Thursday, September 29, 2011

पीड़ा


- जय प्रताप 

पीड़ा से वह तड़प रही थी। तीन फुट चौड़ी गली में झुग्गी की औरतें भीड़ लगाए खड़ी थी। गली में तिल भर भी जगह नहीं था, जिसके कि अंदर क्या हो रहा है, उसका जायजा लिया जा सके। बिजली भी आंखमिचौली का खेल खेल रही थी। यही वजह थी कि पूरी झुग्गी बस्ती को अंधेरे ने अपने कब्जे में ले लिया था।

औरतें एक-दूसरे से कहती- ''अब इसका भगवान ही मालिक है। इसे कोई नहीं बचा सकता, यह मर जाएगी।'' दूसरी कहती, ''इसका मरद भी नहीं है। पता नहीं वह आज आऐगा कि नहीं। आता तो शायद अस्पताल ले जाने पर बच जाती। इसका है ही कौन जो इसका दवा दारू करवाए।'' कहते हुए उसने अपने पल्लू से आंख पोछी और चली गई। बाकी की औरतें भी अपनी गर्दन को उठाती, उस सीलन भरी अंधेरी कोठरी में झांकती और दूसरी को देखने का मौका देते हुए एक ओर को सरक जाती। एक औरत ने चिल्लाते हुए कहा, यह लड़का नहीं राक्षस है राक्षस जो पैदा होने से पहले ही मां को खा लेगा। डॉ क्या करेगा, जो लिखा है, वही होगा। इसे अब ऊपर वाले का ही भरोसा है।

चार फुट चौड़ी और सात फुट लंबी कोठरी थी। जिसे चारों ओर से एक के ऊपर एक र्इंट डाल कर खड़ा किया गया था। प्लास्टिक के ऊपर थर्मोकोल के टुकड़ों को डालकर छज्जा बनाया गया था। बरसात का पानी तो मानो कसम खा लिया था कि मुझे कमरे से बाहर जाना ही नहीं है। लेकिन सूरज की गरम-गरम किरणें काफी दिनों से अंदर जाने के लिए संघर्ष करती रहीं। बगल में पानी से लबालब भरी एक नाली बह रही थी, जिसका थोड़ा बहुत पानी कोठरी में घुस गया था। पूरी कोठरी चीथड़ों से भरी पड़ी थी। एक कोने पर सोने का बिस्तर तो दूसरे पर अंगीठी रखी गई थी। इसमें से धुंआ उठ रहा था, जिससे आंखों में जलन हो रही थी। यही कारण था कि कोई भी औरत अंदर जाने से कतराती थी।

वह जोर-जोर से पैरों को पटक रही थी। उसका आधा शरीर कोठरी में फैले पानी में भीग चुका था, जिससे गरम-भरी मौसम में शरीर को राहत मिलती थी। ''मुझे बचा लो, मैं मर जाऊंगी। कोई मेरे मरद को बुला दे। डॉक्टर ने कहा है कि तुम्हारा म्ं इलाज नहीं करूंगा, तुम अस्पताल जाओ। आह....। उसकी दर्दनाक चीख निकल पड़ी और बेहोश हो गई। जब भी उसे हाथ आता, वह लोगों की ओर एक तक देखती और दर्द से छुटकारा पाने की याचना करती।

वह कई सालों से नोएडा के सेक्टर-9 की झुग्गी में रह रही थी। उसका पति एक दिहाड़ी मजदूर था। उसे कभी-कभी तो महीनों काम मिलते रहते, लेकिन कभी ऐसा भी दिन आता, जो फांके मस्ती मे गुजरता। तीस साल की उमर में ही उसके तीन बच्चे पैदा हो गए थे, जो धूल मिट्टी में सने नंग-धड़ंग झुग्गियों में घूमा करते। उन्हें पढ़ाने लिखाने का तो दूर शरीर को ढकने के लिए कपड़ों का भी इंतजाम नहीं कर पाते।

उसे काफी दौड़-भाग के बाद कब्जा बनाने वाली एक कंपनी में काम मिल गया था। बारह से चौदह घंटे काम करने के बाद वह इतना थक जाती की बड़ी मुश्किल से खाना बना पाती। बच्चों की देखभाल करना तो दूर की बात थी। पेट में बच्चा होने से उसके लिए बारह घंटा काम करना मुश्किल हो रहा था। कभी-कभी तो उसकी इच्छा होती कि वह काम छोड़ दे। लेकिन रोटी की संकट उसे काम करने पर मजबूर कर रही थी।

मालिक को जब यह पता चला कि वह पेट से है, तो उसने बिना देर किए उसे काम से निकाल दिया। वह कई दिनों से बीमार चल रही थी। वह डॉक्टर के पास नहीं जा रही थी, क्योंकि उसे डर था कि डॉक्टर 500 रुपये का बिल बनाएगा। उसे वह कहां से देगी। उसके लिए तो पचास रुपये भी ज्यादा थे। इसका पति फरीदाबाद में एक कंपनी में काम करता था। वह मुंह अंधेरे घर से निकल जाता और देर रात को वापस आता। इतवार को भी उसे छुट्टी नहीं मिलती थी। यह किसी दिन बीमार हो जाता तो उस दिन की दिहाड़ी भी खत्म हो जाती। पत्नी के साथ बैठ कर आराम से बात करना तो उसे नसीब नहीं था। कई दिनों दिनों से उसके जेब में फूटी कौड़ी नहीं थी। उसे, मालूम थी कि बिना पैसे का पत्नी का इलाज नहीं हो सकता, लेकिन सब जानकर भी वह अनजान बना हुआ था। आखिर एक दिन मैनेजर के पास चला ही गया। 

''बाबू जी मुझे कुछ एडवांस दिलवा दीजिए। मेरी बीवी को बच्चा होने वाला है। उसे अस्पताल भी ले जाना पड़ सकता है। चार दिन की छुट्टी भी चाहिए।'' एक ही सांस मे वह बोलता गया।

"जाओ काम करो। दोबारा यहां आने की हिम्मत मत करना। अभी छह महीना भी काम करते नहीं हुआ और तुम्हे एडवांस की जरूरत पड़ने लगी। उसे बच्चा जनना होगा तो जन ही देगी। अभी माल बाहर भेजना है, इसलिए छुट्टी का तो नाम ही मत लेना। रहा एडवांस का तो बाद में देखा जाएगा।" मैनेजर ने गुस्से में कहा। वह चला आया और सब कुछ अपने भाग्य पर छोड़ दिया।

एक-एक कर सभी औरतें चली गई। वहां अगर कुछ बचा था तो दर्द भरी कराह और भूख से तड़पते बच्चों की चिल्ला-पों। उसमें इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि वह बच्चों के सिर पर हाथ रखकर अपनी ममता को उनपर न्योछावर कर सके।

अचानक जोर की पीड़ा हुई और उसने नीचे के होंठ को दांतों से भींच लिया, जिससे खून की एक धार फूट पड़ी। दर्दनाक चीख के साथ वह बेहोश हो गई। इस दृष्य को देख रहे एक व्यक्ति ने दोनों हाथों से अपने आंखों को ढांकते हुए एक छोटी सी छुग्गी में घुस गया। उसने जब अपना हाथ हटाया तो वह आंसुओं से भीग चुका था। वह काफी देर से इस वाक्य को देख रहा था, लेकिन वह क्या करे, कोई भी निर्णय नही ले पा रहा था। वह कई बार उसकी सहायता करने के लिए आगे बढ़ता फिर पीछे मुड़ जाता।

वह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि एक छोटा-मोटा होमियोपैथिक डॉक्टर था। वह दिन भर झोले में दवाइयां भरकर झुग्गियों में लोगों का इलाज करता और जो कुछ कोई देता उसी से अपना गजारा कर लेता। वा भी पड़ोस की झुग्गी में रहता था। घंटों से वह इस वाक्य को देख रहा था और औरत के पास जाने की हिम्मत जुटा रहा था।

आखिरकार उसने पीड़ा से कराह रही औरत के पास जाने का निर्णय कर लिया। उसने अधखुले फाटक पर दस्तक दिया और कुछ पल इंतजार करने के बाद उसे पूरा खोल दिया। अंदर का दृष्य देख कर वह दंग रह गया। फर्श पर बिखरे पानी में वह औरत अधनंगी पड़ी थी। वह अपने दोनों हाथों से चेहरे को दबाए हुए थी। अंगुलियों के बीच ताजे खून के थक्के जमे हुए थे। वह उलटे पांव कमरे से बाहर निकला और पड़ोस की एक औरत को आवाज देकर फौरन कमरे में गया और बाल्टी से एक अंजुल पानी लेकर उसके चेहरे पर छींटा मारा। बड़ी मुश्किल से उस औरत ने आंख खोली और उसने दोनों हाथों को एक साथ जोड़ने का काफी देर तक प्रयास करती रही। उसके आंखों को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कि कह रही हो। डॉक्टर बाबू मुझे इस दर्द से छुटकारा दिलवा दो।

'' डॉक्टर बाबू! हमका बुलाए हो, का बात है, ऊ जिंदा है कि नाहीं।" पड़ोस की एक औरत ने कमरे में घुसते हुए कहा। 

"हां जिंदा है।" डॉक्टर ने कहा, "इसका शरीर बुखार से तप रहा है। इसे उठा कर खाट पर लिटाना पड़ेगा।" यह कहते हुए उसने बगल में पड़ी खाट पर गुदड़ी को पसार दिया ओर उस महिला की सहायता से बीमार को खाट पर लिटा दिया। वह काफी देर तक उसके माथे पर भीगी पट्टी को बदलता रहा और पांच-दस मिनट पर उसके मुंह में दवा का बूंद डालता रहा।

दवा लेते अभी एक घंटा भी नहीं हुआ था कि वह हृदय विदारक चीख के साथ छटपटाना शुरूकर दी। डॉक्टर ने अपनी आंखें बंद कर ली और अपने दोनों हाथों से उसके पेट को सहलाता रहा।

अचानक एक नवजात शिशु के रोने की आवाज आई और उसने अपनी आंखें खोल दी। बच्चे की आवाज सुनते ही पड़ोस की महिलाएं एक बार फिर उस छोटी सी झुग्गी के आसपास जमा हो गई। डॉक्टर का चेहरा खुशी से चमक उठा। वह भीड़ से रास्ता बनाता हुआ निकल गया।

Wednesday, May 4, 2011

नये गांधी का जन्म


जय प्रताप सिंह

‘सत्तर साल का यह बुड्ढा आखिर कहां से आ टपका। यह चाहत क्या है? क्या हमारी लुटिया डुबोएका? क्या पड़ा था इन नेताओं को, अरबों रूपये एक ही साथ गटक जाने का। मिल-बांट कर थोड़ा -थोड़ा खाते तो शायद कुछ वर्षों तक ऐसे ही चलता रहता। ‘‘हम भी खाएं, तुम भी खाओ,’’ वाली कहावत ध्यान ही नहीं दिया। लेकिन शवाल यह है कि हमारा काम कैसे चले।’’ सेठ करोड़ीमल कमरे में चहलकदमी करते हुए बड़बड़ाए जा रहे थे। उन्होंने बड़ी मुश्किल से दोनों हाथों को अपनी तोंद पर रखा और उसे सहलाते हुए विखरे अखबार के पन्नों को हाथ में कस के पकड़ लिया। और एक हाथ से मसलन को कमर के पास लगाकर बैठ गए।

जिस भी अखबार को देखते उसी पर मोटे-मोटे अक्षरों में ‘भ्रष्टाचार मिटाना है, जनता का लोकपाल विधेयक बिल पास कराना है,’ लिखा हुआ पाते। उन्होंने अपने सिर को जोर से दबायाऔर सोच की मुद्रा में डूब गये। ‘‘पिछले साल तो कारखाने में लाखों का बिजली गिल भुगतान करने के बजाय अधिकारियों को मात्र दस हजार रुपये देकर खत्म करवा दिया था। इस साल क्या होगा? अनाज भी गोदामों में भरा पड़ा है।’’ ऐसे ही कई सवाल उनके दिमाग में उमड़-घमड़ रहे थे।

‘‘सेठ जी राम राम।’’ सेठ जी ने पीछे मुड़ कर देखा तो शहर के ससम्मानित नेता राम भरोसे मुस्कुराते हुए खड़े थे। ‘‘आइए, बैठिए नेताजी।’’ सेठ करोड़ीमल ने उन्हें सोफे पर बैठने का इशारा करते हुए कहा। ‘‘कौन-सी विपत्ति आ पड़ी सेठजी। चेहरे पर क्यों बे-मौसम चिंता को बुलावा दे रखे हो।’’

रामभरोसे ने सोफे पर बैठते हुए कहा। ‘‘अब क्या होगा? कैसे हम लोगों की दाल गलेगी! इस बुड्ढे ने तो पूरे देश में हलचल पैदा कर रखी है। रहा सवाल आपका तो आप भी नहीं बचोगे।’’ ‘‘सठिया तो नहीं गये करोड़ीमल। क्या तुम्हे नहीं मालूम कि यदि हम खाना जानते हैं, तो पचााना भी जानते हैं। रहा सवाल आप लोगों की सेवा का तो ठााई, वह तो मैं करुगा ही। आखिर मैने आपका नमक जो खाया है। आप ही के पैसे से चुनाव जीता हूं और आप की ही दुआ से पांच साल में करोड़पति भी बन चुका हूं।रहा सवाल जनता का तो वह भेड़ की सिवा कुछ नहीं है। आज वह इस बुड्ढे पर इतरा रही है तो कल कोई ऐसा पाशा फेकेंगे कि सबकुछ भूल जायेगी। वह हमे ही अपना रहनुमा मान लेगी।’’ नेताजी मूछों पर हाथ फेरते हुए कुटिल मुस्कान के साथ चुप हो गए।

‘‘आप हंस रहे हैं, और यहां है कि मेरी जान निकल रही है। मेरे पोते को नौकरी भी दिलवानी है। उसके लिए दस लाख रुपये में बात भी हो गयी है। लेकिन-----।’’

‘‘आप तो नाहक ही परेशान हो रहे हो! सबकुछ ऐसे ही चलता रहेगा। भगवान पर भरोसा रखो वह हमारा कुछ भी नहीं बिकगड़ेगा। हम इतना जो चढ़ावा देते हैं। आखिर उसका तो फल हमें मिलेगा ही। चलो, जल्दी से नहा धो कर पूजा-पाठ कर लो और शाम को अनशन पर बैठना है।’’ नेता जी ने सोफे से उठते हुए कहा।

‘‘अनशन, अरे...बाप..रे..........। यह कैसे हो सकता है? हम लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन कर सकते हैं क्या?। आप पाकल तो नहीं हो गए हो।

‘‘पागल हों हमारे दुश्मन। आपको नहीं मालूम कि हमारे ही लोग आज उनका समर्थन कर रहे हैं। यही नहीं बल्कि जनता भी हमारा ही साथ दे रही है। क्या तुम्हे यह नहीं मालूम कि हमारे नये गांधीवादी नेता ने कहा है- भ्रष्टाचारियों को सजा दिलवाने में जनता के प्रतिनिधि शामिल होंगे। प्रतिनिधि का मतलब शोसल वर्कर। वही शोशल वर्कर जिनमें हमारे बिरादरी के लोगों का भरमार है। ’’ उन्होंने एक बार फिर राम-राम किया और चले गये।

शहर के शहर के मेन चौक पर एक लम्बी चौड़ी दरी पर चमचमाती हुई सफेद चादरें बिछी हुई थीं। किनारे-किनारे ऊंचे ऊंचे मसलन लगे हुए थे। सामने महात्मा गांधी की तस्वीर टंगी थी। उसी के बगल में नये गांधी की भी तस्वीर थी, जो हाथ में तिरंगा लिए अनशन पर बैठे दिखाए गये थे। मंच पर आसीन शहर के सम्मानित और ईमानदार नेता राम भरोसे, सेठ झींगुर लाल, सेठ कुंदन लाल, सेठ करोड़ीमल, सामाजिक कार्यकर्त्ता सेठ भकोले दास, जो सेठ करोड़ीमल के करीबी रिस्तेदार थे, के अलावा कई ईमानदार और जुझारू नेता आसीन थे।

मंच पर खड़ हो कर जनता के इन सेवकों ने हाथ में फूलमाला लिए- भ्रष्टाचार कुर्दाबाद, जन लोकपाल बिल पास हो, जनता को जगाएंगे-भ्रष्टाचार को मिटाएंगे आदि नारों को लगाते हुए बापू की तस्वीर को फूलमालाओं से ढक दिया। जैसे मानो कह रहे हों कि बापू तुम इसी तस्वीर में पड़े रहो, कुछ मत देखो। हम तुम्हारा काम कर ही देंगे। मंच पर उपस्थित लोगों ने एक-दूसरे को माला पहनाया और सिर पर गांधी टोपी लगाए ‘‘रघुपति राघव राजाराम, पतितपावन सीता राम,’’ भजन गाने में मशगूल हो गए।

‘मंच पर आसीन जनता के सेवक सेठ करोड़ीमल, सेठ झींगुलाल, सेठ कुंदनलाल और प्रखर सामाजिक कार्यकर्त्ता सेठ भकोले दास एवं उपस्थित देवतुल्य मेरी प्यारी जनता।’ लोगों का अभिवादन करते हुए नेता रामभरोसे ने अपना भाषण जारी रखा।

‘‘मेरी प्यारी जनता एवं देशवासियों, बड़े दुख की बात है कि आज पूरा देश भ्रष्टाचार में डूब चुका है। भ्रष्टाचार ऐसी छुआछूत की बीमारी है कि जिसको एक बार छू लेती है, उसका जन्म जन्मांतर साथ नहीं छोड़ती। ऐसा नहीं कि पूरा देश भ्रष्ट है, बल्कि इसी देश और समाज में हमारे जैसे ईमानदार लोग भी मौजूद हैं। जो इस बीमारी को खत्म करने का वीड़ा उठा रखे हैं। धन्य हैं आप लोग जिसे सेठ करोड़ीमल ओर सामाजिक कार्यकर्त्ता सेठ भकोले दास जैसा मार्गदर्शक मिला है।’’ मंच पर बैठे लोगों ने तालियां बजाई।इसके साथ ही पूरा सभा तालियों से गूंज उठा।

‘‘मैं वायदा करता हूं कि हम महात्मा गांधी की राह पर चलकर भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने वाले कानून को लागू करवा कर ही दम लेंगे। हम तब तक अन्न ग्रहण नहीं करेंगे, जबतक की हमारे गांधीवादी नेता अपना अनशन नहीं तोड़ते। हम शहर की जनता को साथ लेकर दिल्ली पहुंचेंगे। चाहे इसके लिए मेरी जान ही क्यों न चली जाए।’’ तालियों की गड़गड़ाहट के साथ सेठ करोड़ीमल और नेता रामभरोसे की जयजयकार चारो ओर गूंज उठी।

मंच के चारों ओर मीडिया वालों की जमघट लग गई। नेता रामभरोशे, करोड़ीमल सहित मचासीन लोगों ने अपनी अपनी फोटो खिंचवाने में मस्त रहे। हर कोई उनके इर्द-गिर्द आश लगाए घूमता रहा कि शयद मेरा भी फोटो नेताजी के साथ खिंच जाए।

सेठ कारोड़ीमल ने अपनी धोती के लटक रहे खंूट को पकड़ कर खड़े हुए और एक हाथ से टोपी को ठीक करते हुए माइक के सामने खड़े हो गए।

‘‘मंच पर उपस्थित आदरणीय ईमानदार व कर्मठ नेता राम भरोसे जी एवं मंच पर उपस्थित महानुभावों। मेंर प्यारी जनता!यह कहने की जरूरत नहीं है कि हम लोग यहां पर आखिर किस लिए इकट्ठे हुए हैं। देश की इस दैनीय स्थिति को देख कर हमें बहुत बड़ा आघात पहुंचा है। गांधी के इस देश में इतने भ्रष्टाचारी हों, यह हम सपने में भी नहीं सोच सकते थे। लेकिन यह भी सच्चाई है- एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है। और दोष सभी मछलियों पर लगता है। हम उस नये गांधी के आभारी हैं जिसने हमारी आँखें खोल दी हैं। हम तब तक इस भ्रष्टाचार से लड़ेंगे, जब तक कि हमारे शरीर में एक भी खून का कतरा शेष रहेगा।’’ उन्होंने सिर को नीचे झुकाया और धोती के पिछल्ले छोर को मजबूती के साथ पकड़ कर नैनों से बह रहे अश्रुधारा को पोंछा और अपनी बात जारी रखी। जनता तालियों की गड़गड़ाहट से इस महान नेता का सम्मान करने में पीछे नहीं थी। वह धन्य थी ऐसी महन हस्तियों का साथ पाकर।

‘‘भाइयों!अब कल से हम मोमबत्ती जलाकर मार्च निकालेंगे जिसमे आप सबका सहयोग चाहिए।’’ हम साथ हैं, हम साथ हैं....। एक साथ सैकड़ों हाथ उठ गए।

कहीं भी अनशन हो या मार्च, वह छात्रों का ही क्यों न हो, उसकी अगुवाई सेठ करोड़ीमल और उनके हमससथी नेतृत्व दे रहे थे।

‘‘राम राम करोड़मल भाई। क्या अकेले ही सारी शराब गटक जाओगे या.......।’’रामभरोसे ने बैठका में पहुंचते ही सवाल किया।

‘‘आवो! रामभरोसे, भई आपने तो कमाल कर दिया। पूरा पाशा ही पलट दिया।’’ यह कहते हुए करोड़ीमल हहाक से गले मिले और एक कुर्सी उनकी ओर खिसका दिया। और लोगों ने भी हंसी के ठहाके लगाए।

‘‘देखते जाओ करोड़ीमल, सभी कुछ हमारे ही हक में होगा। मैने कहा था न, जनता भेंड़ है। उसे जिधर चाहो मोड़ दो। बस पीछे मत मुड़ना, अपनी जुबान पर जरा काबू रखना। सभी जगहों पर अपने ही लोग मौजूद हैं। ’’ रामभरोसे शराब की चुश्की लेते हुए जवाब दिया। देर रात तक शराब और कबाब का दौर चलता रहा और शहर के यह प्रतिष्ठ व सम्माननीय लोग नशे में ण्ूमते रहे।

उधर, हर किसी की जुबान पर था कि देश के सामाजिक कार्यकर्त्ता इस आंदोलन में कूद पड़े हैं। अब भ्रष्टाचार खत्म हो जएगा, खत्म हो जएगा।

Sunday, February 13, 2011

फुटपाथ (एक प्रेम कहानी)

Jai Pratap Singh
मै फुटपाथ हूं। शायद आप चलते वक्त मेरे बारे में जानना नहीं चाहते कि मै कब और कैसे पैदा हुआ? लेकिन मै जानता हूूूूं, आपके बारे में वह सबकुछ जिसके बारे में आप सोचते हैं कि किसी को नहीं पता। यहां तक की आपके जूते के नम्बर भी। जूतों की ठोकरों से पैदा हुए दर्द को भी मै बखूबी महसूस करता हूं। उन तमाम भूखे प्यासे बेघर लोगों के दुख दर्द पर दो-चार आँसू भी बहाता हूं, भले वह मूक ही सही। इसके बावजूद मै एक फुटपाथ हूं। और तो और, मै मोहल्लों से लेकर सभी शहरों में मौजूद हूं, चाहे वह छोटा शहर हो या बड़ा। सभी जगहों पर मै निराश्रितों को आश्रय देता हूं और उनका दुख-दर्द बांटता हूं। अब बेसब्री से मै उनका इंतजार कर रहा हूं।
लालिमा लिए सूरज की किरणें जैसे ही पश्चिम में विलीन होतीं, रात्रि की बेला पूरे शहर को अपने आगोश में समेट लेती। अंधेरा होते ही शहर की बत्तियां जल उठतीं और सबकुछ प्राशमय हो जाता। मै यह सोचकर आनन्दविभोर हो उठता कि अब कुछ पल ही सही, मेरा अपनों का साथ होगा।
रात काफी बीत चुकी थी। छोटी-मोटी दुकाने कभी का हटा ली गई थीं। बीरान पड़ा मै पलकपावड़े बिछाए अपने मेहमानों का इंतजार कर रहा था। मेरे मेहमान भी निराले थे। वे भारी-भरकम गाडिय़ों से नहीं आते और न ही बहुत शेरशराबा ही करते थे। कोई टाट लटकाए तो कोई अखबार लेकर आता, धूल-मिट्टी को झाड़ता और उसे मेरे ऊपर बिछाकर लम्बलेट हो जाता। जब वह हाथ से मिट्टी को झाड़ रहा होता तो ऐसे महसूस होता जैसे कि मेरी प्रेमिका मेरे पीठ हाथ फेर रही हो और बालों में उंगलियों को घुमाते हुए कह रही हो कि तुम चिंता मत करो। मै आ गई हूं, अब सभी दु:ख दर्द को बांट लुंगी। उस समय मेरे आँखों से खुशी के दो बूंद आँसू टपक पड़ते। इन थके-हारे मेहनतकशों को आश्रय देने में मुझे काफी शुकून मिलता।
लोग भले ही अलग-अलग जाति धर्म के हों, लेकिन वे मेरे लिए बस फुटपाथी थे। उनके लिए मै स्वर्ग के समान था। इतने बड़े शहर में इन अभागों को जब कहीं आश्रय नहीं मिलाता तो उस समय चेहरे पर मुश्कान लिए दोनों हाथों को फलाकर मै कहता- आओ! निराश्रितों, मेहनतकशों और मेरे प्यारे लाडलों! तुम्हारा स्वागत है। रात होते ही मोटरों के भोंपू बजना बंद हो जाते। इक्के-दुक्के माल ढोने वाले ट्रक रुक-रुक कर भोपू बजाने से बाज नहीं आते। फिर भी दिन भर के चिल्ल-पों से तो कम ही होता। धेरे-धीरे मेहमानों की जमघट लगनी शुरू हो जाती। इसके बाद शुरू होता नोंकझोंक। ''यह मेरा जगह है, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहां आसन जमाने की। फुटपाथ किसी की बपौती नहीं है। मैं यहां एक महीने से सोता चला आ रहा हूं और तुम मेरी जगह पर कब्जा जमाने की फिराक में हो।ÓÓ पहले ने नाक-भौंह सिकोड़ते हुए कहा और दोनों भिड़ गये। नया आदमी वहीं पर खड़े खड़े बड़बड़ाए जा रहा था। 'आज मुझसे देर रात तक काम करवाया है। खाने के लिए पैसा मांगा तो वह खूसट मालिक ने दिहाड़ी का पैसा ही नहीं दिया। उल्टे दो-चार गालियां शौगात में दे दीं। भूख के मारे  पेट में दर्द हो रहा है।ÓÓ ''आ बैठ, रूखा-सूखा तू भी खा ले।ÓÓ पहले ने थैले में से दो रोटियां निकाली और उसकी ओर बढ़ा दिया। दोनों एक साथ बैठ कर भूखे भेडि़ए की तरह रोटी पर टूट पड़े। यह सब देखकर मुझे कोई ताज्जुब नहीं हुआ। उल्टे मुझे हंसी आ गई।
यह कोई एक दिन की घटना नहीं थी बल्कि रोज-ब-रोज लोग आपस में लड़ते-झगड़ते और कुछ ही समय बाद एक-दूसरे से अपने दु:ख-दर्द को बांटते हुए घंटों चर्चा करते और बीड़ी सुलगाकर धूएं का गुबार छोड़ते। दिन भर की थकान के बाद जब ठंडी-ठंडी पछुआ हवा बहनी शुरू होती तो उन्हें स्वर्ग जैसी अनुभूति होती। कुछ ही देर बाद आपस में हो रही वार्तालाप और लड़ाई-झगड़ा और खर्राटों में बदल जाती। उनकी चिल्लपों और खर्राटों से मुझे काफी शुकून मिलता। मुझे इनसे कोई शिकवा शिकायत नहीं थी। अगर थी तो मेरे ऊपर दिन भर खड़े वाहनों से, जो बेजान-सी पड़ी रहतीं ओर जिनके बोझ तले पूरा दिन मै दबा रहता।
बीरान हो जाने के बाद मुझे तबतक चैन नहीं मिलता जब तक कि मेरे मेहमान नहीं आ जाते। उसमें से अगर किसी दिन कोई नहीं दिखता तो काफी देर तक मै किसी खतरे की आशंका से सोच में पड़ जाता। ऐसा तबतक होता जब तक कि देर रात या दूसरे दिन वह दिखाई नहीं दे जाता। उनके आते ही मै पार्किंग में खड़े वाहनों के बोझ तले दबे रहने के बावजूद काफी खुश रहता और मन ही मन लोरी गा-गाकर उन्हें सुलाता और खुद जागता रहता।
उस समय मै गुस्से से तमतमा उठता जब डंडा फटकारते हुए कोई सिपाही आता और एक-एक के ऊपर डंडा बजाता, दो-चार गालियां देता और जो कुछ भी जेब में होता, उसे लेकर चल देता। उस समय सिपाही ऐसे अकड़ कर चलता जैसे कि मानों यह उसका अधिकार है। सिपाही को देखते ही सारे लोग आतंकित हो जाते और टकटकी लगाए मुझे देखते रहते। जैसे कि मानों कह रहे हों- मेरे आश्रयदाता! काश, तुम इस महाकाल से भी मुझे बचा सकते। मुझसे यह सब देखा नहीं जाता। खून का घूंट पीकर बेजान मिट्टी की तरह पड़ा रहता और उनपर ढाए जा रहे अत्याचार को मूक बन कर देखता रहता।
सिपाही के वापस जाने के देर रात तक उनकी दर्दनाक कराहने और सुबक-सुबक कर रोने की आवाज सुनता और अपने आप पर गुस्सा करता। मै इनको आश्रय दे सकता हूं तो इनकी हिफाजत भी करनी चाहिए। लेकिन मै ऐसा नहीं कर पाता। आखिर क्यों? मै इसी उधेड़बुन में पूरी रात लगा रहता।
सूरज की किरणों के बिखरने के साथ ही लोग अपने फटे-पुराने चीथड़ों को उठाते, धूल झाड़ते और चल देते। मै उन्हे जाते हुए देखता रहता और उन्हें रोकने का प्रयास करता। लेकिन अपने में खोए चले जाते। एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखते। मै एकटक अपने मेहमानों को जाते हुए देखता रहता। फिर शुरू होता भारी भरकम वाहनों के पहियों का बोझ और जूतों की ठोकरों से पैदा हुआ दर्द। इसके बावजूद मै खुशी-खुशी यह सब वर्दाश्त कर लेता, क्योंकि दिन ढलते ही दुनियाभर का दर्द झेल रहे अपने जैसों का साथ होगा। उनको आश्रय दुंगा और मूक ही सही अपना दु:ख-दर्द बयां करुंगा। 
                - जय प्रताप सिंह
            मोबाइल- 9005919184

Tuesday, February 8, 2011

जुलूस

          वह एक मजदूर था। कारखाने में छपाई का काम करता था। काम करने के बीच उसे जब थोड़ा समय मिलता तो वह मजदूरों के जीवन के बारे में ढेर सारी बातें करता  और फिर शांत हो जाता। अगर कुछ शेष बचता तो धुआं छोड़ती मशीनों की गडग़ड़ाहट और छोटे-छोटे अक्षरों में निकले कागजों के बंडल। मशीन के बंद होते ही उसकी तंद्रा टूट जाती और दो-चार देशी गाली देते हुए जेब से तम्बाकू निकाल कर हाथ में मेठता और दो-चार ताल दे कर होंठों के बीच दबा लेता। इसके बाद थुकों का गुबार बनाता और आसपास नजर दौड़ाकर थूक देता। मशीन के एकाएक बंद हो जाने पर उसके एक-एक पुर्जे को खोलता और फंसे हुए कागज को निकाल कर नट बोल्ट कस देता। हाथ और चेहरे पर पुते कालिख को तेल में सने कपड़े से साफ करने का अशफल प्रयास करता और छपाई करने में तल्लीन हो जाता।
उसका पूरा नाम चिंतामणि था, लेकिन उसके मजदूर साथी उसे चिंता कहकर ही पुकारते थे। वह लम्बे कद और दुबला पतला तीस साल का नौजवान था। लेकिन हाड़तोड़ मेहनत और रूखा-सूखा खाने की वजह से कोई भी उसकी उम्र को चालीस साल से कम नहीं आंकता। उसके चेहरे पर असमय ही झुॢरयां पड़ गई थीं। गड्ढों में से झांकती हुई उसकी छोटी-छोटी आंखों में काफी तेज था। वह इतना नम्र स्वभाव का था कि हर किसी पर विश्वास कर लेता। उसने कई सालों से नोएडा शहर की झुग्गी बस्ती में जोड़ जुगाड़ से एक छोटी सी कोठरी बना रखी थी। वह इसी सीलनभरे बदबूदार झुग्गी में रहता था, जहां पर चौबिसों घंटे अंधेरा था। उस कमरे में तंबाकू और मशीन के तेल की भीनी-भीनी गंध मौजूद थी। उस झुग्गी बस्ती में हजारों छोटी-छोटी झुग्गियां थीं जिसकी हालात कमोबेश एक जैसी ही थी। कोठरी छह फुट लंबा और चार फुट चौड़ी थी। कोठरी में लकड़ी का एक तखत पड़ा था और उसके ऊपर धूल में लिपटे चिथड़े पड़े थे। इन्ही चीथड़ों को शरीर में लपेटता और सो जाता। उसी में खाने का सामान भी रखता था, जिसे दो-चार लकडिय़ां सुलगा कर रूखा-सूखा बनाता और अपनी छुधा को शांत कर लेता। कोठरी के पास से ही एक नाली बहती थी। इसी नाली में लोग बाग  ''मूदहुं आंख कतहुं कछु नाहींÓÓ वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए पेशाब कर लिया करते थे। उनके लिए इससे बेहतर और कोई जगह थी नहीं। वहीं पर दो ईंट ऊंचा करके एक संडास घर बना था। उसमें फाटक की जगह एक फटा-चिटा प्टास्टिक का बोरा लटका दिया गया था जिसमे बाहर से सबकुछ साफ दिखता था। यही कारण था कि मिली-जुली एक विशेष प्रकार की गंध पूरी झुग्गी में मौजूद थी।
रुक-रुक कर बिजली कड़क रही थी। न मालूम कब से काले काले डरावने बादल जमे हुए थे। उसी अंधेरी काली रात में बिहारी लाल आत्माराम के साथ आ धमके थे। आत्माराम को देख कर चिंता अपने दिमाग पर जोर डाल कर कुछ याद कर रहा था। आत्माराम ने आगे बढ़कर उससे हाथ मिलाया और बिना किसी संकोच के तखत पर पड़े चिथड़ों को फैला कर बैठ गया। चिंता कुछ बोल पाता कि तभी बिहारी लाल ने कहा- मै तुमसे मिलने ही आ रहा था कि रास्ते में यह भी मिल गए। मैने सोचा! चलो तुमसे ही मिलवा दूं।
आत्माराम दुबले पतले चौबीस साल के नौजवान थे। उनके  चेहरे से तेज टपक रहा था। तखत पर बैठते ही उन्होंने एक गिलास पानी मांगी और एक ही सांस में गटक लिया। उन्होंने गड्ढों में से झांकती हुई अपनी पैनी नजरों से कोठरी का मुआयना करते हुए गम्भीर स्वर में कहा- क्या हमारी जिंदगी गुलामों से बदतर नहीं है? हम दूसरों के लिए आलीशान मकान बनाते हैं, उनके खाने पीने के सामानों का उत्पादन करते हैं और खुद नरक जैसी जिंदगी व्यतीत करते हैं। आखिर कब तक हम इस तरह की जिंदगी जीते रहेंगे? कब सोचेंगे हम अपने बारे में? हमारी यह टाट बोरे से बनाई गई टूटी-फूटी झुग्गियां भी सरकार को फूटी आंखों नहीं सुहा रही हैं। सरकार ने इसे एक ही झटके में बुलडोजरों के हवाले कर देने का मन बना  चुकी है। रौंद डालना चाहती है, हमे और हमारे अरमानों को। यह अंतिम वाक्य चिंता को ऐसे लगा जैसे उसके सिर पर  मनभर  का हथौड़ा चला हो। वह चौंक कर उन्हें देखने लगा। वह डर गया। क्योंकि बहुत दिनों बाद किसी ने उसकी दुाखती रग पर हाथ रखा था। आत्माराम ने आगे कहा- हमारे सामने अब एक ही रास्ता है। हम सबको संगठित हो कर आंदोलन करना चाहिए। संघर्ष से ही हमे मुक्ति मिल सकती है। हमे एक पर्चा छाप कर झुग्गी बस्ती में बांटना चाहिए। हमे यह ध्यान रखना होगा कि कहीं यह आंदोलन गलत होथों में न पड़ जाए। आत्माराम ने एक घूंट पानी पी और बात को जारी रखा। चिंता ने आत्माराम के चेहरे पर ऐसी चमक देखी मानों अंधेरे को चीर कर चंद्रमा का प्रकाश चारो ओर फैल गया हो।
चिंता को दूर कहीं एक चिनगारी दिखई दे रही थी। उसे अब अपमान भरी जिंदगी से नफरत होने लगी। उसके अंदर मुक्ति के लिए छटपटाहट पैदा हो गई। वह बहुत ही जल्द सबकुछ बदल देना चाहता था। लेकिन उससे पहले इस झुग्गी को बचाना उसके लिए जीवन मरण का सवाल था। वह मुंह अंधेरे उठकर दातून-कुल्ला करके आत्ममराम के दिए हुए पर्चे को लेकर अपने जैसों से बातें करता। वह एक ऐसा आंदोलन खड़ा करना चाहता था जिससे पूरा प्रशासन हिल उठे और खून पसीने से बनी उसकी झुग्गियां बच जाएं। वह आत्माराम का क्रितज्ञ था।
सभा होने के दूसरे दिन वह अपनी खबर छपने की उम्मीद से अखबार के पन्ने पलटता रहता, लेकिन कहीं भी कोई खबर दिखाई नहीं देती। उसे यह देखकर बड़ा ताज्जुब होता कि बिहारी लाल जब कोई सभा करता है तो उसकी खबर ही नहीं बल्कि फोटो भी छपता था। लेकिन आत्माराम का तो कहीं नामोनिशान नहीं। उसे यह सब देखकर बड़ा दुख होता, क्योंकि आत्माराम उसके आदर्श बन चुके थे। उसके सामने आत्माराम का वह चेहरा घूम जाता जब वह झुग्गियों के बाहर लकड़ी के टूटे-फूटे कुर्सी पर खड़ा हो कर दिल को भेद देने वाले भाषण देते। उनके एक-एक शब्दों से अपनापन की गंध आती।
वह किसी भी काम के लिए कारखाना से छट्टी ले लेता और उन नौजवानों के साथ पर्चा बांटने में मदद करता। वह यह सोचता था कि क्रांति के लिए उसकी बेकार जिंदगी का सही जगह इस्तेमाल हो रहा है। वह बिहारी लाल के भी सभाओं में जाना बंद नहीं किया था, क्योंकि वे तो उसके पास के ही थे। उसे बिहारी लाल से भी काफी उम्मीद थी। 
सूरज की किरणें अभी पूरी तरह से विखर भी नहीं पाई थीं कि झुग्गी के चारो ओर बच्चे, बूढ़े और नौजवान नारा लगाते हुए घूम रहे थे। कुछ तो माथे पर लाल रंग की पट्टियां बांधे ऐसे चल रहे जैसे की युद्ध के मैदान में हों। वह किसी दल के नहीं थे बल्कि उन्होंने स्वयं ही अपनी यह हुलिया बना रखी थी। वह मरने और मारने पर उतारू थे। रास्ते में जो भी साइकिल या रिक्शा चलाते मिल जाता उनके पहियों का छुच्छी खोलते और फेंक देते। सड़कों पर लकड़ी का कुंदा रख कर जाम कर दिया गया था। यदि कुछ था तो सायरन बजाती हुई पुलिस की गाड़ी। लगभग पूरा शहर पुलिस छावनी में तब्दील था। महिलाएं भी कम नहीं थीं। वे हाथों में झाड़ू-डंडा लिए घर से अन्य औरतों को हाथ पकड़कर खींचतीं और जुलूस में निकल पड़तीं। आत्माराम अपने गिने-चुने साथियों के साथ झुग्गियों में लोगों के हाथों में पर्चा थमाता, तेज तर्रार भाषण देता और जुलूस में चलने के लिए उत्साहित करता। वह कागज पर लाल-लाल रंग से लिखे नारों ''झ़ग्गी-झोपड़ी जिंदाबाद, हम अपना हक लेकर रहेंगेÓÓ का ऐप्रिन अपने शरीर पर पहन रखा था।
सूरज की गर्म-गर्म किरणें शहर को अपने आगोश में ले चुकी थीं। बिहिारी लाल चमचमाता हुआ कुर्ता और जैकेट पहने खुले जीप में बैठा हुआ था। जीप के आगे पीछे दो माइक बंधे हुए थे। वह उत्तेजित भाषण दे रहा था। उसकी आवाज में तलवार की धार की तेजी थी। जैसे ही वह रुकता तालियों की गडग़ड़ाहट और हजारों कंठों से नारे गूंज उठते थे। वह खुशी के मारे फूले नहीं समा रहा था। वह अपने आपको दुनिया का सबसे महान नेता मान बैठा था। शायद इसीलिए उसके चाल में अकड़ भी पैदा हो गयी थी। उसके आंखों के सामने प्रधानमंत्री की कुर्सी के सिवा शायद कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। इन भूखे-नंगों हजारों कंठों से निकले कर्णभेदी नारों से अपार्टमेंटों और कालोनियों की खिड़कियां खुल गई थीं। इन खिड़कियों से एक नहीं कई कई आंाखें हजारों के जनसमूह को देखकर आतंकित हो रही थीं। हर किसी के मुंह से एक ही बात निकलती- आगे क्या होगा? क्या होगा?
चिंता इतना उत्साहित था कि वह बाकी का सबकुछ भूल ही गया। वह भी बिहारी लाल के साथ खड़ा होकर दो-चार बातें कहना चाह रहा था। लेकिन बिहारी लाल के ठाट को देखकर उसका हिम्मत छूट गया। वह आगे बढ़ ही रहा था कि उनके आदमियों ने उसे परे धकेल दिया। अब उसे आत्माराम का वह चेहरा जिसमें वह अपने आपको देख रहा था, उसके आंखों के सामने नाचने लगा। वह उन्हें मंच पर देखना चाहता था। उसकी आंखें हजारों लोगों के बीच आत्माराम को खोज रही थीं। उसे दूर कहीं नारों की आवाज सुनाई दी जहां पर आत्माराम हाथ में तख्ती लिए खड़ा बिहारी लाल को देख रहा था। वह उसके पास पहुंचने ही वाला था कि तभी जुलूस आगे बढ़ गया।
गरमी से पूरा शरीर जल रहा था। लोग बाग माथे से पसीना पोछ रहे थे। कोई अंगोछे को निकाल कर हवा करता तो कोई चेहरे को ढकने का अशफल प्रयास करता। नोएडा प्राधिकरण को चारो ओर से झुग्गीवासी चिल्लाचिल्ला कर नारे लगा रहे थे। खुली जीप एक पेड़ के छाये में रुक गई। जुलूस धीरे-धीरे सभास्थल में तब्दील हो गया। मंच पर बिहारी लाल ने अपने बड़े नेता रघुबीर सिंह को हाथ पडकर खड़ा किया और उनके जयजयकार के नारे लगवाए।
प्राधिकरण कार्यालय जयकारे के नारे से गूंज उठा। रघुबीर सिंह मोटे और थुलथुल व्यक्ति थे। उनका तोंद इतना भरी था कि वह शरीर से निकल भागने को बेताब था। इसलिए उनको मंच पर खड़ा करने में बिहारी को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। उसने अपनी मोटी आवाज में कहा- हमारी झुग्गियों पर जो कोई भी आंख उठाकर देखा तो मै उसकी आंखें निकाल लुंगा। झुग्गियों को भले ही हटा दिया जाए लेकिन हमे अलग से प्लाट मिलना चाहिए। हमारे झुग्गीवासी उसी में अपना गुजारा कर लेंगे।
इस बात से चिंता को बड़ा धक्का लगा। क्योंकि उसे पहले से मालूम था कि प्लाट लेने के लिए राशन कार्ड और तमाम कागजातों की जरूरत पड़ती है, जिसे शायद ही कोई झुग्गीवासी उपलब्ध करा पाए। उसने याद करने की कोशिश की जिससे उसके माथे पर बल पड़ गया। ''आच्छा तो यह बात है। उस कुछ दिन पहले ही बिहारी लाल ने पहले झुग्गियों को बचाने के लिए लाखों रुपये का चंदा वसूला था। फिर राशन कार्ड और अन्य कागजात बनवाने के लिए एक-एक हजार रुपये की और मांग की थी। जिसका कोई नतीजा नहीं निकला। अब फिर वही सबकुछ करने के फिराक में हैं।ÓÓ उसने बिहारी लाल का मुस्कुराता हुआ चेहरा देखा और फिर रघुबीर सिंह को। उसको मतली आने लगी और बगल में थूक दिया।  वह जोर-जोर से चिल्लाना चाह रहा था कि भीड़ में गुमसुम खड़े आत्माराम दिख गये।
वह उनके पास पहुंचा और खींचते हुए मंच के पास ले गया। वह आत्माराम को मंच पर देखना चाहता था। मंच की ओर आते देख बिहारी लाल के इसारे पर चार-पांच मुस्टंडों ने दोनों को ऐसा धक्का दिया कि वे गिरते-गिरते बचे। चिंता हक्का-बक्का बिहारी को देखता रहा। उसे सबकुछ समझने में देन नहीं लगी।
धीरे-धीरे नारों की आवाज खत्म होती गई। वहां पर अगर कुछ बची थी तो गर्मी से बेहाल बच्चों के राने की आवाज। उसे जोर की प्यास लगी थी। वह पानी पीकर अपने आपको ढंडा करना चाह रहा था। पानी के नल तो थे नहीं जिससे उसकी प्यास बुझती। इसके बाद वहां क्या हुआ? किसी को कुछ पता नहीं। सभास्थल पर जीप खाली पड़ी थी। नेतागंण कार्यालय के अंदर अधिकारियों से गुप्तगू कर रहे थे।
सभास्थल खाली हो चुका था। सूरज अपनी लालिमा के साथ पश्चिम में विलीन हो रहा था। सड़कों पर भोपू बजाते वाहन भगे जा रहे थे। अंधेरे ने प्राकाश पर विजय पा लिया और पूरे शहर को अपने आगोश में समेट लिया। चिंता झुग्गी में पहुंचते ही तखत पर चिथड़े को उठाए बिना ही औंधे मुंह लेट गया। उसके दिमाग में अजीब अजीब विचार आने लगे। वह सोचता रहा कि आखिर सत्य क्या है? सत्य क्या है? क्या यह समाज बिहारीलाल और रघुबीर सिंह जैसे लोगों से भरा पड़ा है या कोई और? वह काफी देर तक इसी उधेड़बुन में लगा रहा।
वह अब किसी से बात नहीं करता। सुबह कारखाने जाता और देर रात को अपनी कोठरी में बैठ कर गांजा का कश खींचता। ''नहीं! इस दुनिया में अच्छें लोग भी होंगे।ÓÓ वह पागलों की तरह बड़बडा रहा था उसके सामने आत्माराम का चेहरा आइने की तरह साफ दिख रहा था। वह बहुत ही जल्द आत्माराम से मिलना चाह रहा था। करवट बदलते-बदलते उसे नींद आ गई। वह जब जागा तो अंधेरा कबका छंट चुका था। और सूरज की किरणें चारो ओर फैल चुकी थीं।

Monday, September 20, 2010

एक होमगार्ड की कहानी उसी की जुबानी

देश में बेरोजगारी और महंगाई इस कदर बढ़ रही है कि लोगों का जीना दुश्वार हो गया है।  पढ़े-लिखे नौजवान नौकरी के लिये मारे-मारे फिर रहे हैं और हमारी सरकार है कि आतंकवाद का माला जपने में मशगूल है। जब भ्रष्टïाचार और महंगाई के विरोध में जनता के अंदर आक्रोश के बीज अंकुरित होना शुरू होते हैं तो यह सरकारें उनके आक्रोश पर पानी छिड़कने के लिए आतंकवाद और मंदिर, मस्जिद का सवाल पैदा कर देती हैं, जिससे लोगों का ध्यान बंट जाए और हमारे नेता अपनी तिजोरियां भरें। ज्यादातर गरीबों-मजदूरों के पढ़े-लिखे बेटे दस-बीस हजार रुपये घूस दे कर होमगार्ड्स की नौकरी कर लेते हैं क्योंकि अन्य नौकरी के लिए उन्हें दो से तीन लाख रुपये तक घूस देने पड़ते हैं। जिसके बारे में वे सपने में भी नहीं सोच सकते। लेकिन वहां पर भी उन्हें मात्र दिहाड़ी मजदूर की तरह रखा जाता है। जो संबंधित अधिकारी का आवभगत करे, उसे साल भर में लगभग छह माह की ड्यूटी मिल जाती है, लेकिन जो हाड़तोड़ मेहनत करे उसे साल में दो माह ड्यूटी मिल जाए वही बहुत है। उन्हें इस तरह से तबाह कर दिया जाता है कि वे कहीं के नहीं रहते। उन्हें चैन से जीने तक भी नहीं दिया जाता है।  
वैसे भी सरकारी नियमानुसार प्रत्येक होमगाडर््स को ड्यूटी सेक्टर के अनुसार लगभग छह महीने दिया जाता है। बाकी का वे छह महीने फांके मारें। इसके बावजूद संबंधित अधिकारी बी.ओ. दो सौ से लेकर पांच सौ रुपये तक घूस लेकर उनकी ड्यूटी लगाते हैं। जो पैसा न दे उसे घर पर बैठना पड़ता है। कभी-कभी तो संबंधित अधिकारी उनके साथ इस तरह पेश आते हैं कि उनकी जिंदगी नरक बन जाती है।  इन अधिकारियों द्वारा होमगार्डों का जबरदस्त शोषण किया जाता है। उन्हें अपने खून-पसीने की कमाई का लगभग आधा हिस्सा बी.ओ. को ही दे देना पड़ता है। ड्यूटी तो ली जाती है एक सिपाही से ज्यादा, लेकिन मजदूरी एक दिहाड़ी मजदूर के बराबर भी नहीं। जो मिलता भी है, उसमें से अधिकारी का हिस्सा भी देना पड़ता है।
उत्तर प्रदेश स्थित सिद्धार्थनगर जिले के लोटन ब्लाक के गांव धंधरा के रहने वाले शिवकुमार और पास के गांव के हरिनारायण सिंह बताते हैं कि ड्यूटी लगाने के बाद प्रत्येक होमगार्ड्स से गोपनीय तरीके से अधिकारी बी.ओ. रिश्वत का पैसा वसूलते हैं। जो नहीं देता उसे ड्यूटी, परेड और विभागीय कमी बताकर परेशान किया जाता है। संबंधित अधिकारियों से शिकायत करने पर बी.ओ. से घूस लेकर उसे बचा लिया जाता है और शिकायत करने वाले होमगार्ड की छह-छह माह तक ड्यूटी ही नहीं लगाई जाती है। दोबारा इंट्री करने के लिए मेहनत की कमाई का एक हिस्सा प्रति माह अधिकारी को देना पड़ता है। 
इसी तरह सिद्धार्थनगर जिले में उस्का ब्लाक कम्पनी कमान होमगार्ड्स के बी.ओ. सरविंद सरोज द्वारा होमगार्डों से खुलेआम लिए जा रहे घूस और उसके अत्याचार से पीडि़त होमगार्ड की व्यथा को उसी की जुबानी में पेश कर रहे हैं।
मैं उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिले के धंधरा गांव का रहने वाला हूं। उस्का बाजार, विकास क्षेत्र में होमगार्ड कंपनी में अवैतनिक रूप में नौकरी कर रहा हूं। हमारे उस्का बाजार के वर्तमान बी.ओ. सरविंद सरोज ने ड्यूटी लगाने के नाम पर हमसे 400 रुपये रिश्वत लेता है। मैंने जब इसकी शिकायत उच्चाधिकारियों से की तो उसने मुझे धमकी दी और कहीं भी ड्यूटी पर नहीं लगाया। बी.ओ. ने ऊपर से यह आरोप लगाया कि ट्रेनिंग पर नहीं गये जबकि उसके संबंध में कोई लिखित सूचना हमें नहीं दी गई। मुझसे 500 रुपये बैंक समरी एकाउंट गलत होने पर उसे ठीक करवाने के लिए बी.ओ. सरविन्द सरोज ने खुद  लिया। ड्यूटी लगाने के लिए मेरे अन्य साथियों से जब रिश्वत की मांग की तो उन्होंने मना कर दिया। इस पर बी.ओ. ने हम लोगों की ड्यूटी नहीं लगाई। इसकी शिकायत करने पर पिछले दस माहीने से हम लोगों को ड्यूटी पर नहीं लगाया गया, जिससे हमारा परिवार भूखों मरने की कगार पर है। जो लोग बिना शिकायत किये बी.ओ. साहब को पैसा दे रहे हैं, उनको ड्यूटी पर बराबर लगाया जाता है। इसी प्रकार दूसरे होमगार्ड हरिनारायन सिंह से लड़की की शादी में छुट्टïी देने के नाम पर बी.ओ. साहब ने 2100 रुपये ले लिया। इसके साथ ही उन्होंने धमकी देते हुए कहा कि यदि किसी से शिकायत करोगेे तो नौकरी से निकाल देंगे। हम लोग मामले की शिकायत जिले के डीएम और मंडल स्तर के प्रभारी अधिकारी से किया। मंडल स्तर के अधिकारी द्वारा 13 अगस्त 2010 को उस्का बाजार डाक बंगले पर हम लोगों से साक्ष्य सबूत की मांग की गयी। जिसे हम लोगों ने बी.ओ. द्वारा किये गये वार्तालाप और रिश्वत की मांग का रिकार्ड किया हुआ कैसेट भी दे दिया। होमगार्ड रणजीत, उमेश, राधेश्याम, जमुना आदि का बयान भी लिया गया। जिन लोगों से बी.ओ. सरविन्द सरोज ने ड्यूटी लगवाने के नाम पर रिश्वत ली थी, उस मामले में आज तक मंडल स्तर के अधिकारियों ने कोई भी कार्रवाई नहीं की। बी.ओ. सरोज अभी भी पैसा लेकर होगाडर््स को ड्यूटी देते हैं। शिकायत करने पर हम लोगों को ड्यूटी देना भी बंद कर दिए हैं। यह भ्रष्टïाचार और अनैतिकता कि हद है। हम लोगों ने उच्च अधिकारियों से मांग की है कि इस मामले की उच्चस्तरीय जांच हो और दोषी अधिकारी के विरूद्ध कानूनी कार्रवाई किया जाए। क्योंकि इस समय ड्यूटी न लगने से मैं और मेरे साथी भूखमरी के कगार पर पहुंच चुके हैं। यहां तक कि हम अपने बच्चों के पढ़ाई का फीस भी नहीं दे पा रहे हैं।
इस मामले की शिकायत हम लोगों ने लिखित रूप से मुख्यमंत्री मायावती, मुख्य सचिव लखनऊ, तथा मंडल होमगाडर््स प्राधिकारी गोरखपुर को भेज चुके हैं। इसके बावजूद मेरी शिकायत नहीं सुनी जा रही है। अब हम यह मान चुके हैं कि देश का यह पूरा तंत्र ही भ्रष्टï हो चुका है।

Sunday, September 5, 2010

प्रिय उकाब के पाठक बंधुओं,

किन्हीं कारणों से आज से लगभग दस दिनों तक इस बलाग पर कोई पोस्ट प्रकाशित करने में असमर्थ हूं। दस दिन बाद से पुन: खबरें प्रकाशित होंगी, जो निरंतर जारी रहेंगी।

Monday, August 30, 2010

इंसान बने हैवान

माया
हमारे समाज में जातिगत अपमान और उत्पीडऩ जैसे कई कुकर्म किए जाते हैं। देश आजाद होने के बाद दलितों को आज भी सामंती सोच रखने वालों के अधीन रहना पड़ता है। यदि कोई यह समझता है कि अछूत एक जमाने पहले की बात है तो यह गलत है। आज भी हरियाणा के हिसार जिले के मिर्चपुर गांव में ऐसा ही होता है। जहां पर वाल्मीकि समुदाय के घर के साथ-साथ उसमें रहने वाले लोगों को भी जला दिया जाता है। जिन लोगों ने अपना गुजारा करने के लिए उन घरों को अपना खून पसीना एक करके बनाते हैं, उसे उन्हीं के सामने जला कर राख कर दिया जाता है। उनकी जिंदगी भर की मेहनत को चंद समय में ही मिट्टी में मिला दिया जाता है।
यह लोग परम्परावादी पेशे को छोड़कर अपनी मेहनत से गुजारा कर रहे थे और अपने बच्चों को स्कूल भेजने का सपना अपनी आंखों में संजोये हुए थे। मेहनत मजदूरी करने के लिए अपने घरों में पशुओं, पाक्षियों को पालने लगे थे। इनके रहन-सहन को देखकर जाट समुदाय के लोगा सहन कर पाने में असमर्थ थे। उन्हें लग रहा था कि उनके कदम डगमगा रहे हैं। इसलिए उनके लिए इसे सहन करना असंभव था। जब उन्होंने आने-जाने वाले रास्ते में एक वाल्मीकि कर्ण सिंह के बेटे दिलबाग को एक कुत्ते को बड़े प्यार से नहलाते हुए देखा तो रास्ते से जा रहे जाट समुदाय के कुछ लोगों ने कहा कि हर रोज सुबह शाम इसी गली से गुजरना पड़ता है। जोकि नशे में धुत्त थे और ऐसा कहते हुए उन्होंने कुत्ते को लात मारी। इस बात से दिलबाग और उसके पिता ने उनका विरोध किया। इस बहस को सुनकर वहां पर और लोग भी आ गए। जाटों ने कहा कि तुम्हें भी इसी तरह मार देंगे जिस तरह कुत्ते को मैंने मारा है। इस बात से उन्हें गुस्सा आ गया और नौबत हाथापाई तक पहुंच गई। तभी कुछ लोगों ने झगड़े को सुलझाया। उसके बाद वाल्मीकि समुदाय के लोगों ने आपस में बातचीत की। बातचीत के दौरान पता चला कि उन जाटों के समूह में गांव का जमाई भी था, जिससे गलती से झगड़ा हो गया। गांव में आज भी यह परंपरा मानी जाती है कि किसी भी जात-बिरादरी का जमाई पूरे गांव का जमाई होता है। वीरभान ने गांव को शांति बनाए रखने के लिए कहा कि हमें उन लोगों से माफी मांग लेनी चाहिए। विचार-विमर्श करने के तुरंत बाद कर्ण और बीरभान दोनों ही माफी मांगने के लिए उनके घर चल पड़े। लेकिन जाटों के घर पहुंचने से पहले ही उन दोनों के ऊपर लाठियों से वार किया गया, जिससे दोनों को काफी चोटें आई थीं और उन्हें अस्पताल ले जाया गया। डाक्टर ने उन्हें छ: टांके लगाए। अस्पताल में उनका इलाज चल ही रहा था कि उन्हें फोन पर सूचना मिली कि जाट समुदाय के लोग अभी भी झगड़ा करने को तैयार हैं। सूचना मिलते ही वीरभान और कर्ण दोनों सीधे पुलिस चौकी पहुंच कर चौकी इचार्ज विनोद काजल को घटना की जानकारी दी। उसने कहा कि क्यूं थारे घर जला दिये जो इस तरह बात कर रहे हो। चौकी इचार्ज ने छूटते ही कहा। उसके बाद उन्होंने पुलिस दस्ते को लेकर गांव में आ धमके। जब गांव में कोई नहीं दिखा तो पुलिस वालों ने वीरभान को खूब धमकाते हुए कहा कि तुमने तो कहा था कि जाट समुदाय वाल्मीकियों पर हमला करने वाले हैं। लेकिन यहां तो कुछ भी नहीं हो रहा है।
21 अप्रैल 2010 को विनोद काजल वाल्मीकि बस्ती में वीरभान और कर्ण से मिलकर कहा कि इस मामले को पंचायत ही सुलझाएगी। वाल्मीकि समुदाय ने पंचायत में जाने को तैयार हो गये, क्योंकि वह सब शांति चाहते थे। वाल्मीकि बस्ती के सारे पुरुष पंचायत में पहुंच गये। घर में केवल महिलाएं और बच्चे ही रह गये थे। जाट समुदाय पहले से ही तैयारी में थे कि कब यह लोग बाहर जाएं और वे घटना को अंजाम दें। पंचायत में अभी लोग पहुंचे ही थे कि उधर वाल्मीकि बस्ती में जाट समुदाय ने आग लगा दी। कुछ घरों का सामान भी लूट लिया।

चंद्रभान की पत्नी फूलकली ने बताया कि हमारे घर में अगले महीने लड़की की शादी थी। घर में दहेज का सामान भी रखा हुआ था। सारा सामान लूट लिया। मेरी बहू के सामने अपने कपड़े उतार कर खड़े हो गये। मैंने उसे चौबारे में ऊपर भेज दिया और उन्होंने फिर भी उसका पीछा किया। वह एक कमरे में घुस कर अंदर से दरवाजा बंद कर ली, लेकिन जाटों के लड़कों ने उस कमरे में जलती हुई लकड़ी खिड़की से अंदर फेंक दी। कमरे में रखा सामान धू-धू कर जलने लगा। बहू किसी तरह जान बचाकर बाहर भागी। गांव के कई लोगों ने पुलिस के पास गये और उनसे काफी मिन्नतें कीं, लेकिन पुलिस वालों ने हमारी कोई भी मदद नहीं की। उस जलती हुई आग को देखकर छोटे-छोटे बच्चे कांप रहे थे। फिर भी पुलिस वालों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। खून-पसीने एक करके बनाए गये घर को हमारी आंखों के सामने जाटों ने जला कर राख कर दिया। उन लोगों ने हैवानियत का सीमा पार करते हुए एक लड़की को जिंदा जला दिया और हम लोग देखते रहे।

सुमन जिसकी उम्र लगभग 18-19 साल की थी, जो बारहवीं पास थी। वह घर के अंदर पहिए वाली कुर्सी में बैठ कर किताब पढ़ रही थी। उसके घर के चारों तरफ लोगों ने आग लगा दी और बाहर से गेट की कुंडी चढ़ा दी, जिससे वह बाहर न निकल सके। सुमन को घर में आग लगाकर सबों ने मार डाला। सुमन के पिता तारा सिंह की उम्र 55 साल थी। उन्होंने अपनी बेटी को बचाने का प्रयास किया जिसमें वह भी जल गया। बेटी को नहीं बचा सका। वह उसकी चीख को सुनता रहा और खुद को आग में जलाता रहा। जिन लोगों ने इस घटना को अंजाम दिया उनको तो लोगों की चीखें सुनकर मजा आ रहा था, लेकिन जिनकी आंखों के सामने अपनी बेटी, बहू और बच्चे जल रहे थे, उन पर क्या बीत रही होगी इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यह घटना मात्र एक मिर्चपुर की ही नहीं है, बल्कि कमोबेस पूरे देश में ऐसी घटनाएं लगातार हो रही हैं। प्रसाशन पर इसका कोई फर्क नहीं पडऩे वाला है। उसे मात्र चंद पैसों का मुआवजा देकर अपना पल्ला झाड़ लेना है। गरीबों की उन्हें क्या परवाह वह तो उनकी नजरों में कीड़-मकोड़े हैं।
अब सवाल यह उठता है कि क्या हम ऐसे ही इन घटनाओं को देखते रहेंगे? आखिर हम कबतक अपने लोगों से ही लड़ते रहेंगे? जबकि इन सबका असली दुश्मन कोई और है, जिसके बारे में हम सबकुछ जानते हुए भी चुप्पी साधे बैठे हैं।