया है कि अब हर अज्ञात लाश का अनिवार्य रूप से डीएनए कराया जाए। वे कहते हैं कि जब परिवार के लोग ही लाशों की शिनाख्त कर रहे हैं तो पुलिस क्या कर सकती है? किसी लाश की शिनाख्त के लिए परिवार पर दबाव के दावे की कोई वजह नहीं बनती। पुलिस अगर ऐसे हालात में शिनाख्त के वास्ते सबूत मांगेगी तो संवेदनहीन कहलाएगी। ऐसे मामलों में लापरवाही और धोखाधड़ी करने वालों के खिलाफ कार्रवाई का आदेश दिया गया है। सबके लिए है कानूनवरिष्ठ अधिवक्ता एवं मेरठ बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष अनिल बख्शी का कहना है कि वैसे तो कानून सबके लिए है, लेकिन कुछ लोग इसका दुरपयोग कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि ऐसे मामलों में पुलिस के खिलाफ मुकद्मा दर्ज कराया जा सकता है। पुलिस एक कत्ल केस को खत्म कर देती है। जिनकी लाश भी शिनख्त कर ली गयी लकिन बाद में वे जिंदा लौट आते हैं। ऐसे समय मरने वाले का केस बंद कर दिया जाता है। शिनाख्त की स्थिति में पुलिस इससे बच जाती है। मगर आईपीसी की धारा 212 में कोई भी व्यक्ति पुलिस के खिलाफ अपराधी और अपराध को छिपाने में मदद करने का मुकद्मा दर्ज करा सकता है जिसमें 7 साल की सजा का प्रावधान है। उन्होंने बताया कि आज तक इस धारा के तहत दर्ज किसी भी मुकद्में में देश भर में कोई कार्रवाई नहीं हुई। क्योंकि पुलिस के खिलाफ लोग पैरवी नहीं कर पाते हैं। इस लिए धरे-धीरे केस को बंद कर दिया जाता है। इसके परिणाम स्वरूप इस तरह की घटनाओं पर रोक लगने बजाय बढ़ावा देने में मदद मिलती है।