Monday, June 14, 2010

नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला

11959 में जब क्यूबा में सशस्त्र संघर्ष द्वारा बटिस्टा की सरकार को अपदस्थ करके फिदेल कास्त्रो, चे ग्वेवारा और उनके क्रान्तिकारी साथियों ने क्यूबा की जनता को पूँजीवादी गुलामी और शोषण से आजाद कराया तो उसके बाद मार्च 1960 में माक्र्सवाद के दो महान विचारक और न्यूयार्क से निकलने वाली माक्र्सवादी विचार की प्रमुखतम् पत्रिकाओं में से एक के संपादकद्वय पॉल स्वीजी और लिओ ह्यूबरमेन तीन हफ्ते की यात्रा पर क्यूबा गए थे। अपने अध्ययन, विश्लेषण और अनुभवों पर उनकी लिखी किताब Óक्यूबा: एनाटॉमी ऑफ ए रिवॉल्यूशनÓ को वक्त के महत्त्व के नजरिये से पत्रकारिता, और गहरी तीक्ष्ण दृष्टि के लिए अकादमिकता के संयोग का बेहतरीन नमूना माना जाता है। आज भी क्यूबा को, वहाँ के लोगों, वहाँ की क्रान्ति और हालातों को समझने का यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। बहरहाल, अपनी क्यूबा यात्रा की वजह से उन्हें अमेरिकी सरकार और गुप्तचर एजेंसियों के हाथों प्रताडि़त होना पड़ा था। ऐसे ही मौके पर दिए गए एक भाषण के कारण 7 मई 1963 को उन्हें अमेरिका विरोधीगतिविधियों में लिप्त होने और क्यूबा की अवैध यात्रा करने और कास्त्रो सरकार के प्रोपेगंडा अभियान का हिस्सा होने के इल्जाम में एक सरकारी समिति ने जवाब-तलब किया था। वह पूछताछ स्मृति के आधार पर प्रकाशित की गई थी। उसी के एक हिस्से का हिन्दी तर्जुमा:सवाल: यह मंथली रिव्यू में 1960 से 1963 के दौरान क्यूबा पर प्रकाशित लेखों की एक सूची है। क्या यह सही है?जवाब: यह सही तो है, लेकिन अधूरी है। हमने क्यूबा पर इससे ज्यादा लेख छापे हैं।सवाल: क्या इन लेखों को छापने के लिए आपको क्यूबाई सरकार ने कहा था?जवाब: हर्गिज नहीं। हमने ये लेख अपने विवेक से प्रकाशित किए क्योंकि हमारी दिलचस्पी लम्बे समय से इस बात में है कि गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी, अशिक्षा, रिहाइश के खराब हालात और अविकसित देशों में महामारी की तरह मौजूद असंतुलित अर्थव्यवस्था से उपजने वाली जो बुराइयाँ हैं, उनसे किस तरह निजात पाई जा सकती है। क्यूबा में क्रान्ति की गई और इन समस्याओं को हल किया गया। लैटिन अमेरिका के दूसरे देशों में ये बुराइयाँ अभी भी मौजूद हैं। सारे अविकसित लैटिन अमेरिकी देशों में सिर्फ एक ही देश है जहाँ ये बुराइयाँ खत्म की जा सकीं, और वह है क्यूबा।सवाल: क्या आप लैटिन अमेरिका के देशों में कम्युनिस्ट कब्जे/ तख्तापलट की हिमायत कर रहे हैं?जवाब: मैंने ऐसा नहीं कहा बल्कि आपने कहा। मैंने कहा कि ये सारी बुराइयाँ सभी अविकसित देशों के लिए बड़ी समस्याएँ हैं, जिनमें लैटिन अमेरिका के देश भी शामिल हैं, और मेरे खयाल से इन समस्याओं का हल उस तरह के इंकलाब से निकलेगा, जो फिदेल कास्त्रो ने क्यूबा में किया है।प्रसंगवश मैं ये भी बता दूँ कि लैटिन अमेरिका के लिए इस तरह के इंकलाब की तरफदारी मैं तब से कर रहा हूँ जब फिदेल कास्त्रो की उम्र सिर्फ करीब 10 बरस रही होगी।सवाल: क्या आप क्यूबा की कम्युनिस्ट सरकार के प्रोपेगैंडिस्ट (प्रचारक) हैं?जवाब: मैं क्यूबा की ही नहीं, किसी भी सरकार का, या किसी पार्टी का या किसी और संगठन का प्रोपेगैंडिस्ट नहीं हूँ, लेकिन हाँ, मैं प्रोपेगैंडिस्ट हूँ-सच्चाई का।इसके भी पहले लिओ ह्यूबरमैन ने जून 1961 में दिए एक भाषण में जो कहा था, वह आज भी प्रासंगिक है। मैं एक क्षण के लिए भी स्वतंत्र चुनावों, अभिव्यक्ति की आज़ादी या प्रेस की आज़ादी के महत्त्व को कम नहीं समझता हूँ। ये उन लोगों के लिए बेहद जरूरी और सबसे महत्त्वपूर्ण आज़ादियाँ हैं जिनके पास खाने के लिए भरपूर है, रहने, पढऩे-लिखने और स्वास्थ्य की देखभाल करने के लिए अच्छी सुविधाएँ हैं, लेकिन इन आजादियों की जरूरत उनके लिए सबसे पहली नहीं है जो भूखे हैं, निरक्षर हैं, बीमार और शोषित हैं। जब हममें से कुछ भरे पेट वाले खाली पेट वालों को जाकर यह कहते हैं कि उनके लिए मुक्त चुनाव सबसे बड़ी जरूरत हैं तो वे नहीं सुनेंगे; वे बेहतर जानते हैं कि उनके लिए दुनिया में सबसे ज्यादा जरूरी क्या है। वे जानते हैं कि उनके लिए सबसे ज्यादा और किसी भी और चीज से पहले जरूरी है रोटी, जूते, उनके बच्चों के लिए स्कूल, इलाज की सुविधा, कपड़े और एक ठीक-ठाक रहने की जगह। जिंदगी की ये सारी जरूरतें और साथ में आत्म सम्मान-ये क्यूबाई लोगों को उनके समूचे इतिहास में पहली बार हासिल हो रहा है। इसीलिए, जो जिंदगी में कभी भूखे नहीं रहे, उन्हेें ताज्जुब होता है कि वे (क्यूबा के लोग) कम्युनिज्म का ठप्पा चस्पा होने से घबराने के बजाय उत्साह में पैट्रिया ओ म्यूर्ते (देश या मौत) का नारा क्यों लगाते हैं।जुल्म जब हद से गुजर जाए तो1959 में क्यूबा में क्रान्ति होने के पहले तक बटिस्टा की फौजी तानाशाही वाली अमेरिका समर्थित सरकार थी। बटिस्टा ने अपने शासनकाल के दौरान क्यूबा को वहशियों की तरह लूटा था। अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने पर ही नहीं, शासकों के मनोरंजन के लिए भी वहां आम लोगों को मार दिया जाता था। अमेरिका के ठीक नाक के नीचे होने वाले इस अन्याय को अमेरिकी प्रशासन देखकर भी अनदेखा किया करता था क्योंकि एक तो क्यूबा के गन्ने के हजारों हेक्टेयर खेतों पर अमेरिकी कंपनियों का कब्जा था, चारागाहों की लगभग सारी ही जमीन अमेरिकी कंपनियों के कब्जे में थी, क्यूबा का पूरा तेल उद्योग और खनिज संपदा पर अमेरिकी व्यावसायिक घराने ही हावी थे। वे हावी इसलिए हो सके थे क्योंकि फौजी तानाशाह बटिस्टा ने अपने मुनाफे के लिए अपने देश का सबकुछ बेचना कबूल कर लिया था।दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हालात और खराब हुए। बटिस्टा ने क्यूबा को अमेरिका से निकाले गए अपराधियों की पनाहगाह बना दिया। बदले में अमेरिकी माफिया ने बटिस्टा को अपने मुनाफों में हिस्सेदारी और भरपूर ऐय्याशियाँ मुहैया कराईं। उस दौर में क्यूबा का नाम वेश्यावृत्ति, कत्ले आम, और नशीली दवाओं के कारोबार के लिए इतना कुख्यात हो चुका था कि 22 दिसंबर 1946 को हवाना के होटल में कुख्यात हवाना कांफ्रेंस हुई जिसमें अमेरिका के अंडर वल्र्ड के सभी सरगनाओं ने भागीदारी की। यह सिलसिला बेरोक-टोक चलता रहा।1955 में बटिस्टा ने ऐलान किया कि क्यूबा किसी को भी जुआघर खोलने की इजाजत दे सकता है बशर्ते कि वह व्यक्ति या कंपनी क्यूबा में होटल उद्योग में 10 लाख अमेरिकी डालर का या नाइट क्लब में 20 लाख डॉलर का निवेश करे। इससे अमेरिका में कैसिनो के धंधे में नियम कानूनों से परेशान कैसिनो मालिकों ने क्यूबा का रुख किया। जुए के साथ तमाम नये किस्म के अपराध और अपराधी क्यूबा में दाखिल हुए। अमेरिका के प्रति चापलूस रहने में बटिस्टा का फायदा यह था कि अपनी निरंकुश सत्ता कायम रखने के लिए उसे अमेरिका से हथियारों की अबाध आपूर्ति होती थी। यहाँ तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहॉवर के जमाने में क्यूबा को दी जाने वाली पूरी अमेरिकी सहायता हथियारों के ही रूप में होती थी। एक तरह से ये दो अपराधियों का साझा सौदा था।आइजनहॉवर की नीतियों का विरोध खुद अमेरिका के भीतर भी काफी हो रहा था। आइजनहॉवर के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी और उनके बाद अमेरिका के राष्ट्रपति बने जॉन एफ0 कैनेडी ने आइजनहॉवर की नीतियों की आलोचना करते हुए कहा था: Óसारी दुनिया में जिन देशों पर भी उपनिवेशवाद हावी है, उनमें क्यूबा जितनी भीषण आर्थिक लूट, शोषण और अपमान किसी अन्य देश का नहीं हुआ है, और इसकी कुछ जिम्मेदारी बटिस्टा सरकार के दौरान अपनाई गई हमारे देश की नीतियों पर भी है।Ó इसके भी आगे जाकर आइजनहॉवर की नीतियों की आलोचना करते हुए कैनेडी ने क्यूबा की क्रान्ति का व फिदेल और उनके क्रान्तिकारी साथियों का समर्थन भी किया। लेकिन यह समर्थन वहीं खत्म भी हो गया जब उन्हें समझ आया कि क्यूबा की क्रांति सिर्फ एक देश के शासकों का उलटफेर नहीं, बल्कि वह एक नये समाज की तैयारी है और पूँजीवाद के बुनियादी तर्क शोषण के ही खिलाफ है, और इसीलिए उस क्रान्ति को समाजवाद के भीतर ही अपनी जगह मिलनी थी।बटिस्टा सरकार के दौरान जो हालात क्यूबा में थे, उनके प्रति एक ज़बर्दस्त गुस्सा क्यूबा की जनता के भीतर उबल रहा था। फिदेल कास्त्रो के पहले भी बटिस्टा के तख्तापलट की कुछ नाकाम कोशिशें हो चुकी थीं। विद्रोही शहीद हुए थे और बटिस्टा और भी ज्यादा निरंकुश। खुद अमेरिका द्वारा माने गये आँकड़े के मुताबिक बटिस्टा ने महज सात वर्षों के दौरान 20 हजार से ज्यादा क्यूबाई लोगों का कत्लेआम करवाया था। इन सबके खिलाफ फिदेल के भीतर भी गहरी तड़प थी। जब फिदेल ने 26 जुलाई 1953 को मोंकाडा बैरक पर हमला बोल कर बटिस्टा के खिलाफ विद्रोह की पहली कोशिश की थी तो उसके पीछे यही तड़प थी। अगस्त 1953 में फिदेल की गिरफ्तारी हुई और उसी वर्ष उन्होंने वह तकरीर की जो दुनिया भर में Óइतिहास मुझे सही साबित करेगाÓ के शीर्षक से जानी जाती है। उन्हें 15 वर्ष की सजा सुनायी गई थी लेकिन दुनिया भर में उनके प्रति उमड़े समर्थन की वजह से उन्हें 1955 में ही छोडऩा पड़ा। 1955 में ही फिदेल को क्यूबा में कानूनी लड़ाई के सारे रास्ते बन्द दिखने पर क्यूबा छोड़ मैक्सिको जाना पड़ा जहाँ फिदेल पहली दफा चे ग्वेवारा से मिले। जुलाई 1955 से 1 जनवरी 1959 तक क्यूबा की कामयाब क्रान्ति के दौरान फिदेल ने राउल कास्त्रो, चे और बाकी साथियों के साथ अनेक छापामार लड़ाइयाँ लड़ीं, अनेक साथियों को गँवाया लेकिन क्यूबा की जनता और जमीन को शोषण से आजाद कराने का ख्वाब एक पल भी नजरों से ओझल नहीं होने दिया।हम कम्युनिस्ट नहीं हैं: फिदेल (1959)1 जनवरी 1959 को क्यूबा में बटिस्टा के शोषण को हमेशा के लिए समाप्त करने के बाद अप्रैल, 1959 में फिदेल एसोसिएशन ऑफ न्यूजपेपर एडिटर्स के आमंत्रण पर अमेरिका गये जहाँ उन्होंने एक रेडियो इंटरव्यू में कहा कि Óमैं जानता हूँ कि दुनिया सोचती है कि हम कम्युनिस्ट हैं पर मैंने बिल्कुल साफ तौर पर यह कहा है कि हम कम्युनिस्ट नहीं हैं।Ó उसी प्रवास के दौरान फिदेल की साढ़े तीन घंटे की मुलाकात अमेरिकी उप राष्ट्रपति निक्सन के साथ भी हुई जिसके अंत में निक्सन का निष्कर्ष यह था कि Óया तो कम्युनिज्म के बारे में फिदेल की समझ अविश्वसनीय रूप से बचकानी है या फिर वे ऐसा कम्युनिस्ट अनुशासन की वजह से प्रकट कर रहे हैं।Ó लेकिन फिदेल ने मई में क्यूबा में अपने भाषण में फिर दोहराया: Óन तो हमारी क्रान्ति पूँजीवादी है, न ये कम्युनिस्ट है, हमारा मकसद इंसानियत को रूढिय़ों से, बेडिय़ों से मुक्त कराना और बगैर किसी को आतंकित किए या जबर्दस्ती किए, अर्थव्यवस्था को मुक्त कराना है।Óबहरहाल न कैनेडी के ये उच्च विचार क्यूबा के बारे में कायम रह सके और न फिदेल को ही इतिहास ने अपने इस बयान पर कायम रहने दिया। जनवरी 1959 से अक्टूबर आते-आते जिस दिशा में क्यूबा की क्रान्तिकारी सरकार बढ़ रही थी, उससे उनका रास्ता समाजवाद की मंजिल की ओर जाता दिखने लगा था। मई में भूमि की मालिकी पर अंकुश लगाने वाला कानून लागू कर दिया गया था, समुंदर के किनारों पर निजी स्वामित्व पहले ही छीन लिया गया था। अक्टूबर में चे को क्यूबा के उद्योग एवं कृषि सुधार संबंधी विभाग का प्रमुख बना दिया गया था और नवंबर में चे को क्यूबा के राष्ट्रीय बैंक के डाइरेक्टर की जिम्मेदारी भी दे दी गई थी। बटिस्टा सरकार के दौरान क्यूबा के रिश्ते बाकी दुनिया के तरक्की पसंद मुल्को के साथ कटे हुए थे, वे भी 1960 में बहाल कर लिए गए। सोवियत संघ और चीन के साथ करार किए गए तेल, बिजली और शक्कर का सारा अमेरिकी व्यवसाय जो बटिस्टा के जमाने से क्यूबा में फल-फूल रहा था, सरकार ने अपने कब्जे में लेकर राष्ट्रीयकृत कर दिया। जुएखाने बंद कर दिए गए। पूरा क्यूबाई समाज मानो कायाकल्प के एक नये दौर में था। यह कायाकल्प अमेरिकी हुक्मरानों और अमेरिकी कंपनियों के सीनों पर साँप की तरह दौड़ा रहा था। आखिर 1960 की ही अगस्त में आइजनहॉवर ने क्यूबा पर सख्त आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। क्यूबा को भी इसका अंदाजा तो था ही इसलिए उसने मुश्किल वक्त के लिए दोस्तों की पहचान करके रखी थी। रूस और चीन ने क्यूबा के साथ व्यापारिक समझौते किए और एक-दूसरे को पूंजीवाद की जद से बाहर रखने में मदद की।उधर अमेरिका में आइजनहॉवर के बाद कैनेडी नये राष्ट्रपति बने थे जिन्होंने पहले आइजनहॉवर की नीतियों की आलोचना और क्यूबाई क्रान्ति की प्रशंसा की थी। उनके पदभार ग्रहण करने के तीन महीनों के भीतर ही क्रान्ति को खत्म करने का सीआईए प्रायोजित हमला किया गया जिसे बे ऑफ पिग्स के आक्रमण के नाम से जाना जाता है। चे, फिदेल और क्यूबाई क्रान्ति की प्रहरी जनता की वजह से ये हमला नाकाम रहा। सारी दुनिया में अमेरिका की इस नाकाम षड्यंत्र की पोल खुलने से, बदनामी हुई। तब कैनेडी ने बयान जारी किया कि यह हमला सरकार की जानकारी के बगैर और क्यूबा के ही अमेरिका में रह रहे असंतुष्ट नागरिकों का किया हुआ है, जिसकी हम पर कोई जिम्मेदारी नहीं है।कम्युनिस्ट कहलाना गौरव की बात है : फिदेल (1965)उधर, दूसरी तरफ फिदेल को भी 1961 में बे ऑफ पिग्स के हमले के बाद यह समझ में आने लगा था कि अमेरिका क्यूबा को शांति से नहीं रहने देगा। पहले जो फिदेल अपने आपको कम्युनिज्म से दूर और तटस्थ बता रहे थे, दो साल बाद एक मई 1961 को फिदेल ने अपनी जनता को संबोधित करते हुए कहा कि Óहमारी शासन व्यवस्था समाजवादी शासन व्यवस्था है और मिस्टर कैनेडी को कोई हक नहीं कि वे हमें बताएँ कि हमें कौन सी व्यवस्था अपनानी चाहिए, हम सोचते हैं कि खुद अमेरिका के लोग भी किसी दिन अपनी इस पूँजीवादी व्यवस्था से थक जाएंगे।Ó1961 की दिसंबर को उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि मैं हमेशा माक्र्सवादी-लेनिनवादी रहा हूं और हमेशा रहूँगा।Óतब तक भी फिदेल और चे वक्त की नब्ज को पहचान रहे थे। चे ने इस दौरान सोवियत संघ, चीन, उत्तरी कोरिया, चेकोस्लावाकिया और अन्य देशों की यात्राएँ कीं। चे को अमेरिका की ओर से इतनी जल्द शांति की उम्मीद नहीं थी इसलिए क्यूबा की क्रान्ति को बचाये रखने के लिए उसे बाहर से समर्थन दिलाना बहुत जरूरी था। क्यूबा तक आने वाली जरूरी सामग्रियों के जहाज रास्ते में ही उड़ा दिए जाते थे और क्यूबा पर अमेरिका के हवाई हमले कभी तेल संयंत्र उड़ा देते थे तो कभी क्यूबा के सैनिक ठिकानों पर बमबारी करते थे। बेहद हंगामाखेज रहे कुछ ही महीनों में इन्हीं परिस्थितियों के भीतर अक्टूबर 1962 में सोवियत संघ द्वारा आत्मरक्षा के लिए दी गई एक परमाणु मिसाइल का खुलासा होने से अमेरिका ने क्यूबा पर अपनी फौजें तैनात कर दीं। उस वक्त बनीं परिस्थितियों ने विश्व को नाभिकीय युद्ध के मुहाने पर ला खड़ा किया था। आखिरकार सोवियत संघ व अमेरिका के बीच यह समझौता हुआ कि अगर अमेरिका कभी क्यूबा पर हमला न करने का वादा करे तो सोवियत संघ क्यूबा से अपनी मिसाइलें हटा लेगा।अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम और परिस्थितियों के भीतर अपना कार्यभार तय करते हुए अंतत: 3 अक्टूबर 1965 को फिदेल ने साफ तौर पर पार्टी का नया नामकरण करते हुए उसे क्यूबन कम्युनिस्ट पार्टी का नया नाम दिया और कहा कि कम्युनिस्ट कहलाना हमारे लिए फ़ख्ऱ और गौरव की बात है।क्यूबा का इंकलाब : एक अलग मामलाक्यूबा की क्रान्ति न रूस जैसी थी न चीन जैसी। वहाँ क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ पहले से क्रान्ति के लिए प्रयासरत थीं और उन्होंने निर्णायक क्षणों में विवेक सम्मत निर्णय लेकर इतिहास गढ़ा। उनसे अलग, क्यूबा में जो क्रान्ति हुई, उसे क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी का भी समर्थन या अनुमोदन हासिल नहीं था। उस वक्त क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी फिदेल के गुरिल्ला युद्ध का समर्थन नहीं करती थी बल्कि बटिस्टा सरकार के ऊपर दबाव डालकर ही कुछ हक अधिकार हासिल करने में यकीन करती थी। लेकिन वक्त के साथ न केवल फिदेल ने क्यूबाई इंकलाब को सिर्फ एक देश के इंकलाब से बाहर निकालकर उसे एक अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की अहम तारीख बनाया बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट बिरादरी ने भी क्यूबा के इंकलाब को साम्राज्यवाद से बचाये रखने में हर मुमकिन भूमिका निभाई। चे ग्वेवारा का प्रसिद्ध लेख Óक्यूबा: एक्सेप्शनल केस?Ó क्यूबा की क्रान्ति की अन्य खासियतों पर और समाजवाद की प्रक्रियाओं पर विलक्षण रोशनी डालता है।करिष्मा दर करिश्मा जनता की ताकत से 1961 की 1 जनवरी को 1 लाख हाई स्कूल पास लोगों के साथ पूरे मुल्क को साक्षर बनाने का अभियान शुरू किया गया और ठीक एक साल पूरा होने के 8 दिन पहले ही क्यूबा को पूर्ण साक्षर करने का करिश्मा कर दिखाया। दिसंबर 22, 1961 को क्यूबा निरक्षरता रहित क्षेत्र घोषित कर दिया गया। ऐसे करिश्मे क्यूबा ने अनेक क्षेत्रों में दिखाए और अभी भी जारी हैं। इंकलाब के तत्काल बाद जमीन पर से विदेशी कब्जे खत्म किए गए और बड़े किसानों व कंपनियों से जमीनें लेकर छोटे किसानों व खेतिहर मजदूरों को बाँटी गईं। इंकलाब के बाद के करीब बीस-पच्चीस वर्षों तक क्यूबा ने तरक्की की अनेक छलाँगें भरीं। बेशक सोवियत संघ व अन्य समाजवादी देशों के साथ सामरिक-व्यापारिक संबंधों की इसमें अहम भूमिका रही। गन्ने की एक फसल वाली खेती से शक्कर बनाकर क्यूबा ने सोवियत संघ से शक्कर के बदले पेट्रोल और अन्य आवश्यक वस्तुएँ हासिल कीं। उद्योगों का ही नहीं खेती का भी राष्ट्रीयकरण करके खेतों में काम करने वाले मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा, छुट्टियाँ, मुफ्त शिक्षा, इलाज की सुविधाएँ और बच्चों के लिए झूलाघर खोले गए। क्रान्ति के महज 7 वर्षों के भीतर क्यूबा की 80 फीसदी कृषि भूमि पर सरकार का स्वामित्व था। निजी स्वामित्व वाले जो छोटे किसान थे, उनके भी सरकार ने जगह-जगह कोऑपरेटिव बनाए और उन्हें प्रोत्साहित किया। सबके लिए भोजन, रोजगार, शिक्षा और सबके लिए मुफ्त इलाज की सुविधा ने क्यूबा को मानव विकास के किसी भी पैमाने से अनेक विकसित देशों से आगे लाकर खड़ा कर दिया था।
मुश्किल दौर का मुकाबला क्रान्ति के औजारों से सोवियत संघ के विघटन से निश्चित ही क्यूबा की अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा। भीषण मंदी ने क्यूबा को अपनी चपेट में ले लिया। सोवियत संघ केवल क्यूबा की कृषि उपज का खरीददार ही नहीं था बल्कि क्यूबा की ईंधन और रासायनिक खाद की जरूरतों का भी बड़ा हिस्सा वहीं से ही पूरा होता था। सोवियत संघ के ढहने से क्यूबा में रासायनिक खाद और कीटनाशकों की उपलब्धता 80 फीसदी तक गिर गई और उत्पादन में 50 फीसदी से ज्यादा गिरावट आई। क्यूबा के प्रति व्यक्ति प्रोटीन और कैलोरी खपत में 30 फीसदी कमी दर्ज की गई। लेकिन क्यूबा इन सभी समस्याओं से बगैर किसी बाहरी मदद के जिस तेजी से फिर सँभला, वह क्यूबाई करिश्मों की गिनती को ही बढ़ाता है। अपने दक्ष व प्रतिबद्ध वैज्ञानिकों और लोगों के प्रति ईमानदार, दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति ने 1995 के मध्य तक अपनी कृषि को पूरी तरह बदल कर नये हालातों के अनुकूल ढाल लिया। रासायनिक खाद के बदले जैविक खाद से खेती की जाने लगी। एक फसल के बदले विविधतापूर्ण फसल चक्र अपनाए गए। आज क्यूबा सारी दुनिया में जैविक खेती और जमीन का सही तरह से इस्तेमाल करने वाले देशों में सबसे आगे है।यही स्थिति ऊर्जा के क्षेत्र में भी हुई। सोवियत संघ से पेट्रोलियम की आपूर्ति बंद हो जाने के बाद क्यूबा के वैज्ञानिकों व इंजीनीयरों ने बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा और पनबिजली के संयंत्रों पर काम किया। कम बिजली खपत वाले रेफ्रीजरेटर, हीटर, बल्ब इत्यादि बनाए गए और आज क्यूबा वैकल्पिक व प्रकृति हितैषी ऊर्जा उत्पादन में भी दुनिया की अग्रिम पंक्ति में है।पश्चिमी यूरोप में प्रत्येक 330 लोगों की देखभाल के लिए एक डॉक्टर है; अमेरिका में प्रत्येक 417 लोगों की देखभाल के लिए एक डाक्टर है, जबकि क्यूबा में प्रत्येक 155 लोगों की देखभाल के लिए एक डॉक्टर है। क्यूबा जैसा छोटा सा देश 70 हजार से ज्यादा डाक्टर्स को प्रशिक्षित कर रहा है और उन्हें दुनिया के हर हिस्से में मानवता की मदद के लिए भेज रहा है जबकि उससे कई गुना बड़ा अमेरिका करीब 64 से 68 हजार डाक्टरों का ही प्रशिक्षण कर पा रहा है।साम्राज्यवाद का दु:स्वप्न: क्यूबा और फिदेलआइजनहावर, कैनेडी, निक्सन, जिमी कार्टर, जानसन, फोर्ड, रीगन, बड़े बुश और छोटे बुश, बिल क्लिंटन और अब ओबामा-भूलचूक लेनी-देनी भी मान ली जाए तो अमेरिका के 10 राष्ट्रपतियों की अनिद्रा की एक वजह लगातार एक ही मुल्क बना रहा - क्यूबा।1991 में जब सोवियत संघ बिखरा और यूरोप की समाजवादी व्यवस्थाएँ भी एक के बाद एक ढहती चली गईं तो यह सिर्फ पूँजीवादियों को ही नहीं वामपंथियों को भी लगने लगा था कि अब क्यूबा नहीं बचेगा। फिर जब फिदेल कास्त्रो की बीमारी और फिर मौत की अफवाह फैलाई गई तब भी यही लगा था कि फिदेल के मरने के बाद कौन होगा जो इतनी समझदारी और कूटनीति से काम लेते हुए क्यूबा को अमेरिकी ऑक्टोपस से बचाये रख सके। लेकिन क्यूबा बना रहा। न केवल बना रहा बल्कि अपने चुने हुए रास्ते पर मजबूत कदमों के साथ आगे बढ़ता रहा।फिदेल कास्त्रो को मारने और क्यूबा की आजादी खत्म करने की कितनी कोशिशें अमेरिका की तरफ से हुई हैं, इसकी गिनती लगाते-लगाते ही गिनती बढ़ जाती है। सन 2006 में यू0के0 में चैनल 4 ने एक डॉक्युमेंट्री प्रसारित की थी जिसका शीर्षक था-कास्त्रो को मारने के 638 रास्ते (638 वेज टु किल कास्त्रो)। फिल्म में फिदेल कास्त्रो को मारने के अमेरिकी प्रयासों का एक लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया था जिसमें सी.आई.ए. की मदद से फिदेल को सिगार में बम लगाकर उड़ाने से लेकर जहर का इंजेक्शन देने तक के सारे कायराना हथकंडे अपनाए गए थे। तकरीबन 40 बरस तक फिदेल कास्त्रो के सुरक्षा प्रभारी और क्यूबा की गुप्तचर संस्था के प्रमुख रहे फेबियन एस्कालांते बताते हैं कि Óलाल शैतानÓ को खत्म करने के लिए अमेरिका, सी0आई0ए0 और क्यूबा के भगोड़े व गद्दारों ने हर मुमकिन कोशिश की। फिल्म के निर्देशक डॉलन कैन्नेल और निर्माता पीटर मूर ने अमेरिका में ऐशो-आराम की जिंदगी बिता रहे ऐसे बहुत से लोगों से मुलाकात की, जिन पर फिदेल की हत्या की कोशिशों का इल्जाम है। उनमें से एक सी0आई0ए0 का रिटायर्ड अधिकारी फेलिक्स रोड्रिगुएज भी था जो 1961 में क्यूबा पर अमेरिकी हमले के वक्त क्यूबा के विरोधियों का प्रशिक्षक था और जो 1967 में चे ग्वेवारा के कत्ल के वक्त बोलीविया में भी मौजूद था। यहाँ तक कि अमेरिकी जासूसी एजेंसियों की नाकामियों से परेशान होकर अमेरिकी हुक्मरानों ने फिदेल को मारने के लिए माफिया की भी मदद ली थी। कुछ बरसों पहले 80 पार कर चुके फिदेल कास्त्रो भाषण देते हुए हवाना में चक्कर खाकर गिर गए थे। उनकी पैर की हड्डी भी इससे टूट गई थी। बस, फिर क्या था। अमेरिकी अफवाह तंत्र पूरी तरह सक्रिय होकर फिदेल की मृत्यु की अफवाहें फैलाने लगा। लेकिन फिदेल ने फिर दुनिया के सामने आकर सब अफवाहों को ध्वस्त कर दिया। जब फिदेल के डॉक्टर से किसी पत्रकार ने पूछा कि क्या उनकी जिंदगी का यह आखिरी वक्त है तो डॉक्टर ने कहा कि फिदेल 140 बरस की उम्र तक स्वस्थ रह सकते हैं।लेकिन फिदेल ने क्यूबा की जिम्मेदारियों को सँभालने में सक्षम लोगों की पहचान कर रखी थी। सन् 2004 से ही धीरे-धीरे फिदेल ने अपनी सार्वजनिक उपस्थिति को कम करना शुरू कर दिया था। फिर 2006 में फिदेल ने अपनी जिम्मेदारियाँ अस्थायी तौर पर राउल कास्त्रो को सौंपीं। चूँकि राउल कास्त्रो फिदेल के छोटे भाई भी हैं इसलिए सारी दुनिया में पूँजीवादी मीडिया को फिर दुष्प्रचार का एक बहाना मिला कि कम्युनिस्ट भी परिवारवाद से बाहर नहीं निकल पाए हैं। लेकिन ये बात कम लोग जानते हैं कि राउल कास्त्रो फिदेल के भाई होने की वजह से नहीं बल्कि अपनी अन्य योग्यताओं की वजह से क्यूबा के इंकलाब के मजबूत पहरेदार चुने गए हैं। सिएरा मास्त्रा के पहाड़ों पर 1956 में जिस सशस्त्र अभियान में चे और फिदेल अपने 80 अन्य साथियों के साथ ग्रान्मा जहाज में मैक्सिको से क्यूबा आए थे, राउल उस अभियान का बेहद महत्त्वपूर्ण हिस्सा थे। बटिस्टा की फौजों से चंद महीनों के भीतर हुई सैकड़ों मुठभेड़ों में फिदेल, चे, राउल और उनके 10 अन्य साथियों को छोड़ बाकी सभी मारे गए थे। यह भी कम लोग जानते हैं कि फिदेल के कम्युनिस्ट बनने से भी पहले से राउल कम्युनिस्ट बन चुके थे। न सिर्फ जंग के मैदान में एक फौज के प्रमुख की तरह बल्कि सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक चुनौतियों का भी राउल कास्त्रो ने मुकाबला किया है। मंदी के संकटपूर्ण ौर में खेती की उत्पादकता बढ़ाने के लिए आज क्यूबा के जिस शहरी खेती के प्रयोग की दुनिया भर में प्रशंसा होती है, वह दरअसल राउल कास्त्रो की ही कल्पनाशीलता का नतीजा है।बेशक पूरी दुनिया में फिदेल एक जीवित किंवदंती हैं इसलिए क्यूबा से बाहर की दुनिया में हर क्यूबाई उपलब्धि चे और फिदेल के खाते में ही जाती है। लेकिन इसका मतलब यह भी है कि फिदेल ने अपना इतना विस्तार कर लिया है कि वहाँ अनेक अनुभवी व नये लोग तैयार हैं। राउल कास्त्रो सिर्फ फिदेल के भाई होने का नाम ही नहीं, बल्कि इंकलाब की जिम्मेदारी सँभालने के लिए तैयार लोगों में से एक नाम है।इंकलाब का बढ़ता दायराआज सोवियत संघ को विघटित हुए करीब दो दशक पूरे हो रहे हैं। ऐसी कोई बड़ी ताकत दुनिया में नहीं है जो अमेरिका को क्यूबा पर हमला करने से रोक सके। क्यूबा से कई गुना बड़े देश इराक और अफगानिस्तान को अमेरिका ने सारी दुनिया के विरोध के बावजूद ध्वस्त कर दिया। चीन में कहने के लिए कम्युनिस्ट शासन है लेकिन बाकी दुनिया के कम्युनिस्ट ही उसे कम्युनिज्म के रास्ते से भटका हुआ कहते हैं। उत्तरी कोरिया ने अपनी सुरक्षा के लिए परमाणु शक्ति संपन्न बनने का रास्ता अपनाया है। फिर अब अमेरिका को कौन सी ताकत क्यूबा को नेस्तनाबूद करने से रोकती है? वह ताकत क्यूबा की क्रान्तिकारी जनता की ताकत है जिसे पूरी दुनिया की मेहनतकश और इंसाफ पसंद जनता अपना हिस्सा समझती है और अपनी ताकत का एक अंश सौंपती है।पिछले बीस बरसों से वे लगातार चुनौतियों से जूझ रहे हैं अनेक मोर्चों पर बिजली की कमी की समस्याएँ, रोजगार में कमी, उत्पादन और व्यापार में कमी और बाहरी दुनिया के दबाव अपनी जगह बदस्तूर कायम हैं ही, फिर भी, इतने कम संसाधनों और इतनी ज्यादा मुसीबतों के बावजूद क्यूबा ने शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा और जन पक्षधर जरूरी चीजों को अपने नागरिकों के लिए अनुपलब्ध नहीं होने दिया। अप्रैल 2010 में क्यूबा के लाखों युवाओं को संबोधित करते हुए राउल कास्त्रो ने कहा कि Óइतनी मुश्किलों में से उबरने की ताकत सिर्फ सामूहिक प्रयासों और मनुष्यता को बचाने की प्रतिबद्धता से ही आती है, और वह ताकत समाजवाद की ताकत है।Ó ये सच है कि कई मायनों में क्यूबा की जनता आज सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है। लेकिन वे जानते हैं कि इसका सामना करने और हालातों को अपने पक्ष में मोड़ लेने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। सर्वग्रासी पूँजीवाद अपने जबड़े फैलाए क्यूबा के इंकलाब को निगलने के लिए 50 वर्षों से ताक में है। चे ने 1961 में लिखा था कि गलतियाँ तो होती हैं लेकिन ऐसी गलतियाँ न हों जो त्रासदी बन जाएँ। क्यूबाई जनता जानती है कि समाजवाद के बाहर जाने की गलती त्रासदियाँ लाएगी।आज सिर्फ क्यूबा में ही नहीं, सारी दुनिया में हर उस शख्स के भीतर की आवाज फिदेल और क्यूबा के लोगों और क्यूबा की आजादी के साथ है जिसके भीतर अन्याय के खिलाफ जरा भी बेचैनी है। आज चे, फिदेल और क्यूबा सिर्फ एक देश तक महदूद नाम नहीं हैं बल्कि वे पूरी दुनिया के और खासतौर पर पूरे दक्षिण अमेरिका के साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के प्रतीक हैं। अमेरिका जानता है कि फिदेल और क्यूबा पर किसी भी तरह का हमला अमेरिका के खिलाफ एक ऐसे विश्वव्यापी जबर्दस्त आंदोलन की वजह बन सकता है जिसकी लहरों से टकराकर साम्राज्यवाद-पूँजीवाद की नाव तिनके की तरह डूब जाएगी।क्यूबा की प्रेरणा, जोश और फिदेल की अनुभवी सलाहों के मार्गदर्शन में आज लैटिन अमेरिका के अनेक देशों में अमेरिकी साम्राज्यवाद और सरमायादारी के खिलाफ आंदोलन मजबूत हुए हैं और वेनेजुएला और बोलीविया में तो परेशानहाल जनता ने इन शक्तियों को सत्ता भी सौंपी है। अपनी ताकत को बूँद-बूँद सहेजते हुए पूरी सतर्कता के साथ ये आगे बढ़ रहे हैं। क्यूबा ने उनकी ताकत को बढ़ाया है और वेनेजुएला के राष्ट्रपति चावेज और बोलीवियाई राष्ट्रपति इवो मोरालेस के उभरने से क्यूबा को भी बल मिला है। अमेरिकी चक्रव्यूह से अन्य देशों को भी निजात दिलाने के लिए वेनेजुएला की पहल पर लैटिन अमेरिकी देशों को एकजुट करके Óबोलीवेरियन आल्टरनेटिव फॉर दि अमेरिकाजÓ (एएलबीए) और बैंक ऑफ द साउथ के दो क्षेत्रीय प्रयास किए हैं जिनसे निश्चित ही पूँजीवाद के बनाए भीषण मंदी के दलदल में फँसे देशों को कुछ सहारा भी मिलेगा और साथ ही समाजवादी विकल्प में उनका विश्वास बढ़ेगा। अब तक इन प्रयासों में हॉण्डुरास, निकारागुआ, डॉमिनिका, इक्वेडोर, एवं कुछ अन्य देश जुड़ चुके हैं। यह देश मिलकर अमेरिका की दादागीरी को कड़ी व निर्णायक चुनौती दे सकते हैं। नये दौर में ऐसी ही रणनीतियाँ तलाशनी होंगी।भीतर और बाहर: चैकस और मजबूतजो चीज हमने 20वीं सदी के इतिहास में देखी और जिससे हम कुछ सीख सकते हैं वे शोषण और अत्याचारों के खिलाफ हुईं क्रान्तियाँ तो थीं ही, पर साथ ही ये भी कि क्रान्ति कर लेने के बाद उसे सँभालना, उसे वक्त के कीचड़ में धँसने से रोकना और भी बड़ी, और भी कठिन जिम्मेदारी होती है। यह जिम्मेदारी क्यूबा ने निभाई, वहाँ के लोगों ने और करिश्माई क्रान्तिकारी नेताओं ने निभाई। इंकलाब को नाकाम करने वाली ताकतों को खदेडऩा और बाकी रहे लोगों के साथ उत्पादन के समाजवादी ढाँचे का निर्माण करना, लोगों के बीच संपत्ति के सामूहिक सामाजिक स्वामित्व की समझदारी पैदा करना और इस रास्ते पर चलते हुए भी दुनिया की रफ्तार के साथ पीछे न होना, अदब में, तहजीब में, विज्ञान में, नये-नये कारनामे अंजाम देना और इस सब को इंकलाब के दायरे के भीतर इस तरह समेटना कि न किसी को दम घुटता महसूस हो और साथ ही इंकलाब का दायरा भी बगैर शोरगुल के अपना कद बढ़ाता जाए-ये सब क्यूबा ने खुद सीखा और दुनिया में इंकलाब की ख्वाहिश रखने वालों को सिखाया। यह सब तो लम्बी तैयारी वाले रोज-रोज, इंच-इंच बढऩे वाले काम हैं लेकिन लोगों की ऐसी हर कोशिश को नाकाम करने के लिए जो ताकतें सक्रिय हैं, उनसे निपटना, अंदर और बाहर व्यूह रचना कर पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के जबड़ों से इंकलाब को बचाना भी बेहद मुश्किल काम था। लोगों को लगता है कि जब तक सोवियत संघ था तब तक क्यूबा को कोई समस्या नहीं थी। यह सच नहीं है। यह रास्ता कभी आसान नहीं था। जब सोवियत संघ था तब भी देश के भीतर की आबादी को समाजवादी उत्पादन पद्धति में ढालने के प्रयास बरसों की मेहनत और चींटी की चाल ही साबित होते थे। इसके बावजूद नये-नये कल्पनाशील कार्यक्रमों के जरिये लोगों को इस दिशा में आगे बढ़ाना और एक गौरव भाव का विकास करते हुए बाकी दुनिया को रास्ता दिखाना इंकलाब के बाद का एक जरूरी काम था जिसे क्यूबा ने कर दिखाया ।जिंदगी के बारे में नजरिया बदल गया: मारक्वेजहमारे वक्त के एक महान रचनाकार और नोबल से सम्मानित गाब्रिएल गार्सिया मारक्वेज उर्फ गाबो का मानना है कि 1958 के पहले तक वे मनोरंजन पूर्ण लेखन करते थे, व्यंग्यात्मक राजनीतिक लेखन भी करते थे लेकिन 1959 की 1 जनवरी को क्यूबा में जो क्रांति हुई, उसने जिंदगी के बारे में उनका नजरिया बदल दिया। क्यूबा के इंकलाब ने ऐसा सिर्फ गाबो की जिदगी में ही नहीं किया था, बल्कि लैटिन अमेरिका की पूरी आबादी ही जिंदगी, आज़ादी और इंकलाब के ऐसे सुरूर में आ गई थी जो सुरूर आज तक फीका नहीं पड़ सका। उसके बाद से तो खैर सारी दुनिया के ही वे सारे लोग क्यूबा, फिदेल और चे के प्यार की गिरफ्त में पड़ते रहे जिन्हें इंसानियत और न्याय से प्यार है। बहरहाल तो हुआ यूँ कि पूंजीवादी मुल्कों की प्रेस और मीडिया क्यूबा की क्रान्ति को बदनाम करने की काफी कोशिश कर रहे थे। एक रोज़ कोलंबिया में रह रहे और वहां के अखबार से अपनी रोजी-रोटी कमा रहे गाबो से क्यूबा का एक प्रतिनिधि आकर मिला और उसने गाबो को क्यूबा आने, वहाँ की न्याय व अन्य व्यवस्थाएँ देखने का आमंत्रण दिया। क्यूबा की आजादी, वहाँ के लोगों की मासूमियत, ईमानदारी और अपने इंकलाब के लिए सम्मान देखकर गाबो ताजिंदगी क्यूबा के प्यार में रच बस गए। इसके कुछ ही महीनों बाद उन्हें क्यूबा की क्रान्तिकारी सरकार द्वारा बनाई गई समाचार एजेंसी Óप्रेन्सा लेटिनाÓ में काम करने का मौका मिला। बाद में गाबो को प्रेन्सा लेटिना का प्रतिनिधि बनाकर न्यूयॉर्क भी भेजा गया। धीरे-धीरे गाबो और फिदेल की दोस्ती भी बढ़ती गई। दरअसल जब मारक्वेज ने 1970 में Ó दि स्टोरी ऑफ अ शिप रेक्डÓ लिखी थी तो उसमें एवेन्चुरा नामक जहाज की गति की गणना में कुछ गलती थी, जिसकी तरफ सबसे पहले मारक्वेज का ध्यान फिदेल ने ही खींचा था। तब से हमेशा मारक्वेज अपनी किताब छपने के पहले पांडुलिपि फिदेल कास्त्रो को पढ़ाते हैं, और सारी दुनिया में वे लैटिन अमेरिका की शोषण से आजादी, अस्मिता और कोलंबिया व अन्य लैटिन अमेरिकी देशों में संघर्षरत क्रान्तिकारियों की ओर से मध्यस्थ्ता करते हैं, उनकी माँगों को दुनिया के सामने लाते हैं।चे के शब्दों में फिदेलक्यूबा की क्रान्ति के सबसे अहम, सबसे अद्भुत और भूकंपकारी तत्व का नाम है फिदेल कास्त्रो। फिदेल के व्यक्तित्व की यह खासियत है कि वह जिस भी आंदोलन में भागीदारी करेगा, उसका नेतृत्व करेगा। उसके अंदर महान नेतृत्व के गुण हैं और इनके साथ साफगोई, ताकत, और साहस के साथ उसकी लोगों की इच्छा को पहचानने की अद्वितीय क्षमता ने उसे इतिहास में ये सम्मानजनक जगह दिलाई है। भविष्य में उसका असीमित विश्वास और उसे अपने साथियों से ज्यादा साफ और दूर तक समझ कर उससे दो कदम आगे का फैसला ले सकने की उसकी क्षमताओं ने, उसकी सांगठनिक योग्यता और कमजोर करने वाले भेदों का विरोध करने की उसकी ताकत ने, लोगों के लिए उसके बेतहाशा प्यार ने और जन कार्रवाई का रुख तय कर सकने की उसकी क्षमता ने क्यूबा की क्रान्ति का सबसे अहम किरदार बनाया है। -साभार विनीत तिवारी-

Wednesday, June 9, 2010

महाशय चिरकुट जी

महाशय चिरकुट शब्द पाठकों को पढऩे में जरूर कुछ अटपटा लग रहा होगा। वैसे तो चिरकुट शब्द लगभग सभी लोगों ने सुना ही होगा लेकिन महाशय चिरकुट शायद पहली बार सुन रहे होंगे। हमारा यह नायक ऐसा ही है। उसको स्वॢणम शब्दों से नवाजना मेरी मजबूरी है। शायद इसके अलावा मेरे पास कोई और शब्द नहीं है जिससे इस महान आदमी को नवाज सकूं। महाशय के महान कार्यों को कागजों पर उकेर रहा हूं तो ऐसा मत समझ लीजिएगा कि यह कार्य खुशी-खुशी करने जा रहा हूं बल्कि यह भी मेरी मजबूरी थी। आप सोच रहे होंगे कि यह लेखक भी शायद मूर्ख हो जो इस तरह की बकवास कर रहा है। आखिर लिखने की भी कोई मजबूरी हो सकती है? लेकिन ऐसा ही है क्योंकि महाशय चिरकुट जी बहुत दिनों से मेरे दिमाग में ब्रेन ट्यूमर की तरह अंदर-अंदर मवाद बना रहे थे, जिसे बाहर निकालना ही था। बात उन दिनों की है जहां मै एक अखबार के दफ्तर में नौकरी करता था। हमारे महाशय जी वहां के सीईओ थे। वे जब चलते थे या किसी से बात करते थे तो ऐसे मालूम होता था जैसे डांडिया कर रहे हों। वह पचास वर्ष से कम नहीं थे लेकिन इसके बावजूद वह अपने आपको बीस वर्ष का नौजवान ही समझते थे। शायद इसी वजह से उनका हाव-भाव डांडिया के मुद्रा में था। वे ङ्क्षठगने कद के लगभग पांच फुटा व्यक्ति थे। सिर भी उनका उजड़ा चमन हो चुका था। अनकी मूंछें भी थीं जो नत्थूराम जैसी नहीं थीं। मूछें और सिर में बचे-खुचे बाल चांदी हो गये थे। लेकिन नौजवान दिखने के लिए हर वक्त बालों को कलर किए रहते थे। उनके गोरे-चि_े व नाक-नख्श की बनावट बहुत सुंदर तो नहीं लेकिन काम चलाऊ था। गोलाई लिए हुए चेहरे से मिचमिचाती हुई दो आंखेें उनके चिरकुट होने की संकेत दे रही थीं। किसी से बात करते समय वह नजरें नीचे की तरफ गड़ाकर डांडिया के मुद्रा में हो जाते थे। ध्यान से देखने पर चिरकुट तो कम लेकिन चोर ज्यादा मालूम पड़ते थे। उन्हें कफन खसोट कहा जाए तो भी कम है। क्योंकि पैसे को वह दांत से पकड़ कर खींचते थे। महाशय चिरकु ट जी पैसे के प्रेमी इस कदर थे कि उसके लिए सब कुछ करने को तैयार रहते थे। चिरकुट जी अपने मातहत कर्मचारियों के का वेतन काटने में महारत हासिल किए हुए थे जो उनकी सबसे बड़ी महानता थी। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वे जिस काम के लिए रखे गए थे उसके बारे में उन्हे रत्ती भर की जानकारी नहीं थी। फिर भी वे उस काम को बड़ी ही निष्ठा पूर्वक निभाते थे। उनके अंदर मालिक की चाटुकारी इस कदर कूट-कूट कर भरी हुई थी कि जैसे कोई कुत्ता अपने स्वामी का चू-चू शब्द सुनने के बाद उसके पैरों को चाटना शुरू कर देता हो। वह कला के शौकीन थे क्योंकि संस्थाान में जिस काम को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें रखा गया था, उस काम को किनारे रख कर उसकी सुंदरता पर विशेष ध्यान रखते थे। वे अपने किसी भी कर्मचारी से काम की उपेक्षा नहीं करते थे बल्कि वेतन काटने में मशगूल रहते थे। वे हमेशा इस ताक मे रहते थे कि कर्मचारी किसी तरह छुट्टी पर जाए और उसका वेतन काट लें। क्योंकि वह काम कराने में नहीं बल्कि पैसा काटने में महिर थे। कुछ मामलों में तो महाशय जी को कौवा भी कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा। क्योंकि जिस तरह से सुबह-सुबह कौवे की निगाह गंदा खोदने पर लगी रहती थी ठीक उसी तरह चिरकुट जी की निगाह सोते-जागते कर्मचारियों का वेतन काटने पर रहती थी।महाशय चिरकुट जी की पूरी एक चौकड़ी थी जो संस्थान को आगे बढऩे से रोकने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। इस चौकड़ी में एचआर डिपार्टमेंट का जो हेड था उसकी मूंछें व दाढ़ी बिल्कुल सफाचट थीं। वह गोरा चि_ा, गोलाई लिए हुए चेहरे पर मदमत्त हुई दो आंखें जी मैन होने की पूरी-पूरी संकेत दे रही थीं। हमारे महाशय चिरकुट जी भी कुछ इस कदर भी दिखाई देते थे। यही कारण था कि दोनों लोगों में अकेले में खूब छनती थी। ऐसा मैने इसलिए अनुमान लगा लिया क्योंकि कुछ दिनों पहले नोएड के स्टेडियम में रात के समय ऐसे कई जी मैनों से मेरी मुलाकात हो चुकी थी। जहां से कई बार अपनी इज्जत बचाकर भागना पड़ा था।महाशय चिरकुट जी का एक छोटा सा परिवार था। इस परिवार के होते हुए भी उन्हें अकेले रहना पड़ता था। यही कारण था कि वह हर वक्त आफिस में ही पड़े रहते थे। छुट्टी भी उनके लिए कोई मायने नहीं रखता। इनकी इस स्थिति को देख कर मेरा मन भी काफी दुखी हो जाता। इनको देखने पर ऐसा मालूम होता था कि बीबी से छत्तीस का आंकड़ा हो। कभी-कभार बीबी से पिटते हों, इसमे कोई शक नहीं। अगर ऐसा हो तो यह बड़े दुख की बात है। इनके कार्य करने की स्टाइल पुराने बाबूजी - बाबूजी का जुर्माना-जैसी थी। फर्क शिर्फ इतना था कि बाबूजी अपने कर्मचारियों की गलतियों को निकालकर जुर्माना लगाते थे और उस पैसे को धार्मिक व सामाजिक जैसे महान कार्यों में दान करते थे। कर्मचारियों के एक-एक बूंद खून को निचोड़ कर धाॢमक कार्य में लगाकर अपने आपको धन्य समझते थे, जो उनकी महानता थी। जो कर्मचारी जितना ज्यादा जुर्माना देता था उसे उतनी ही पीस बर्फी अधिक मिलती थी और बाबूजी कहते थे कि यह तो हमारे दुधारू गाय हैं, जिनका दो लात भी वरदाश्त किया जा सकता है। इतना सबकुछ होने के बावजूद वे दया के मूर्ति थे।उधर, हमारे चिरकुट जी महाराज के काम करने का तरीका कुछ अलग ही किश्म का था। वे खुद अपने नहीं बल्कि अपनी चाौकड़ी के साथ मिलकर कर्मचारियों का वेतन काटकर मालिक को खुश करने में जुटे थे। उनका एक ही लड़का था जिसका उन्होंने एक विदेशी लड़की से शादी करवा दी थी, जो इनके पास न रहकर लड़की के घर पर ही रहता था। महाशय चिकुट जी ने ऐसा क्यों किया, इसमे अधिक दिमाग दौड़ाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि अब आप इतना समझ ही गए होंगे कि महाशय जी पैसे के लिए कितना नीचे उतर जाएंगे बताने की जरूरत नहीं है। उस विदेशी लड़की के पास काफी धन-दौलत थी जिसे महाशय जी हथियाने में लगे हुए थे। बाद में वही हुआ, चाहे बीबी-बच्चों का सुख भोगें या धन-दौलत की। आप पूछेंगे कि महाशय चिरकुट जी आखिर कौन थे? तो भाई, मैं इतनी आसानी से बताने वाला नहीं हूं। और हां इतनी जल्दी आप लोगों को छोड़ुंगा भी नहीं। क्योंकि यह नायक कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। इसे चिरकुट शब्द से नवाजा तो जरूर हूं लेकिन इसको चिकुट कहना चिरकुट शब्द की बेइज्जती भी है। शायद इसीलिए महाशय चिरकुट शब्द से नवाजा गया है। खैर सीधे-सीधे तो नहीं बताउंगा कि वह कौन थे? लेकिन कुछ उदाहरणों द्वारा इंगित जरूर करूंगा जिसको समझने में आप को परेशानी न हो। क्यों न आप मुझे पानी पी-पी कर गाली ही दें। तो चलिए बता ही देता हूं।महाशय चिरकुट जी की महानता को देखकर हमे महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी की ए रचना का नायक याद आ गया। वह जब सीढिय़ों पर चढ़ता था तो ऐसे मालूम होता था जैसे कह रहा हो कि सीढ़ी जी महाराज मुझे माफ करना मैं आप के ऊपर चढ़ रहा हूं। उनके दरवाजे के सामने हेमेशा गंदा पानी भरा रहता था जिसमें वह खुद घुटनों तक धोती को माड़ कर गंदे पानी से चलते हुए निकल जाया करता था। लोग कई-कई बार उससे यह कहकर थक गये थे कि इसमें मिट्टी डाल दो, तो उसका जवाब था कि जब सभी लोग इसी मेसे आ-जा रहे हैं तो मुझे जाने में क्या दिक्कत है जी, लेकिन उसने मिट्टी नहीं डाली। इसी बीच एक केंचुआ उनके पैर पर चढऩे लगा और उन्होंन पैर को जोर से झटका और कहा कि वह केंचुआ था....। अब तो शायद आप को बतान जरूरी नहीं होगा कि हमरे महाशय चिरकुट जी कुछ इसी मेसे थे। जिसको बयान करने में मेरा कलम साथ नहीं दे रहा है। क्योंकि वह और अधिक अपमान नहीं झेल सकता।

Monday, June 7, 2010

इश्क गुनाह क्यों?

कल इश्क के कूचे में इक नौजवां मारा गया, हाथ मलती थी कज़ा वो बे-कज़ा मारा गया

सदियों पहले राजे-रजवाड़ों के समय में किसी ने लिखा था कि कल इश्क के कूचे में इक नौजवां मारा गया, हाथ मलती थी क ज़ा वो बे-कजा मारा गया। प्राचीन काल में एक इश्क करने वाले नौजवान को बेमौत मारे जाने पर साहित्य लिखा गया। उस पर गहन चिंतन हुआ। उस समय शहंशाहों के दरबार हुआ करते थे लेकिन अब लोकतंत्र है। उस समय और आज के समय में जमीन-आसमान का फर्क आ चुका है। आज पुरानी परंपराओं को तोड़ कर आगे बढऩे वाले प्रेमी युगलों की सुंख्या में दिन-प्रतिदिन बढ़ोत्तरी हो रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बात करें तो अजीत-अंशु के बाद मनवीर-रजनी प्रकरण भारतीय लोकतंत्र पर ही सवाल उठा रहे हैं कि आखिर यह कैसा लोकतंत्र है? जहां पर लोगों को खुलकर प्यार करने का भी अधिकार नहीं हैं। एक तरफ तो लोकतंत्र में सबको अपनी आजादी हासिल है तो वहीं दूसरी तरफ उन्हें अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार क्यों नहीं है? कानून किसके हिसाब से चल रहा है? जिनके अंतिम संस्कार कर दिये गये, वे जिंदा लौट रहे हैं। यहां पर तो मूंछ का सवाल होता है। मूंछ की खातिर लोग तलवारें खींच लेते हैं। बेरहमी से अपनों का ही कत्ल कर देते हैं। समाज तेजी के साथ बदल रहा है। युवाओं के अंदर पुरानी मूल्य-मान्यताओं के खिलाफ विद्रोह के अंकुरण फूटना शुरू हो गये हैं। वर्षों से दबा हरित प्रदेश मोहब्बत का जंगल बनकर उभर रहा है जिसमें लाशों की गुत्थियां गढ़ी जा रही हैं। प्रेमी-प्रेमिकाओं ेको सरेआम गोलियों से उड़ा दिया जाता है। कहीं-कहीं तो पत्थर से मार-मार कर बेरहमी से हत्या कर दिया जाता है। इसके बावजूद प्रेमी युगल प्यार करने से पिछे नहीं हट रहे हैं। जितनी तेजी के साथ इसे दबाने का प्रयास किया जा रहा है, उतनी ही तेजी से प्यार करने की परंपरा भी बढ रही है। यह अलग सवाल है कि कुछ प्रेमी युगल कठिन संघर्षों की राह के डर से अत्महत्या कर ले रहे हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि उनके अंदर वद्रोह के अंकुर मरे नहीं हैं बल्कि तेजी के साथ अंकुरित हो रहे हैं। इन हत्याओं का हिस्सा पुलिस भी बन रही है और वर्कआउट के चक्कर में लाशों से खिलवाड़ जारी है। दिखती नहीं प्रशासन की पहल-इस तरह के कशों का पुलिस इतिश्री करने में भी काफी उतावली रहती है। इसी तरह का एक घटना मुजफ्फरनगर स्थित नई मंडी कोतवाली क्षेत्र के मोहल्ला शांति नगर में गत 6 मई को पुलिस ने एक युवक का शव बरामद किया था। इसकी शिनाख्त कूकड़ा गांव निवासी अजीत सैनी पुत्र ओमवीर सैनी के रूप में पुलिस भी हुई थी। मृतक के परिजनों ने उसके 30 अप्रैल से गायब की भी पुष्टि की थी। हत्या के आरोप में अजीत की प्रेमिका अंशु के पिता नरेंद्र तोमर और भाई अनुज को पुलिस ने उठा लिया था। आज के वैज्ञानिक युग में पुलिस के पास तर्क था कि अंशु के परिजन नई मंडी में रहते हैं, जहां अजीत की लाश मिली। इससे पहले बुढ़ाना क्षेत्र में एक युवती की लाश मिली थी तो पुलिस ने उसे अंशु की मान लिया। 9 मई को पुलिस जब आनर किलिंग के मामले में अंशु के भाई और पिता को जेल भेज रही थी कि उसी समय प्रेमी युगल अजीत और अंशु थाने पहुंच गये। इस पर सवाल उठना लाजमी था कि पूर्व में अजीत और अंशु की बताई गई लाशें फिर किसकी थीं? मुजफ्फरनगर पुलिस यह सब देख कर हैरान तो हो गई लेकिन उसकी कार्यशैली का परिणाम एक बार फिर वही ढाक के तीन पात साबित हुये। आज तक इस सवाल का जवाब नहीं ढूंढ पाई है। पड़ोसी राज्यों की पुलिस से संपर्क के अलावा पोस्टर, इश्तिहार के जरिये शिनाख्त की कार्रवाई आज तक चल रही है। ऐसी ही कहानी देश के नवीनतम शहर और इंडस्ट्रियल के रूप में सुमार नोएडा में दोहराई गई। प्रेमी युगल के अंतिम संस्कार के बाद रजनी भी अपने प्रेमी मनवीर के साथ शादी करके वापस आ गयी। चौबीस दिन पहले एक युवती की लाश मेरठ के कुरड़ी गांव में मिली थी। पुलिस और परिजनों ने इसे रजनी की बताकर अंतिम संस्कार कर दिया था। यह युगल 13 अप्रैल को फरार हुआ था। यहां भी वही सवाल कि आखिर रजनी की बताई गई लाश किसकी थी? नोएडा पुलिस अब दावा कर रही है कि वह लाश मोदीनगर के सीकरी गांव की मंजू रानी की थी। पुलिस महकमें का कहना है कि मृतक पूर्व में भट्ठे पर काम करती थी और वहीं काम करने वाले गाजीपुर के राजकुमार उर्फ राजीव मुंशी के साथ दो महीने पहले कही फरार हो गयी थी। दोनों को तलाश कर पंचायत ने शादी का फैसला सुना दिया लेकिन राजीव पंचायत के डर से भाग खड़ा हुआ था। कूड़ी गांव में संदिग्ध हालात में मंजू की मौत हो गई तो उसे बोरी में बंद कर कूड़े के ढेर में फेंक दिया गया था। यह दाश्तां यहीं खत्म नहीं होती बल्कि ऐसी ही कहानी पिछले साल मुरादाबाद जिले के कुढ़ फतेहगढ़ थाना क्षेत्र के अंतर्गत बिचौला डूकी गांव में पुलिस द्वारा तैयार की गयी। 9 मई 2009 को घर से लापता गुलाम हुसैन की बेटी अंजुम की तलाश पुलिस ने झील में तैरती हुयी एक लाश को अंजुम की बताकर केस का इतिश्री कर दी। केस खत्म होने कुछ ही दिन बाद 10 मई को धनारी में अंजुम जिंदा मिली और उसके प्रेमी जाहिद को गिरफ्तार कर लिया गया। सभी मामलों में एक ही बात सामने आई कि पुलिस ने जबरन शिनाख्त कराई। पुलिस ने कानून को अपने हिसाब से उपयोग किया। लेकिन अभी तक उच्च स्तर पर इन मामलों की समीक्षा और कार्रवाई की बातें सिर्फ अफसरों के बयानों तक सीमित हैं। अब देखना यह है कि इन केसों के मामलों में उच्च पदों पर आसीन उच्चाधिकारी क्या निर्णय सुनाते हैं?एडीजी कानून व्यवस्था ब्रजलाल का मानना है कि आजकल हत्याओं में विरोधियों को फंसाने का खेल चल रहा है। विशेष रूप से अज्ञात लाशें इसके लिए सहायक बनती जा रही हैं। उन्होंने आदेश दिया है कि अब हर अज्ञात लाश का अनिवार्य रूप से डीएनए कराया जाए। वे कहते हैं कि जब परिवार के लोग ही लाशों की शिनाख्त कर रहे हैं तो पुलिस क्या कर सकती है? किसी लाश की शिनाख्त के लिए परिवार पर दबाव के दावे की कोई वजह नहीं बनती। पुलिस अगर ऐसे हालात में शिनाख्त के वास्ते सबूत मांगेगी तो संवेदनहीन कहलाएगी। ऐसे मामलों में लापरवाही और धोखाधड़ी करने वालों के खिलाफ कार्रवाई का आदेश दिया गया है। सबके लिए है कानूनवरिष्ठ अधिवक्ता एवं मेरठ बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष अनिल बख्शी का कहना है कि वैसे तो कानून सबके लिए है, लेकिन कुछ लोग इसका दुरपयोग कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि ऐसे मामलों में पुलिस के खिलाफ मुकद्मा दर्ज कराया जा सकता है। पुलिस एक कत्ल केस को खत्म कर देती है। जिनकी लाश भी शिनख्त कर ली गयी लकिन बाद में वे जिंदा लौट आते हैं। ऐसे समय मरने वाले का केस बंद कर दिया जाता है। शिनाख्त की स्थिति में पुलिस इससे बच जाती है। मगर आईपीसी की धारा 212 में कोई भी व्यक्ति पुलिस के खिलाफ अपराधी और अपराध को छिपाने में मदद करने का मुकद्मा दर्ज करा सकता है जिसमें 7 साल की सजा का प्रावधान है। उन्होंने बताया कि आज तक इस धारा के तहत दर्ज किसी भी मुकद्में में देश भर में कोई कार्रवाई नहीं हुई। क्योंकि पुलिस के खिलाफ लोग पैरवी नहीं कर पाते हैं। इस लिए धरे-धीरे केस को बंद कर दिया जाता है। इसके परिणाम स्वरूप इस तरह की घटनाओं पर रोक लगने बजाय बढ़ावा देने में मदद मिलती है।