Monday, August 30, 2010

इंसान बने हैवान

माया
हमारे समाज में जातिगत अपमान और उत्पीडऩ जैसे कई कुकर्म किए जाते हैं। देश आजाद होने के बाद दलितों को आज भी सामंती सोच रखने वालों के अधीन रहना पड़ता है। यदि कोई यह समझता है कि अछूत एक जमाने पहले की बात है तो यह गलत है। आज भी हरियाणा के हिसार जिले के मिर्चपुर गांव में ऐसा ही होता है। जहां पर वाल्मीकि समुदाय के घर के साथ-साथ उसमें रहने वाले लोगों को भी जला दिया जाता है। जिन लोगों ने अपना गुजारा करने के लिए उन घरों को अपना खून पसीना एक करके बनाते हैं, उसे उन्हीं के सामने जला कर राख कर दिया जाता है। उनकी जिंदगी भर की मेहनत को चंद समय में ही मिट्टी में मिला दिया जाता है।
यह लोग परम्परावादी पेशे को छोड़कर अपनी मेहनत से गुजारा कर रहे थे और अपने बच्चों को स्कूल भेजने का सपना अपनी आंखों में संजोये हुए थे। मेहनत मजदूरी करने के लिए अपने घरों में पशुओं, पाक्षियों को पालने लगे थे। इनके रहन-सहन को देखकर जाट समुदाय के लोगा सहन कर पाने में असमर्थ थे। उन्हें लग रहा था कि उनके कदम डगमगा रहे हैं। इसलिए उनके लिए इसे सहन करना असंभव था। जब उन्होंने आने-जाने वाले रास्ते में एक वाल्मीकि कर्ण सिंह के बेटे दिलबाग को एक कुत्ते को बड़े प्यार से नहलाते हुए देखा तो रास्ते से जा रहे जाट समुदाय के कुछ लोगों ने कहा कि हर रोज सुबह शाम इसी गली से गुजरना पड़ता है। जोकि नशे में धुत्त थे और ऐसा कहते हुए उन्होंने कुत्ते को लात मारी। इस बात से दिलबाग और उसके पिता ने उनका विरोध किया। इस बहस को सुनकर वहां पर और लोग भी आ गए। जाटों ने कहा कि तुम्हें भी इसी तरह मार देंगे जिस तरह कुत्ते को मैंने मारा है। इस बात से उन्हें गुस्सा आ गया और नौबत हाथापाई तक पहुंच गई। तभी कुछ लोगों ने झगड़े को सुलझाया। उसके बाद वाल्मीकि समुदाय के लोगों ने आपस में बातचीत की। बातचीत के दौरान पता चला कि उन जाटों के समूह में गांव का जमाई भी था, जिससे गलती से झगड़ा हो गया। गांव में आज भी यह परंपरा मानी जाती है कि किसी भी जात-बिरादरी का जमाई पूरे गांव का जमाई होता है। वीरभान ने गांव को शांति बनाए रखने के लिए कहा कि हमें उन लोगों से माफी मांग लेनी चाहिए। विचार-विमर्श करने के तुरंत बाद कर्ण और बीरभान दोनों ही माफी मांगने के लिए उनके घर चल पड़े। लेकिन जाटों के घर पहुंचने से पहले ही उन दोनों के ऊपर लाठियों से वार किया गया, जिससे दोनों को काफी चोटें आई थीं और उन्हें अस्पताल ले जाया गया। डाक्टर ने उन्हें छ: टांके लगाए। अस्पताल में उनका इलाज चल ही रहा था कि उन्हें फोन पर सूचना मिली कि जाट समुदाय के लोग अभी भी झगड़ा करने को तैयार हैं। सूचना मिलते ही वीरभान और कर्ण दोनों सीधे पुलिस चौकी पहुंच कर चौकी इचार्ज विनोद काजल को घटना की जानकारी दी। उसने कहा कि क्यूं थारे घर जला दिये जो इस तरह बात कर रहे हो। चौकी इचार्ज ने छूटते ही कहा। उसके बाद उन्होंने पुलिस दस्ते को लेकर गांव में आ धमके। जब गांव में कोई नहीं दिखा तो पुलिस वालों ने वीरभान को खूब धमकाते हुए कहा कि तुमने तो कहा था कि जाट समुदाय वाल्मीकियों पर हमला करने वाले हैं। लेकिन यहां तो कुछ भी नहीं हो रहा है।
21 अप्रैल 2010 को विनोद काजल वाल्मीकि बस्ती में वीरभान और कर्ण से मिलकर कहा कि इस मामले को पंचायत ही सुलझाएगी। वाल्मीकि समुदाय ने पंचायत में जाने को तैयार हो गये, क्योंकि वह सब शांति चाहते थे। वाल्मीकि बस्ती के सारे पुरुष पंचायत में पहुंच गये। घर में केवल महिलाएं और बच्चे ही रह गये थे। जाट समुदाय पहले से ही तैयारी में थे कि कब यह लोग बाहर जाएं और वे घटना को अंजाम दें। पंचायत में अभी लोग पहुंचे ही थे कि उधर वाल्मीकि बस्ती में जाट समुदाय ने आग लगा दी। कुछ घरों का सामान भी लूट लिया।

चंद्रभान की पत्नी फूलकली ने बताया कि हमारे घर में अगले महीने लड़की की शादी थी। घर में दहेज का सामान भी रखा हुआ था। सारा सामान लूट लिया। मेरी बहू के सामने अपने कपड़े उतार कर खड़े हो गये। मैंने उसे चौबारे में ऊपर भेज दिया और उन्होंने फिर भी उसका पीछा किया। वह एक कमरे में घुस कर अंदर से दरवाजा बंद कर ली, लेकिन जाटों के लड़कों ने उस कमरे में जलती हुई लकड़ी खिड़की से अंदर फेंक दी। कमरे में रखा सामान धू-धू कर जलने लगा। बहू किसी तरह जान बचाकर बाहर भागी। गांव के कई लोगों ने पुलिस के पास गये और उनसे काफी मिन्नतें कीं, लेकिन पुलिस वालों ने हमारी कोई भी मदद नहीं की। उस जलती हुई आग को देखकर छोटे-छोटे बच्चे कांप रहे थे। फिर भी पुलिस वालों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। खून-पसीने एक करके बनाए गये घर को हमारी आंखों के सामने जाटों ने जला कर राख कर दिया। उन लोगों ने हैवानियत का सीमा पार करते हुए एक लड़की को जिंदा जला दिया और हम लोग देखते रहे।

सुमन जिसकी उम्र लगभग 18-19 साल की थी, जो बारहवीं पास थी। वह घर के अंदर पहिए वाली कुर्सी में बैठ कर किताब पढ़ रही थी। उसके घर के चारों तरफ लोगों ने आग लगा दी और बाहर से गेट की कुंडी चढ़ा दी, जिससे वह बाहर न निकल सके। सुमन को घर में आग लगाकर सबों ने मार डाला। सुमन के पिता तारा सिंह की उम्र 55 साल थी। उन्होंने अपनी बेटी को बचाने का प्रयास किया जिसमें वह भी जल गया। बेटी को नहीं बचा सका। वह उसकी चीख को सुनता रहा और खुद को आग में जलाता रहा। जिन लोगों ने इस घटना को अंजाम दिया उनको तो लोगों की चीखें सुनकर मजा आ रहा था, लेकिन जिनकी आंखों के सामने अपनी बेटी, बहू और बच्चे जल रहे थे, उन पर क्या बीत रही होगी इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यह घटना मात्र एक मिर्चपुर की ही नहीं है, बल्कि कमोबेस पूरे देश में ऐसी घटनाएं लगातार हो रही हैं। प्रसाशन पर इसका कोई फर्क नहीं पडऩे वाला है। उसे मात्र चंद पैसों का मुआवजा देकर अपना पल्ला झाड़ लेना है। गरीबों की उन्हें क्या परवाह वह तो उनकी नजरों में कीड़-मकोड़े हैं।
अब सवाल यह उठता है कि क्या हम ऐसे ही इन घटनाओं को देखते रहेंगे? आखिर हम कबतक अपने लोगों से ही लड़ते रहेंगे? जबकि इन सबका असली दुश्मन कोई और है, जिसके बारे में हम सबकुछ जानते हुए भी चुप्पी साधे बैठे हैं।

Wednesday, August 25, 2010

सावन के महीने में छोड़ देते हैं गांव

अंध विश्वाश के साए में जीते लोग
सिद्धार्थनगर। गौतम बुद्ध की पावन धरती पर रहने वाले लोग आज भी अंधविश्वाश के साये में में जी रहे हैं। पहले इसे नौगढ़ तहसील के नाम से जाना जाता था, जो वर्षों पहले बस्ती जनपद के अंतर्गत आता था। बाद में पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीर बहादुर सिंह के कार्यकाल में इसे सिद्धार्थ नगर के नाम से जनपद का दर्जा मिला। सिद्धार्थ नगर नाम भी इसे गौतमबुद्ध की राजधानी कपिल बस्तु तथा उससे कुछ ही दूरी पर नेपाल में स्थित गौतमबुद्ध की जन्मस्थली लुम्बनी के नाम पर पड़ा। यह जनपद पहले से ही काफी पिछड़ा हुआ माना जाता है, लेकिन जिला होने के बाद इसका विकास तो हुआ पर उसकी रफ्तार कछुआ चाल के बराबर थी। इस जिले के पिछड़े क्षेत्र के कुछ ऐसे ही गांवों की एक घटना का जिक्र करने जा रहे हैं।
सिद्धर्थनगर जिले के पांच गांव ऐसे हैं जो वर्ष के एक दिन पूरे के पूरे खाली हो जाते हैं। ऐसा नहीं कि जिले को ही छोड़ कर लोग बाहर चले जाते हैं, बल्कि गांव के बाहर पूजा-पाठ करते हैं। पूरे दिन बाहर ही पूजा पाठ करते हैं। शाम को भोजन करने के बाद पुन: घर लौटते हैं। इन लोगों का मानना है कि गांव के बाहर पूजा-पाठ करने से पूरा गांव बीमारी और प्राकृतिक आपदा से बचा रहेगा। यह और बात है कि गांव छोडऩे की इस कवायद से कोई लाभ नहीं होता है, जबकि देखने में आता है कि बीमारी और आपदा कमोबेस इन गांवों में ज्यादा ही आती हैं।
यह गांव इटवा तहसील क्षेत्र के खुखुड़ी, महादेव घुरहू, भावपुर पांडेय, सेहरी और धनधरा हैं। यहां यह परम्परा दशकों पुरानी है। हर साल इन गांवों के युवक, बूढ़े, बच्चे, महिलाएं सावन माह में शुक्ल पक्ष द्वितीया, मघा नक्षत्र को सूर्योदय होने से पहले ही गांव छोड़कर बाहर चले जाते हैं। पूरे गांव के लोग गांवों से कुछ दूरी पर स्थित भगहर पर इक_ा होकर देवी काली की पूजा-पाठ करते हैं। गांववासियों के दिन का भोजन भगहर पर ही होता है। सूर्यास्त के बाद लोगों का हुजूम एक बड़ी तादाद में घरों की तरफ रवाना होता है। इस वर्ष 11 अगस्त को भी गांव खुखुड़ी के ग्रामीणों ने गांव छोड़कर भगहर में पूजा-पाठ किया।

आखिर ऐसा क्यों करते है ग्रामीण?
खुखुड़ी के प्रधान मतई का कहना है कि गांव को हैजा, जमोगा, चेचक जैसी महामारियों से बचाने के लिये एक महात्मा ने ऐसा करने का उपाय बताया था। उसके बाद लोगों ने बाबा के बताये अनुसार भगहर पर इक_ा हो कर पूजा-पाठ करना शुरू कर दिया। धीरे-धीर यह एक परम्परा बन गयी। जब उनसे पूछा गया कि क्या पूजा पाठ करने से बीमारियां नहीं होती हैं। उनका कहना था कि अभी भी बीमारियां होती हैं। लेकिन क्या करें पुरानी परंपराओं को तो निभाना ही है।

सइयां भये कोतवाल तो काहे का डर...

राशन डीलर की मनमानी
जयप्रकाश मिश्रा, बहराइच
बहराइच। पुर्वांचल का यह कहावत सइयां भए कोतवाल तो काहे का डर... को लोग चरितार्थ करने पर लगे हुए हैं। पूरे प्रशासनिक ढांचे की यही हालत है। इसकी मिसाल पूर्वी उत्तर प्रदेश स्थित बहराइच जिले के जतौरा गांव में देखने को मिली है। वहां पर भाभी के प्रधान होने के कारण उनके देवर ने मनचाहे ढंग से राशन की कालाबाजरी करने में मशगूल है। उसे किसी भी प्रसाशनिक अधिकारी का खौफ नहीं है।
एक तरफ तो प्रदेश सरकार गरीबों के लिए अनेक योजनाएं जैसे मा. कांशीराम योजना को संचालित कर रही है, वहीं सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जुड़े लोग भी गरीबों का जमकर शोषण कर रहे हैं। यह बात किसी एक जगह की नहीं है, बल्कि कमोबेस पूरे प्रदेश में यही हालात हैं। प्रदेश का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं होगा जहां पर तहसील से लेकर ग्राम प्रधान और राशन डीलर तक गरीबों को मिलने वाले आर्थिक सहयोग का बंदरबांट न होता हो। राशन डीलरों का आलम यह है कि वे ग्राम प्रधान को तो हिस्सा देते ही हैं साथ में तहसील, ब्लाक और जिले पर बैठने वाले संबंधित अधिकारियों से भी मिलीभगत करके गरीबों को मिलने वाले चीनी, केरोसिन और बीपीएल कार्डों पर मिलने वाले राशन को संबंधित लोगों को वितरित न करके खुद हड़प जाते हैं। इस संबंध में 'उकाब दि बर्डÓ की टीम ने बहराइच में जब लोगों की समस्याओं के बारे में जानकारी ली तो राशन के कालाबाजारी का मामला सामने आया।
जनपद के कैसरगंज तहसील क्षेत्र में आने वाला गांव जतौरा पिछले कुछ समय से राशन की कालाबाजारी को लेकर चर्चा में बना रहा। इस गांव का कोटा गांव की महिला प्रधान आशा देवी के देवर परमजीत के पास है। गांव प्रधान के अपने रुतबे और प्रशासनिक अफसरों से गहरी पैठ के चलते राशन डीलर अपनी मनमानी कर रहा है। चौंकाने वाली बात यह है कि गांव के लोगों ने कुछ दिनों पहले राशन की कालाबाजारी करते राशन डीलर को रंगे हाथों पकड़ चुके हैं और ले जा रहे गेहूं के खेप को पुलिस के हवाले भी कर चुके हैं। गांव वालों का कहना है कि इसके बावजूद अभी तक राशन डीलर के ऊपर कोई भी कार्रवाई नहीं हुई। लोगों का कहना है कि इसके बाद से हम लोगों ने विरोध करना ही छोड़ दिया। जब पूरा प्रशासन इसी भ्रष्टाचार में लिप्त है तो शिकायत करने से कोई फायदा नहीं। उन्होंने कई बार इसकी शिकायत लिखित रूप से एसडीएम से भी करते रहे हैं, लेकिन कार्रवाई के नाम पर वही ढाक के तीन पात। विगत 9 मार्च 2010 को जतौरा के रहने वाले बंसल लाल, जयप्रकाश मिश्रा, सीतेश चन्द तिवारी, जनार्दन प्रसाद, पारस नाथ, मिथलेश वर्मा, नन्द किशोर सिंह, रक्षाराम, विजय प्रताप, उदयराज सिंह, रामकुमार शुक्ला, ज्ञान प्रताप, सिपाही लाल, ओमप्रकाश, रामतेज मिश्रा, अमीरकालाल पाल, बृजेश कुमार, बंसत लाल, कैलास नाथ, माताप्रसाद तिवारी, भानु प्रताप, सुनील कुमार, सुरेश कुमार, पिन्टू मिश्रा, हाफिज अली, अय्यूब मोहम्मद, शब्बीर, प्रभुदयाल मिश्रा, दिनेश वर्मा, अवधेश, मनोज कुमार वर्मा आदि ने राशन डीलर पर मिट्टी का तेल न बांटने सहित कई आरोप लगाये थे। कुछेक को छोड़कर लगभग पूरा गांव इस डीलर से खफा है।
जतौरा गांव निवासी जय प्रकाश मिश्रा का कहना है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत जोभी खाद्य सामग्री आती है उसे गरीबों को वितरण करने के बजाय ब्लैक में बेच दिया जाता है। यह गोरखधंधा पिछले काफी समय से चल रहा है। उन्होंने कहा कि कोटेदार के इस गलत कार्यशैली में छोटे-मोटे अधिकारियों का मिलीभगत भी है। उन्होंने शिकायत प्रत्र की एक प्रतिलिपि कैसर तहसील में कार्यरत एसडीएम को भी रिसीब करवाया है।
यही नहीं बल्कि कोटेदार ने गांव के कुछ लोगों का राशन कार्ड भी अपने पास रखता है और हर माह अपने आप ही कार्ड पर एंट्री भी कर देता है। गांव वालों का कहना है कि जब राशन लेने पहुंचते हैं तो उन्हें भगा दिया जाता है। अब गांव के लोग इस कोटेदार से आजिज आ चुके हैं। प्रशासनिक अधिकारियों में डीलर की पकड़ इतनी मजबूत है कि गांव वाले अब खुलकर शिकायत करने से बच रहे हैं।

क्या कहते हैं एसडीएम?
इस संबंध में जब कैसरगंज तहसील के एसडीएम दिलीप कुमार से फोन पर बात की तो उनका कहना है कि 'मुझे आये अभी कुछ ही दिन हुए हैं, इसलिए इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। यदि यह मामला मेरे संज्ञान में आया तो हम इस पर उचित कार्रवाई करेंगे। पूर्व में क्या हुआ और क्या नहीं हुआ, इस संबंध में हम कुछ नहीं कह सकते हैं।Ó इसके बाद वे अपने काम में बिजी हो गये और लाइन काट दिया।

Wednesday, August 18, 2010

एक हजार लोग हो सकते हैं स्वाइन फ्लू के शिकार


मान सिंह चौहान
स्वाइन फ्लू ने शहर में दस्तक दे दी है। सेक्टर 41 निवासी अस्पताल कर्मी युवती तो ठीक हो गई है लेकिन स्वास्थ्य विभाग की परेशानी साफ झलकने लगी है। विभाग ने स्वाइन फ्लू से निपटने के लिए प्रदेश सरकार से संसाधनों की मांग की है। एक हजार लोगों का उपचार करने लायक दवाएं, वैक्सीन और उपकरण मांगे गये हैं क्योंकि डाक्टरों का मानना है कि खराब मौसम के कारण पिछले साल के मुकाबले इस साल मरीजों की संख्या बढ़ सकती है।
गत वर्ष एक के बाद एक करके 309 मरीज शहर के तमाम अस्पतालों में स्वाइन फ्लू से पीडि़त पाए गए थे। फोर्टिस अस्पताल में भरती एक मरीज की मौत भी हो गई थी। विशेषज्ञ चिकित्सकों का मानना है कि स्वाइन फ्लू का वायरस भारतीय मौसम में अनुकूलित हो चुका है। दूसरी बीमारियों के वायरस के संपर्क में आकर इसमें बदलाव भी आए होंगे। अपोलो अस्पताल के डा. डी शर्मा का कहना है कि इस संबंध में देश भर में शोध चल रहे हैं। इस बार बारिश समय से पहले हुई है और लगातार भी नहीं हो रही है। बारिश के बाद मौसम साफ हो जाता है, जिससे तापमान और उमस बढ़ती है। ऐसा मौसम वायरल और बैक्टीरियल विकास के लिए मुफीद होता है। स्वाभाविक है कि स्वाइन फ्लू लोगों को परेशान करेगा। स्वास्थ्य विभाग में एंटी स्वाइन फ्लू सेल के प्रभारी डा. अनिल कुमार का कहना है कि पिछले साल के मुकाबले इस साल रोगियों की संख्या बढ़ सकती है। जिसे ध्यान में रखकर एक हजार रोगियों का उपचार करने लायक इंतजाम किए जा रहे हैं। सरकार से 10,000 ओसिल टैमीविर कैप्सूल, 1,000 टैमी सिरप फ्लू, 1,000 वीटीएन, 1,000 थ्रोट स्वैप, 5,000 टू लेयर फेस मास्क, 1,000 एन-95 मास्क, 1,000 हैंड सेमी टाइवर मांगे गए हैं। पत्र शासन को भेजा गया है। दवाएं और उपकरण जल्दी मिलने की उम्मीद है।
गौरतलब है कि निजी अस्पतालों में स्वाइन फ्लू का उपचार नहीं है। जिला अस्पताल के बाद दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में उपचार संभव है। पिछले साल शहर के कालेजों, विश्वविद्यालयों और कंपनियों में बड़ी संख्या में स्वाइन फ्लू के रोगियों की पहचान की गई थी। जिला अस्पताल में ही 309 बीमारों का उपचार किया गया था।
जिला अस्पताल में डेंगू से पीडि़त तीन और मरीज भर्ती हुए हैं। तीनों को डेंगू की पुष्टिï होने के बाद अस्पताल प्रशासन ने उपचार शुरू कर दिया है। पीडि़त युवकों में एक की उम्र 25 वर्ष और दूसरे की 15 वर्ष है। तीसरा रोगी 42 वर्ष का है। मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डॉ. मीना मिश्रा ने बताया कि फिलहाल तीनों खतरे से बाहर हैं।
वहीं नोएडा क्षेत्र में एक 17 वर्षीय युवती में स्वाइन फ्लू की पुष्टि की गई है। पीडि़त को जिला अस्पताल से टेमी फ्लू दवा दी गई है। सेक्टर-41 में रहने वाली युवती का इलाज मैक्स अस्पताल में चल रहा था। स्वाइन फ्लू की पुष्टि के बाद वह जिला अस्पताल जांच कराने आई। रिपोर्ट के आधार पर इसे टेमी फ्लू दे दी गई है। साथ ही सावधानी बरतने की सलाह दी गई है। जिला अस्पताल की मुख्य चिकित्सा अधीक्षक राजरानी कंसल ने बताया कि निजी अस्पताल की पुष्टि पर युवती को दवाएं दी गई हैं। जिला अस्पताल में इससे पहले भी बीमारी के संदिग्ध मरीज आ चुके हैं। वर्ष 2009 के नवंबर व दिसंबर माह में जिले में स्वाइन फ्लू के लगभग 300 मामले सामने आए थे। बीमारी से चार लोगों की मौत भी हुई थी। जिला अस्पताल में स्वाइन फ्लू के टीके व जांच की सुविधा उपलब्ध है। हालांकि अभी चिकित्सीय कर्मचारियों के लिए ये टीके उपलब्ध कराए गए हैं।

ncr@ekkadamaage.com

प्रदेश में शिक्षा का गिरता स्तर

जय प्रताप सिंह
ज्य में प्राथमिक शिक्षा का स्तर दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है। इस समय प्रदेश में 13113 स्कूल ऐसे हैं, जहां पर मात्र एक शिक्षक के दम पर स्कूल चल रहे हैं। जिस दिन वह शिक्षक अवकाश पर हो या किसी अन्य सरकारी काम से बाहर गया हो तो उस समय बच्चों की छुट्टी रहती है। जहां पर एक-दो अध्यापक हैं, उन्हें भी जनगणना या अन्य सरकारी कामों का बोझ इस कदर लाद दिया जाता है कि वे मोटी-मोटी फाइलों को पूरा करने में ही महीनों गुजार देते हैं। इन कामों से वे इतना थक जाते हैं कि बच्चों को पढ़ाना उनके लिए मात्र खानापूॢत होती है। हकीकत यह है कि यातायात के साधन और अन्य सुविधाएं न होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर अध्यापक जाना नहीं चाहते।
इसी तरह आर्थिक दृष्टि से संपन्न पश्चिमी जिलों के सरकारी स्कूलों में छात्र और शिक्षक ज्यादा हैं, जबकि पूरब के गरीब जिलों में छात्र ज्यादा और शिक्षक कम हैं। आबादी के हिसाब से उत्तर प्रदेश में 6 से 14 साल की उम्र के बच्चों की संख्या लगभग पौने छह करोड़ है। प्रदेश में इस समय 3 करोड़, 62 लाख 63 हजार बच्चे स्कूलों में पढ़ रहे हैं, लेकिन लाखों बच्चों का स्कूलों से दूर-दूर का रिश्ता नहीं है। सरकार की नीतियों को मानें तो प्राइवेट स्कूलों में 25 फीसदी सीटें आस-पड़ोस के गरीब बच्चों के लिए आरक्षित चाहिए।
इस स्थिति में राज्य में इस समय कम से कम 10 लाख शिक्षकों की जरूरत है। वर्तमान में शिक्षकों के कुल स्वीकृत पद 4 लाख 6 हजार 607 हैं। इनमें से लगभग एक तिहाई यानी एक लाख 53 हजार 623 पद खाली हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए एक लाख 86 हजार शिक्षामित्र भर्ती किए गये हैं। नए कानून में केवल प्रशिक्षित शिक्षक को ही मान्यता दी गई है जबकि उत्तर प्रदेश में कई बरसों से बीटीसी की ट्रेनिंग ही बंद थी। इस समय ट्रेनिंग तो शुरू हुई है लेकिन एक साल में लगभग सात हजार बीटीसी शिक्षक ट्रेंड करने की क्षमता है। वहीं दूसरी ओर गौर करें तो हर साल लगभग 10 हजार टीचर रिटायर हो रहे हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो बड़े पैमाने पर शिक्षकों की ट्रेनिंग और तैनाती की आवश्यकता है। ट्रेनिंग में एक बात पर ध्यान देना जरूरी है कि अध्यापक बच्चों को मारपीट और धमकाए बगैर पढऩे के लिए प्रेरित करें। इसके अलावा स्कूलों का वातावरण सही बनाने के लिए पर्याप्त रोशनी और हवादार कमरे की व्यवस्था, पेयजल, शौचालय, पुस्तकालय, पढ़ाई में उपयोग सामग्री और खेल का मैदान की उचित व्यवस्था हो। इस मामले में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर पूरे राज्य में प्राइमरी स्कूलों में बड़े पैमाने पर काम करने की जरूरत है।
अधिकारियों की माने तो अब राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में प्राइमरी स्कूलों की कमी नहीं रह गई है। एक किलोमीटर की परिधि में प्राइमरी और दो किलोमीटर की परिधि में अपर प्राइमरी स्कूल खुल गए हैं। इन स्कूलों की संख्या बढ़कर एक 1 लाख 95 हजार 940 हो गई है। लेकिन शहरी क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों और शिक्षकों की बहुत कमी है। शहरी क्षेत्रों में लगभग 30 फीसदी आबादी मलिन बस्तियों में रहती है, जहां पर स्कूल ही नहीं हैं। जो हैं भी वे जीर्ण-शीर्ण भवनों में चल रहे हैं।
इस समय अकेले राजधानी में 225 प्राइमरी और 54 मिडिल स्कूल हैं। नगर क्षेत्र में 30 वार्ड ऐसे हैं जहां पर मकान न होने के कारण स्कूल नहीं हैं। 21 स्कूल शहर के सामुदायिक केंद्रों में चल रहे है। यह समस्या मुरादाबाद, आगरा, फिरोजाबाद बरेली और पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अन्य शहरों में मौजूद है। वर्ष 1998 के बाद से शहरी क्षेत्रों में अध्यापकों की नियुक्ति ही नहीं हुई है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल पूरे राज्य में तीन लाख छोटे बच्चे स्कूल से बाहर थे। एक स्कूल की प्रिंसिपल ने बताया कि जब तक अभिभावक जागरूक नहीं होंगे तब तक समस्या का समाधान नहीं हो सकता। उनका कहना है कि छात्रवृत्ति के लालच में लड़कियों के दाखिले बढ़े हैं। राज्यों को तीन साल का समय स्कूलों के लिए सक्षम प्रबंधकीय ढांचा खड़ा करने के लिए दिया गया है।
सच्चाई यह है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा का गुणवत्ता ने होने से संपन्न लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढाते हैं। गरीब ही अपने बच्चे को सरकारी स्कूलों में भेजते हैं। इसका मतलब है कि इन स्कूलों में ज्यादातर बच्चे दलित और मुस्लिम समुदायों के हैं। हमे यह देखना होगा कि कहीं यह कानून समाज में एक समान शिक्षा के बजाय दोहरी व्यवस्था को मान्यता न प्रदान कर दे।

jaipratapsingh80@gmail.com

Monday, August 16, 2010

बेचारे गरीब सांसद

चौंकिये नहीं! यह एक सच्चाई है। आज हमारे देश के सांसद कितने गरीब हैं इसका अनुमान आप इस बात से लगा सकते हैं कि दिन रात जनता के दुख दर्द में शामिल होने के बावजूद इनकी सेलरी मात्र 16,000 रुपये ही है। यह अलग बात है कि वह जनता के बीच जाते हैं या नहीं? वे आम जनता के प्रतिनिधि हैं या किसी और के भला एक सांसद का खर्चा सोलह हजार रुपये में कैसे चलेगा। इनके करोड़ों के फ्लैट और दो चार महंगी गाडिय़ां, ड्राइवर का वेतन, नौकर-चाकर आदि का खर्चा, क्या 16 हजार रुपये में पूरा हो सकता है। यह तो रहा सामान्य खर्चा, बाकी फाइवस्टार होटलों का खर्चा आखिर कहां से आयेगा? कमीशन और अन्य बैक फुट से हुई कमाई करोड़ों अरबों में होती है। लेकिन फिर भी वेतन तो वेतन होता है।  हमारे सांसदों का जो दर्द है वह यह है कि एक सेक्रेटरी का वेतन 80 हजार रुपये है और सांसद का मात्र सोलह। आखिर सेक्रेटरी का काम ही क्या होता है। वह दिन रात किताबें ही तो पढ़ कर आया है। और बैठे-बैठे लेखा-जोखा करता है। कुल मिला कर थोड़ा बहुत देश के हित में काम कर जाता है। जबकि हमारे सांसद तो करोड़ों रुपये दारू मुर्गा पर खर्च करके चुनाव जीतते हैं और बिना पूंजी लगाये लाभ वाले बिजनेस में शामिल हो जाते हैं। फिर भी जनता के ही प्रतिनिधि ही माने जाते हैं। आखिर उनका भी तो कोई सपना होता है। इतना ही नहीं बल्कि कितनों की हत्याएं भी करनी पड़ती हैं। आखिर इस पाप के प्रायश्चित के लिए भी तो पैसों की जरूरत होती है। वैसे तो पचास हजार रुपये महीना होने का प्रस्ताव है, लेकिन उतने में भी इन बेचारों का पेट भरने वाला नहीं है। अब इन्हें पांच गुना और चाहिए। 
सेलरी के अलावा सांसदों को संसद सत्र के दौरान या हाऊस की कमेटियों की मीटिंग के दौरान हर रोज के हिसाब से 1000 रुपये का भत्ता भी पाते हैं। सांसद इसे दोगुना करने की मांग कर रहे हैं। इसके अलावा संसदीय क्षेत्र का मंथली अलाउंस भी 20 हजार से बढ़ाकर 40 हजार करने की मांग कर रहे हैं। ऑफिस अलाउंस के तौर पर भी सांसदों को 20 हजार रुपये मिल रहे हैं। इसे भी बढ़ाने का प्रस्ताव है। अन्य सुविधाओं के तहत सांसद अपनी पत्नी या किसी दूसरे रिश्तेदार के साथ साल में 34 हवाई यात्रा कर सकते हैं। उन्हें किसी भी ट्रेन में किसी भी समय एसी फस्र्ट क्लास में पत्नी समेत यात्रा करने का पास भी मिलता है। इसके अलावा उन्हें अपने कार्यकाल के दौरान मुफ्त में आवास सुविधा भी मिलती है। लेकिन इसके अलावे भी तो लोग हैं। जैसे आम लोगों का खून बहाकर चुनाव जिताने में मदद करने वालों, दादा परदादा के रिश्तेदारों और जो स्वर्ग सिधार गये हैं, उनके लिए भी तो सरकार को खर्चा देना चाहिए। क्योंकि ये जा ठहरे जनता के आदमी। वैसे जहां तक मेरा मानना है कि इनका वेतन तो नियमत: बढऩा ही चाहिए, क्योकि महंगाई जो इस कदर बढ़ रही है। रहा सवाल कारखानों में खटने वाले मेहनतकशों को तो उनका तो फर्ज है ही कि वे अपने और अपने बीबी बच्चों के पेट पर पट्टी बांध कर देश को आगे बढ़ाने में मदद करें। उन्हें वेतन मजदूरी बढ़ाने की चिंता करने की जरूरत ही क्या है। उसकी ङ्क्षचता तो सरकार में शामिल लोगों पर छोड़ दें। आखिर भगवान श्री कृष्ण जी ऐसे थोड़ी कह गये थे कि ''काम करो और फल की ङ्क्षचता मत करोÓÓ जो हमें गीता के माध्यम से उपदेश दिया जाता है। इस पर हमें अमल भी करना चाहिए, लेेकिन हम हैं कि बेवजह वेतन बढ़ाओ, वेतन बढ़ाओ की मांग करते रहते हैं और पुलिस की लाठियां भी खाते हैं। छोटी सी बात हमारी समझ में नहीं आती। लेकिन यह सब बातें हमारे सांसदों पर लागू नहीं होतीं। क्योंकि वे बेचारे तो हमारे प्रतिनिधि हैं और हमारा यह फर्ज बनता है कि हम अपना खून पसीना बहाकर उनका ख्याल रखें। इसके लिए अगर हमें भूखे भी रहना पड़े तो गलत नहीं। एक बार हमारे एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री ने कहा था कि देश को आगे बढ़ाने के लिए यदि जनता को अपनी पेट पर पट्टी भी बांधनी पड़े तो उसमें जनता को पीछे नहीं हटना चाहिए। लेकिन यह बात सिर्फ गरीब जनता पर लागू होती है, जनप्रतिनिधि पर नहीं। वैसे यह सरकार कौन है? आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।  
देश को उन्नत शिखर पर पहुंचाया
वाह मेरे प्यारे गरीब सांसद, मै आपके दुख दर्द को समझता हूं। आपने देश के लिए कितना बड़ा काम किया। आज हमारे देश के लोग घंटों में अमेरिका, रूस, चीन, जापान आदि पूरे विश्व में भ्रमण कर रहे हैं। फाइवस्टार होटलों में मुर्गा, कबाब, दारू और तमाम ऐशोआराम की जिंदगी जी रहे हैं। यह दीगर बात है कि लोग गांव से 20 किलोमीटर की दूरी पर बसे शहर में जाने के लिए हजार बार सोचते हैं। क्योंकि वहां जाने के लिए 20 रुपये बस का किराया तक देने के लिए उनके पास नहीं होते। अब आप कहेंगे कि किराया नहीं है, साइकिल तो है। लेकिन साइकिल चलाने के लिए भी तो शरीर में ताकत होनी चाहिए। ताकत आयेगी कहां से? तो आप कहेंगे कि हरी सब्जी खाओ, दूध पियो और ताकतवर फल फू्रड खाओ। जनाब जरा सोचिए! इस महंगाई में फल खाना तो दूर देश की 70 प्रतिशत जनता नमक और मिर्च के साथ भी रोटी नहीं खा सकती। मिर्च भी अब 50 से 60 रुपये किलो है। रहा सवाल आटे का तो वह भी पांच किलो का पैकेट का दाम अब 105 रुपये हो गया है। उसके शरीर में ताकत कहां से आयेगी। वह साइकिल कैसे चला सकता है। यह तो स्वाभाविक ही है कि उनकी सेलरी  बढऩी ही चाहिए।  अब एक नजर डालते हैं देश की स्थिति पर। बेचारे सांसद अपनी सेलरी तो बढ़वाना चाहते हैं, लेकिन फैक्ट्री कारखानों में 14 से 18 सौ रुपये में दिन रात खटने वाले मेहनतकशों के बारे में सोचने का इनके पास फुर्सत ही नहीं है। और सोचें भी क्यों? इन्हें जनता से क्या लेना देना है। वे तो इनकी नजर में बस नाली के कीड़े हैं। जिसे जब चाहो कीटनाशक दवाओं की तरह कानूनी डंडे का छिड़काव करके बाहर कर दें। जनता तो हर पांच साल पर याद आती है। और उसके लिये तो यह पहले से ही सोच रखे हैं कि उनको मनाना बाएं हाथ का खेल है। यदि इस पर भी नहीं मानें तो करोड़ों रुपये का मुर्गा दारू खर्च करके अपराधियों से मनवा ही लिया जायेगा। और इसमें एक हद तक कामयाब भी हो रहे हैं। क्योंकि जनता के पास तो दूसरा कोई चारा भी नहीं है, इनमें से किसी एक को तो चुनना ही है। अब आप ही बतायें कि इनकी सेलरी बढऩी चाहिए या नहीं। यदि नहीं तो क्यों?

Wednesday, August 11, 2010

मोबाइल के बदलते रंग

प्रतिमान उनियाल
कभी आपने सोचा है कि एक छोटी सी चीज जो हमेशा साथ लेकर चलते हैं, जो आपके अभिन्न मित्र से भी ज्यादा करीब है। जिसके लिए आप अपने व्यस्ततम समय मे से भी कुछ समय निकाल कर इतना बात करते हो कि आपका बॉस और पत्नी दोनों ही गुस्सा होते हैं। जिसकी मधुर आवाज से आपका सबेरा होता हो, दिन रात आपके पास हो और जिसका जन्म करीब पचीस साल पहले हुआ हो। उस समय इसका वजन करीब एक किलो और कीमत तकरीबन एक लाख रुपये रही हो। चौंकिए मत, हम आपके मोबाइल फोन की बात कर रहे हैं।
वर्ष 1983 में मोटोरोला ने अपने 15 वर्षों की अथक शोध और 100 मिलियन डॉलर के निवेश के पश्चात दुनिया के सामने पहला मोबाइल फोन 'डायना टी ए सी 8000 एक्सÓ पेश किया। इस 13 इंच लंबे ईंट नुमा मोबाइल की कीमत तीन हजार डॉलर थी।
वैसे मोबाइल फोन के विकास की गाथा 1908 से शुरू होती है जब केंटकी के एक सज्जन नाथन बी स्टबलफील्ड के वायरलैस टेलीफोन को केव रेडियो के नाम पेटेंट कराया (यूएस पेटेंट संख्या 887357)। यूरोप में बॢलन तथा हेमबर्ग के बीच चलने वाली यात्री रेल में 1926 में रेडियो टेलीफोनी शुरू हुई। 1946 में तत्कालीन सोवियत संघ के इंजीनियर जी शापीरो और आई जहारचेंको ने अपनी कार में रेडियो मोबाइल का सफल परीक्षण किया। इस मोबाइल की पहुंच करीब 20 किलोमीटर तक थी। 1957 में सेवियत संघ के इंजीनियर लियोनिडकुप्रियानोविच ने मास्को में पोर्टेवल रेडियो फोन बनाया जिसका नाम रखा गया एलकेवन (यूएसएसआर पेटेंट संख्या 115494, 1-11-1957)। इस फोन का वजन 3 किलो था और रेंज करीब 30 किलोमीटर था। इसकी बैटरी 20 से 30 घंटे चलती थी। पहला सफल सार्वजनिक मोबाइल फोन नेटवर्क फिनलैंड का एआरपी नेटवर्क था जोकि 1971 में शुरू हुआ था।
अब यह ईंटनुमा वस्तु 100 ग्राम वजनी एक ऐसा सुरीला यंत्र बन गया है जो संचार का साधन के अलावा आपके मनोरंजन का साधन भी बन गया है। अब आप मोबाइल से फोटो व वीडियो बना कर यादों में संजो सकते हैं। इंटरनेट के माध्यम से देश विदेश ज्ञान बटोर सकते हैं, गाने व फिल्में देख सकते हैं, दफ्तर का काम ईमेल या चुङ्क्षनदा एपलीकेशन के माध्यम से कर सकते हैं। बहुत जल्द आप पैसों का लेनदेन भी मोबाइल से कर सकेंगे। मतलब यह कि मोबाइल एक ऐसी जरूरत की चीज बन गया है कि आपका काम इसके बनिा एक मिनट के लिए भी नहीं चल सकता। यकीन नहीं आ रहा तो ऐसे वयक्ति से पूछ कर देखिये जिसका फोन हाल ही में चोरी हो गया हो। उसका हाल ऐसा होगा जैसे वह दुनिया से कट गया हो।
भारत में मोबाइल फोन सेवा की शुरुआत अगस्त 1995 से हुई थी। उस समय मोबाइल सेट करीब पचास हजार रुपये का मिलता था। कालरेट करीब 32 रुपये प्रति मिनट और इनकङ्क्षमग 16 रुपये प्रति मिनट होती थी। पंद्रह साल बाद 2010 में नया मोबाइल सेट 500 रुपये से भी कम का आता है। इसका काल रेट 10 पैसे प्रति मिनट से भी कम है। टेलीकॉम रेगुलेट्री अथॉरिटी ऑफ इडिया के डेटा के अनुसार मई 2010 में मोबाइल कनेक्शन की संख्या 601.22 मिलियन हो गई है।
भारत में आज सरकारी और निजी क्षेत्र की पंद्रह कंपनियां मोबाइल सेवायें दे रही हैं। तकरीबन सभी के कॉल रेट एक समान हैं। बाजार के 84.63 प्रतिशत में सरकारी कंपनियों बीएसएनएल और एमटीएनएल का कब्जा है। 3जी फोन सेवा में भी सरकारी कंपनियों ने बाजी मारी है। 3जी फोन के माध्यम से आप तेज स्पीड का इंटरनेट कर सकते हैं और एक दूसरे से वीडियो कॉल के जरिये संपर्क कर सकते हैं। अमेरिका में तो 4जी सेवा प्रारंभ हो चुकी है। लेकिन भारत में अभी भी 3जी की ही जंग चल रही है। इतना तो साफ है कि आने वाले समय में मोबाइल फोन का इतने बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होगा कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते। 4जी सेवा के द्वारा आप टीवी, एयरकंडीशन, माईक्रोवेव इत्यादि ऑफिस में बैठे-बैठे ही नियंत्रित कर सकेंगे ताकि जब आप घर पहुंचें तो आपको तुरंत ठंडा मिले, टीवी में आपका मनपसंद कार्यक्रम चल रहा हो और और आपके लिए लजीज व्यंजन तैयार हो सके।
तो एक बार फिर अपने प्रिय मोबाइल फोन की तरफ देखें और विज्ञापन की प्रसिद्ध पंक्ति को याद करके मुस्कुरायें- ''कर लो दुनिया मुटठी में।ÓÓ

Tuesday, August 10, 2010

संघर्ष

-दिनेश कुमार-
समय किसी का इंतजार नहीं करता। वह अपने समय के अनुसार बदलता रहता है। मैंने बचपन से लेकर अबतक कई ऐसे परिवारों को देखा है जिन्होंने जिंदगी के हर पहलू को जाना और समझा है। आज दुनिया में ऐसे बहुत से परिवार हैं जो गरीबी के कारण होने वाली समस्याओं के बारे में कभी सोचा भी नहीं होगा। अगर इनशान हिम्मत व मेहनत से काम ले तो प्रकृति भी उसकी साथ देती है। मैं ऐसे ही एक परिवार की घटना बताने जा रहा हूं। जो अपने परिवार को संवारने के लिए अपनी पूरी मेहनत लगा दी।
मेरे गांव के पास एक संपन्न परिवार रहता था जिसे किसी चीज की कमी नहीं थी। यह परिवार अपने खेती-बाड़ी का काम किया करता था। घर में नौकर-चाकर भी थे। लेकिन समय की मार ऐसे पड़ी कि देखते ही देखते पूरा परिवार एक मझधार में ऐसा फंसा कि पूछो मत। कहते हैं कि गलत लोगों से दोस्ती सही नहीं होती। कुछ ऐसा ही इस परिवार के साथ हुआ जो घर के मुखिया तो थे ही गांव के भी मुखिया थे। उनके एक मित्र थे। दोनों में बहुत गहरी दोस्ती थी। वह दोस्त एक गरीब परिवार से ताल्लूकात रखता था। वह कम समय में अमीर बनना चाहता था। वह अकसर अपने मुखिया मित्र से इस बारे में बातें किया करता था। मुखिया जी अक्सर उसे समझाते थे कि मेहनत से ही आदमी को अपनी जिंदगी में आगे बढऩा चाहिए न कि कोई गलत कार्य करके। क्योंकि किया गया काम अगर गलत है तो उसका नतीजा भी एक दिन गलत ही होगा। लेकिन उसको मुखिया की एक भी बात समझ में नहीं आती थी। उसे तो बस एक ही धुन थी कि जल्द से जल्द मुखिया से भी ज्यादा पैसा कमा लूं। मुखिया के परिवार वाले भी मुखिया को उस व्यक्ति से दूर रहने के लिए कहा करते थे, लेकिन मुखिया जी तो अपनी दोस्ती के कारण मजबूर थे। उनका मानना था कि अगर मैंने उसे नहीं समझाया तो वह कोई गलत काम न कर बैठे। लेकिन वही हुआ जिसका मुखिया के पिरवार वालों को डर था। एक दिन मुखिया का दोस्त रात के करीब बारह बजे उनके घर आया और बोला कि उसका उसके घर पर झगड़ा हो गया है और वह कुछ दिन उनके घर पर ही रहना चाहता है। मुखिया जी का घर काफी बड़ा। उन्होंने अपने मित्र को बाहर का एक कमरा दे दिया।
तीन चार दिन बीत जाने के बाद एक दिन उनके घर पर पुलिस आई और उस व्यक्ति को पकड़ ली। जब मुखिया को इस बात का पता चला तो वह भी अपने मित्र के पास आ गये। मुखिया ने देखा कि दस-बारह पुलिस कर्मी उसके मित्र को पकड़े खड़े थे। उसने पुलिस वालों से पूछा कि क्या बात है? इसको क्यों पकड़े हो? तुम्हारा दोस्त खूनी है। एक पुलिस वाले ने जवाब दिया। इसने एक नहीं बल्कि चार-चार खून किया है। यह सब सुनकर मुखिया सन्न रह गया। वह सिर पर हाथ रखे जमीन पर ही धम्म से बैठ गया। फिर पुलिस वालों ने मुखिया के दोस्त से पूछा कि बता तेरे साथ और कौन-कौन हैं? उसने मुखिया का नाम भी बता दिया। बस फिर क्या था, पुलिस ने मुखिया को भी गिरफ्तार कर लिया। पुलिस ने जब उस कमरे की तलाशी ली तो वहां पर चोरी का सामान और हत्या में शामिल हथियार भी मिला। पुलिस मुखिया और उसके दोस्त को पकड़ कर थाने ले आई। इसके बाद से मुखिया के परिवार की तबाही शुरू हो गयी।
एक साल तक मुखिया के बीबी बच्चों ने अपने पास जितना भी पैसा था सब अदालतों और वकीलों के चक्कर काटते हुए खर्च कर दिया। लेकिन हुआ कुछ भी नहीं। सालों तक मुकद्दमा चलने के बाद मुखिया और उसके दोस्त को दस-दस साल की सजा हो गई। सजा होने के बाद मुखिया के चचेरे भाई उसके सारे खेतों पर अपना कब्जा जमा लिया। जब यह बात मुखिया को पता चली तो उसे इतना दुख हुआ कि उसने जेल में ही दम तोड़ दी। मुखिया की मौत के बाद उसकी पत्नी छह बच्चों के साथ गांव में ही एक छोटे से मकान में रहने लगी। पहले जो उनका बड़ा मकान था वह मुखिया का केस लड़ते हुए बिक चुका था। अब मुखिया की पत्नी के सामने समस्या यह थी कि बच्चों को कैसे पाले-पोशे। काम वाम तो वह कुछ जानती नहीं थी और रहा जमीन का सवाल तो उसे मुखिया का चचेरा भाई पहले ही हड़प चुका था।
एक दिन मुखिया की पत्नी से बच्चे ने पूछा कि मां हमे अब कभी पेट भर खाना नहीं मिलेगा। तो मुखिया की पत्नी रो पड़ी और वह अगले ही दिन मजदूरी करने लगी। अब उसे जो पैसा मिलता था वह उससे अपने बच्चों के लिए रोटी का इंतजाम करती और खुद भूखा रहकर बच्चों का पेट पालती। बच्चे जब किसी जरूरत के लिए रोते तो वह जवाब देती कि बेटा समय सदा एक सा नहीं होता। जैसे हमारा बुरा दिन आया है वैसे ही अच्छा दिन भी आएगा।
उसने अपने बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए रात दिन मेहनत की और अपने बच्चों को स्कूल में दाखिला करवाया। समय जैसे-जैसे बीतता गया बच्चे बड़े होते गए। पढ़ाई के साथ-साथ बच्चों ने भी छोटा मोटा काम शुरू कर दिया जिससे मां को सहारा मिल गया। गांव के कुछ अच्छे लोगों ने मुखिया की दो बेटियों की शादी करवा दी। अब मुखिया के दोनों लड़के और दोनों लडि़कियां पढ़ाई पूरी करने के बाद घर का सारा बोझ अपने कंधों पर ले लिया। उन्होंने अपने मां की भी जमकर सेवा की।
आज समय बदल चुका है। तीन बच्चों के पास सरकारी नौकरी है और अपना एक बड़ा सा घर है। अब उनकी मां उनसे कहती है कि बेटा मै कहती थी न कि समय सदा एक सा नहीं रहता। कभी गम कभी खुशी जिंदगी के दो पहलू हैं। जो ङ्क्षदगी से लड़ा वही अपनी जिंदगी में आगे बढ़ा। जो दुखों से डर कर रह गया वह कभी भी अगे नहीं बढ़ सकता है।

Monday, August 9, 2010

बाबूजी का जुर्माना

जय प्रताप सिंह
जय कंप्यूटर पर बैठकर खबरों की दुनिया में खोया हुआ था। उसकी उंगलियां तेजी के साथ कीबोर्ड पर दौड़ रही थीं। उसके अगल बगल तीन आदमी उसे जोर-जोर से उसे हिला रहे थे। उसमें से एक गोरा-चि_ा नाटे कद का आदमी हाथ में पीली पर्ची का बंडल और कांख में दबाए एक अखबार को लिए खड़ा था। वह लगातार बोलता जा रहा था। अचानक जय गुस्से में आकर कीबोर्ड पर जोर से हाथ पटका और खड़ा हो गया। तुमहारा दिमाग खराब हो गया है? चपरासी हो तो अपनी औकात में रहो। तुम्हें जर्माना ही तो चाहिए...। अभी ले लेना। मैं कोई अपराधी थेड़े हूं कि मुझे पकडऩे के लिए चार लोग खड़े हो। क्ंप्यूटर बंद करो और बाबूजी के पास चलो। मैनेजर ने भी अपनी आवाज को गति देते हुए बोला। तुम पहले 100 रुपये की पर्ची काटो फिर बात करना। बगल में खड़े तीसरे आदमी ने उसके हाथ में पेन पकड़ाते हुए कहा। यह कोई गलती नहीं है। शिर्फ एक शब्द ही तो गलत हुआ है और उसका 200 रुपया जुर्माना। मैं नहीं दुंगा। जय ने जवाब दिया। चलो बाबूजी के पास। चपरासी बाबूजी के आफिस की ओर जाते हुए कहा। चपरासी आगे-आगे और उसके पीछे-पीछे दोनों आदमी जय को पकड़े एक बड़े से हाल की ओर लिए जा रहे थे।
बीस फुट लंबा और पंद्रह फुट लंबा एक बड़ा सा हाल था। उसके एक किनारे एक लंबा चौड़ा मेज रखा हुआ था। किनारे किनारे सोफा और कुर्सियां करीने से रखी हुई थीं। उन कुर्सियों पर जालंधर शहर के मानी जानीं हस्तियां सफेद कुर्ता पाजामा पहने माथे पर लंबा सा तिलक लगाये गुपचुप बैठे हुए थे। बीच बीच में मुस्करा भी दिया करते थे। वहां पर रखा मेज फाइलों के बोझ तले दबा जा रहा था। उन्हीं फाइलों के बीच से माथे पर तिलक, गले में रामनामी दुपट्टा डाले बाबूजी ने अपना थोबड़ा बाहर निकाला। बाबूजी के सिर के बाल लगभग उजड़ा चमन हो चुका था, लेकिन उसकी भरपाई मुंछें पूरी कर दे रही थीं। वह हर समय सफेद वस्त्रों को ही धारण करते थे। बाबूजी बहुत बड़े धाॢमक किस्म के व्यक्ति थे। वे हर समय अपने जैसे ही धार्मिक लोगों के बीच घिरे रहते थे। यह बात अलग है कि इन धाॢमक लोगों पर लोग मुंह पीछे अपराधी और बलात्कारी होने का आरोप भी लगाते थे। लेकिन इन लोगों पर केस दर्ज होना तो दूर पुलिस पास तक फटकती नहीं थी। कुल मिला जुलाकर बाबूजी धर्म के ठेकेदारों से घिरे रहते थे। बाबूजी कुर्सी पर जब एक बार पसर जाते थे तो फिर जल्दी उठना नहीं चाहते, क्योंकि उनका अग्रभाग इस कदर बढ़ा हुआ था कि वह हमेशा बाहर आने को बेताब रहता था।
बाबूजी बिलकुल अलग किस्म के धार्मिक व्यक्ति थे। वह कभी भी अपनी जेब से दान नहीं करते थे। बल्कि उनके दान करने का तरीका ही कुछ अलग होता था। बाबूजी अखबार के दफ्तर में चपरासी, उपसंपादक और संपादक और अन्य कर्मचारियों के ऊपर जुर्माना लगाते थे। उस जुर्माने की रकम को धार्मिक कामों में लगाते थे। उनकी सबसे बड़ी जो महानता थी वह यह कि कर्मचारियों के खून पसीने से निचोड़े गये पैसों को सहीद फंड में भिजवा देते थे। इस शहीद फंड से जम्मू कश्मीर में हो रहे शहीद परिवारों के पास ट्रक के ट्रक रशद पहुंचाते थे। जिस समय रशद का ट्रक जाना होता था उस समय उपसंपादकों के कान खड़े हो जाते थे। बढ़ी हुई सेलरी और ओवर टाइम तो हर माह जुर्माने में कट जाता था। बाबूजी इन सबके बावजूद दया के मुॢत थे। इस बात का सबूत उस समय मिलता था जब किसी उपसंपादक के पास जुर्माने की रकम देने के लिए जेब में पैसे नहीं हुआ करते थे। उस समय उससे रजिस्टर पर साइन कराकर कर पीली या लाल पर्ची पकड़ा दिया जाता था और वह कैस देने से छुट्टी पा जाता था। अब तो आप सोच रहे होंगे कि ऐसे समय में जेब में पैसा न रहना ही अच्छा है। लेकिन आप इतने चालाक मत बन बनिए। हमारे महान बाबूजी ऐसे थोड़े महान और दया के मुर्ति थे। वह पैसा वेतन से सूद व्याज सहित काट लिया जाता था। ऐसा ही कुछ जय के भी साथ होने वाला था।
फाइलों के लगे ढेर के बीच से सिर को ऊपर उठाते हुए दया के मूर्ति बाबूजी ने लालच भरी निगाहों से जय को घूरते हुए कहा- की बात है पुत्तर? तूसी क्या काम है? बाबूजी यह जुर्माने की पर्ची नहीं काट रहा है? कह रहा है कि मेरी गलती नहीं है। मैनेजर ने जय का हाथ पकड़ कर उनके पास धक्का देते हुए कहा। तुम क्यों नहीं पर्ची कटा रहे हो। बाबूजी यह हेडिंग गलत नहीं है। आप भी इसको पढ़ लीजिए। जय ने रुआंसे स्वर में जवाब दिया। बाबूजी यह झूठ बोल रहा है। खबर और हेडिंग दोनों गलत है। चपरासी ने जल्दी से अखबार को हाथ में पकड़ाते हुए कहा। वह गलत कह रहा है तो गलत है। तुम पहले पर्ची कटाओ फिर जाओ। बाबूजी ने गुस्से से अखबार को एक तरफ फेंकते हुए कहा और फिर अपनी निगाहें फाइलों के बीच गड़ा दी। कितने की पर्ची कटवानी है? जय ने कहा। तुमने हमारा कीमती समय बर्बाद किया है। अब तुम्हें 300 रुपये की पर्ची कटवानी पड़ेगी। बाबूजी ने फाइलों के बीच खोए खोए ही जवाब दिया। लो पर्ची पर साइन करो। चपरासी ने पर्ची को आगे बढ़ा दिया। जय अभी पर्ची पर साइन कर ही रहा था कि बाबूजी ने कहा कि तुम काम करो तो आदमी बन जाओगे। हां बाबूजी मैं आदमी बनना चाहता हूं। जबसे यहां पर आया हूं, आदमी रहा ही नहीं। पर्ची हाथ में पकड़े पकड़े जय ने जवाब दिया। अब बताओ तुम क्या हो? तूसी अब फंस गये हो, तुम्हें बताना ही पड़ेगा कि तुम क्या हो। जय अपने आपको तत्काल संभाल लिया।। उसे समझ में आ गया कि यह खूसट बुड्ढा सबसे कहलवाता था कि कहो कि तुम गधे हो। जय गधा नहीं बनना चाहता था। लेकिन कुछ न कुछ तो उसे कहना ही था। जो आप हैं, वही मैं भी हूं। आप लोगों के बीच रह रहा हूं, वही बन गया हूं। उसने दोहराते हुए कहा कि जो आप हैं वही मैं हूं। जोर से बोलो तुम क्या हो? गधा हूं। जय ने गधा शब्द पर जोर देते हुए बोला। थेड़ी देर के लिए कमरे में सन्नाटा छा गया। बाबूजी जय का चेहरा एक टक देखे जा रहा था। उसका चेहरा तमतमा उठा। उसने चारो तरफ नजर दौड़ाते हुए कहा कि लड़का निडर है। हां बाबूजी यह निडर है। मैनेजर ने हां में हां मिलाया। देखो यह बात कंपनी में नहीं जानी चाहिए। किसी से भी मत कहना। मैनेजर की ओर नजर दौड़ाते हुए बाबूजी ने कहा। बाबूजी हम किसी से नहीं कहेंगे। मैनेजर, चपरासी और चीफ व्यूरों ने दोनों हाथों को जोड़े लगभग कांपते हुए कहा। लो बेटा बर्फी खाओ। बाबूजी ने बर्फी का डिब्बा आगे बढ़ाते हुए कहा। जय ने नियमानुसार मिठाई के डिब्बे में से तीन बर्फी निकाला और पीछे मुड़ गया। उस संस्थान का सबसे बड़ा नियम यह था कि जो 100 रुपये जुर्माना दे उसे एक पीस बर्फी और 300 रुपये देने पर तीन पीस बर्फी दिया जाता था।
जय पीछे मुड़ा नहीं कि उलटे पांव ऐसे भागा जैसे कि अभी अभी पुलिस कस्टडी से भागा हो। वह कंप्यूटर को ऑन किया और सबकुछ भूल कर खबरों की दुनिया में खो गया। कितने की पर्ची कटाए हो? एक उपसंपादक साथी ने सवाल किया। तीन सौ रुपये का। फिर वह काम में व्यस्त हो गया। यह कोई एक दिन की बात नहीं थी, बल्कि रोज ही किसी न किसी को जुर्माना देना ही पड़ता था। अभी वह पिछली बातें भूल भी नहीं पाया था कि वही चपरासी जिसका पढ़ाई से दूर दूर का रिश्ता नहीं था, पीली पर्ची लिए आ धमका। यह खबर तुमने क्यों नहीं लगाई? उसने जागरण अखबार हाथ में पकड़ाते हुए कहा। नहीं लगाई तो क्या? चलो छोटे बाबूजी बुलाए हैं। उसने सीट से उठाते हुए कहा। जय इस बार कोई बहस नहीं किया। क्योंकि बहस करने पर ही उसने 100 रुपये की जगह तीन सौ रुपये अभी अभी देकर आया था। चपरासी आगे-आगे और वह पीछे-पीछे चल दिया।
तुमसे यह खबर क्यों छूट गयी? छोटे बाबूने कहा। सर, यह खबर रिपोर्टर ने मेरे पास नहीं भेजा था। मुझे क्या मालूम कि शहर से 100 किलोमीटर दूर क्या हो रहा है। जय ने जवाब दिया। 200 की पर्ची काटो और चलो। छोटे बाबू ने लगभग झिड़कते हुए कहा। सर अब मैं पर्ची नहीं काट सकता। मेरी पूरी सेलरी ही जुर्माने में चली जाएगी, मैं पंद्रह दिन में बारह सौ रुपया जुर्माना दे चुका हूं। अब नहीं दे सकता। जय ने रोते हुए कहा। नहीं दे सकते तो सीढिय़ों से नीचे उतर जाओ। उसने पर्ची कटाई और रोते हुए वापस अपनी सीट पर आ गया। इस बार पैसा भी दिया और बर्फी भी नहीं मिली। क्योंकि छोटे बाबू जो जुर्माना लगाते थे, उसका बर्फी नहीं मिलता था। बर्फी शिर्फ बड़े बाबूूजी ही देते थे। वह कंप्यूटर पर बैठा-बैठा अपनी किशमत को रो रहा था कि कहां आ कर मैं फंस गया। यह सब इनशान नहीं बल्कि हैवान हैं। वह बहुत पहले ही चला जाना चाहता था, लेकिन क्या करे? घर जाने के लिए उसके पास पैसा ही नहीं बचता था। सेलरी तो सढ़े छह हजार थी, लेकिन जुर्माना और पीएफ काटने के बाद चार हजार रुपये हाथ में आते थे। जो मकान का किराया और रोटी में ही खत्म हो जाता था। पीएफ भी मात्र एक बहाना था। वह पैसा कहां जाता था, कुछ पता नहीं। उसका कोई प्रूफ नहीं भी नहीं था। जो लोग पांच छह सालों तक काम करते थे, उनमें से किसी किसी को पीएफ कार्ड दे दिया जाता था। एडिटोरियल हेड और मैनेजर अपनी पूरी ऊर्जा बाबूजी को खुश करने में लगा देते थे। वे लोग बारी बारी से सभी उपसंपादकों का जुर्माना जानबूझकर लगवाते थे। वे लोग इतने योग्य थे कि अन्य किसी अखबार में कोई उन्हें ट्रेङ्क्षनग में भी न रखे। लेकिन पंजाब के इस चर्चित अखबार में बतौर समाचार संपादक और मैनेजर थे। ऐसी घटनाएं अक्सर सभी के साथ होती थी। समाचार संपादक और मैनेजर भी जुर्माने से अछूते नहीं थे। जुर्माना इस लिए भी काफी आता था क्योंकि यहां पर प्रत्येक उपसंपादक से आठ घंटा ही नहीं बल्कि बारह-बारह घंटा गुलामों की तरह खटाया जाता था। ऊपर से प्रत्येक उपसंपादक से चार से लेकर आठ-आठ पेज बनवाया जाता था। सहुलियत शिफ इतनी थी कि पेज सेट करने के लिए एक पेजनेटर मिलता था।
एक दिन की घटना तो अभी तक नहीं भूला है। हुआ यूं कि जय एक दिन जालंधर सिटी डेक्स पर बैठा था। उसी समय बाबूजी ने उसको अपने पास बुलाया और हाथ से लिखा हुआ एक कागज पकड़ाते हुए कहा कि इसे चार नंबर पेज पर लीड बना लेना। अच्छी तरह से खबर बनाना, यह मेरी खबर है। वह खबर गीतावाटिका मंदिर के प्रधानगी के चुनाव के बारे में था। जय ने उस खबर को अच्छी तरह से पढ़ कर चार नंबर पेज की लीड बनवाने के बाद उस प्रूफरीडिंग भी करवाई। खबर चूंकि बाबूजी का था इसलिए उस खबर को काफी अच्छी तरह से पढऩे के बाद ही पेज पर लगाया गया। सुबह जब अखबार खोला तो उसमें प्रधानगी का चुनाव पांच को की जगह छपा था कि प्रधानमंत्री का चुनाव पांच को जय को फिर बाबूजी के सामने पेस होना पड़ा। तूसी तो बलंडर कर दिया है। मेरे पास पांच सौ लोगों का फोन आ चुका है कि कैसे लोगों को भर्ती किए हो। अब तुम्हें दो हजार रुपये जुर्माना देना पड़ेगा। बाबूजी ने गुस्से में कहा। बाबूजी दो हजार रुपये कैसे? एक ही शब्द तो गलत है। बाकी अंदर सब ठीक है। एक शब्द का 100 रुपये ही हुआ। जय ने आत्मविश्वाश के साथ कहा। ठीक है 100 रुपये की पर्ची कटवाओ। बाबूजी फिर अपने काम मे व्यस्त हो गये। जय ने पर्ची कटवाया और नियमानुसार एक बर्फी उठाते हुए कमरे से बाहर हो गया। वह बाबूजी की मूर्खता पर काफी खुश था। उसे इस बात पर हंसी आ रही थी कि इस गधे को यह नहीं मालूम कि यह मात्र एक शब्द की गलती नहीं बल्कि एक प्रतिष्ठत अखबार के लिए बलंडर था। वह फिर अपने कामों में जुट गया और बहुत ही जल्द उस कालकोठरी से निकलने के बारे में सोचता रहा।

Thursday, August 5, 2010

आज का श्रवण या कुछ और...

जय प्रताप सिंह

आज का श्रवण इस समय लगातार मीडिया में मुख्य खबर बनता जा रहा है। दूसरे धर्मों के लोग फूल मालाएं लेकर उसके सम्मान को निकल पड़े हैं। लोग बड़ी-बडी़ खबरें छापने से लेकर भारी-भरकम लेखों पर अपनी कलम चला रहे हैं। चैनलों का तो मानों बहार आ गया है। इस पर गौर करने की बात है कि आखिर यह कौन सा समय है जब लोग इन सब मसलों पर अपना समय नष्ट कर रहे हैं? क्या आज के समय में हमारे पास शिर्फ यही एक खबर है? क्या हमारे सामने भूख, बीमारी और कर्ज के बोझ तले दबकर हो रही मौतें खबर नहीं हैं? क्या हम इन चीजों को ही बढ़ावा देना चाहते हैं? क्या वही इक्के-दुक्के लोग ही बचे हैं जो अपने मां-बाप से प्यार करते हैं, या कुछ और----? इस पर भी सोचने की जरूरत है। आदि, आदि।
जुलाई माह के अंतिम और अगस्त माह की शुरुआत से ही पूर्वी व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सड़कों पर एक तरफ सड़कों पर कंधे में कांवड़ लिए तथा दूसरी ओर अपनी रोजी-रोटी के लिए, जिनके पास नौकरी करके अपने मां-बाप और बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी जुटाने का और कोई साधन नहीं है, के बीच कांवड़ ही सबसे महत्वपूर्ण स्थान ले लिया है। लोग भी इसे सकारात्मक रूप में सराह रहे हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि कुछ नौजवानों को तो श्रवण कुमार बनने की हसरत भी है, जिनमें इक्के-दुक्के लोग श्रवण कुमार की तरह अपने कंधे पर जुआ लटकाए दोनों तरफ अपने मामा-पिता को बैठा कर लिए जाते हरिद्वार तक कांवड़ भरने जाते हैं। लोगों की निगाह उन्हीं नौजवानों पर टिक जाती हैं। उनके सामने बाकी सभी कुछ गौड़ हो जाता है। लोगों को यह कहते हुए भी सुना जाता है कि 'देखो! वह अपने माता-पिता को कितना प्यार करता है।Ó लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचता, इसे चाहे बेवकूफी कहें या अपने मां-बाप के प्रति अमानवीय या कुछ और....। मैं कहना यह चाहता हूं कि क्या वह बेटा अपने मां-बाप को प्यार नहीं करता है जो दिन भर मजदूरी करने के बाद शाम को अपने भूखे व बीमार मां-बाप और बच्चों के लिए भात, रोटी नमक और तरकारी का इंतजाम करता है? या वह नौजवान जो अपनी बीबी बच्चों की दवा और दो वक्त की रोटी कमाने में ही अपनी जिंदगी तबाह कर देता है, लेकिन न चाहते हुए भी अपने बूढ़े मां-बाप के साथ चंद समय भी नहीं निकाल सकता। यदि निकाल भी ले तो दूसरे दिन उसकी नौकरी पर भी तलवार लटकती दिखाई देती है। क्या इसको बढ़ावा देने से हजारों, लाखों नौजवानों ताने नहीं सुनने पड़ेंगे।
यह सब तो कुछ उसी तरह से है जब शाहजहां ने नुरजहां से इस कदर प्यार करता था कि उसकी मौत के बाद उसने आगरे का ताजमहल बनवा दिया। इसका मतलब तो यही हुआ कि शाहजहां ही एक ऐसा शख्श था जो प्यार करता था। बाकी लोग तो शिर्फ ढकोसला करते हैं। और हम भी उसी बहाव में बह जाते हैं। क्या हम यह नहीं सोच सकते कि शाहजहां का प्यार ही मात्र प्यार नहीं है बल्कि ऐसे लाखों लोगा हैं जो एक-दूसरे से इस कदर प्यार करते हैं कि एक-दूसरे के दुख तकलीफों में शेयर करते-करते अपनी जान तक दे देते हैं। लेकिन वह शाहजहां जैसे सुलतान या राजा नहीं थे कि ताजमहल बनवा सकें।
ठीक इसी तरह इक्के-दुक्के को छोड़ कर लाखों नौजवान ऐसे हैं जो अपने माता-पिता को इस कदर प्यार करते हैं कि उन्हें हरिद्वार ही क्या पूरे देश का सैर करवा सकें, लेकिन उनके सामन रोटी का संकट इस कदर हाबी होता है कि वे सैर कराना तो दूर उनके पास दो दिन रुकने का भी समय नहीं निकाल सकते। यदि दो दिन काम पर न जाएं तो मालिक काम पर से निकाल कर इस कदर फेंक देगा कि जैसे दूध से मख्खी।
वहीं दूसरी ओर पूरा का पूरा हाईवे जाम कर दिया जाता है जिससे आवागमन भी बाधित होता है। लोगों को फैक्टरी, कारखानों तथा कार्यालयों में पहुंचने के लिए भी घंटों की दूरियां तय करनी पड़ती हैं। यदि किसी को दवा इलाज के लिए कहीं बाहर जाना हो तो वह कांवड़ लौटने तक इंतजार करे या यमराज से बिनती करे कि भाई कुछ दिन का समय और दे दो फिर हम दवा करवा लेंगे। नहीं तो यमराज के पास जाने का रास्त तो हर समय खाली ही रहता है। वहां पर कोई भी जाम की स्थिति नहीं है। सोचने की बात यह है कि आज हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या रोजी-रोटी की है। दिन दूना रात चौगुनी की तरह महंगाई बढ़ती जा रही है। लोगों का जीना दूभर है। लोगों के पास यदि आमदनी 100 रुपये है तो खर्चा 150 रुपये। लेकिन सरकार को इन सबसे क्या लेना-देना है। उसके लिए तो सबसे जरूरी है इस समय धाॢमक मामलों में सुरक्षा के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च पानी की की तरह बहा देना। इस तरह अरबों रुपये पानी की तरह बहाने के लिए सरकार के पास पैसों की कमी नहीं है लेकिन यदि महंगाई को कम करने की बात करें तो देश की हालत ही गंभीर हो जाती है। यह है हमारे देश की स्थिति। ऐसे समय में एक बेहतर ङ्क्षजदगी जीने के लिए हमें क्या करना होगा, इसके बारे में हमें सोचने की जरूरत है। यदि सबकुछ इसी तरह चलता रहा तो आने वाला समय कितना भयावह होगा सहज ही इसका अनुमान लगाया जा सकता है।