Saturday, July 17, 2010

अहा! कितने मजेदार थे वे दिन

गांव के बच्चे मुंह अंधेरे जानवरों को लेकर खेत में निकल जाया करते थे और देर शाम तक तरह-तरह का खेल खेलते रहते थे। उस समय किसी-किसी गांव में टीवी हुआ करता था। जो आम लोगों की पहुंच से बहुत दूर था। इसके बावजूद मनोरंजन के अनेक साधन थे। कठघोड़वा नाच, चंगेरा अदि तरह के नामों से विशेष मौकों पर प्रदॢशत करते थे, जिसे लोग काफी आनंद के साथ देखते थे। कुछ और भी उन्नत किस्म के कलाकार नौटंकी नाच का भी प्रदर्शन करते थे। जिसमें हारमोनियम, ढोलक के साथ-साथ नगाड़ा आदि वाद्ययंत्रों का प्रयोग होता था, जिसकी आवाज दूर-दूर तक सुनाई देती थी। नौटंकी करवाने के लिए लोगों को अधिक पैसा खर्च करना पड़ता था। यही कारण था कि चंगेरा और कठघोड़वा आदि को लोग ज्यादातर पसंद करते थे। चंगेरा तो गांवों के ही कुछ लोग मिल कर आयोजित करते थे। इस ड्रामा में गांवों में प्रचलित पौराणिक कथाएं जैसे सती बिहुला, बालेलखंदर आदि का मंचन किया जाता था, जिसका गांववाले भरपूर आनंद लेते थे। कठघोड़वा में मात्र तीन-चार कलाकार होते थे। उसमें से एक कलाकार काठ के बने घोड़े के अंदर खड़ा होकर अपना हावभाव घोड़े के आकार में बना कर नाचना शुरू कर देता था। बाकी कलाकार वाद्य यंत्र बजाने के साथ-साथ सुर व ताल मिलाकर समूह गीत गाते थे। जोकर तो अक्सर सभी नौटंकी में होता था जो गांवों की बुराइयों पर कमेंट कर लोगों को हंसाता रहता था। उसका एक कमेंट तो अभी भी नहीं भूलता हूं। हुआ यह कि नाटक की शुरुआत में देवी-देवताओं की जय-जयकार होती थी। उसी प्रकृया में जोकर ने शंकर भगवान की जय, गऊ माता की जय के नारे लगाते-लगाते सांड़ बप्पा की जय के नारे भी लगा दिया। आवेश में आ कर दर्शक भी सांड़ बप्पा की जय के नारे लगाए। अचानक लोग चौंक पड़े कि यह क्या है? बिना देर किये लोग जोकर पर टूट पड़े और वह अपना आंसू पोछ कर सफाई देते हुए कहा कि जब गऊ माता हो सकती हैं तो सांड़ बप्पा क्यों नहीं? कुछ लोग ठहाका मार कर हंसने हंस दिये। इसके बाद लोग सबकुछ भूलकर ड्रामा देखने में मस्त हो गये थे। इसको देखने के लिए दूर-दूर के गांवों तक जाना पड़ता था। काफी रोने-धोने के बावजूद अनुमति नहीं मिलती थी। लेकिन किसी भी कीमत पर देखना तो था ही, चाहे जो कुछ भी हो जाए। शाम को ही यह तय कर लिया जाता था कि भोजन करने के बाद जब सब लोग सो जाएंगे तो हम गांव के नुक्कड़ पर मिलेंगे। बनी-बनाई तरकीब के तहत रात में भागकर दूर-दराज के गांवों में नाच दखने के लिए चले जाते थे।
दादा की भूतों की कहानियां
बच्चों को डराने के लिए दादा भूतों की मनगढ़ंत कहानियां सुनाया करते थे। एक बार तो उन्होंने अति ही कर दिया था। वह कह रहे थे कि बागीचे में आज एक भूत मिला था और वह खैनी मांग रहा था, लेकिन उसको मैंने खैनी नहीं दी। क्योंकि खैनी को हाथ में देने पर भूत पकड़ लेता है। इस बात को सोच कर डर तो बहुत लगता था, लेकिन नाच देखने के समय सारे डर हवा हो जाते थे। मैं दादा जी के पास इसलिए सोता था कि वह रात में छोटी-बड़ी कहानियां सुनाया करते थे। वह दिन भर की भागदौड़ के बाद जल्दी ही सो जाते थे। जैसे ही उनका नाक बजना शुरू होता कि मैं उठकर मित्रों द्वारा तय किये गए जगह पर पहुंच जाता और नाच देखकर मुंह अंधेरे वापस आकर सो जाता था। किसी को पता तक नहीं चलता। लेकिन कभी-कभार पकड़ भी लिए जाते थे।
जब जाते थे भैंस को चराने
भैंसों को चराने का मात्र एक बहाना था। मुख्य काम तो रात को देखी हुई नौटंकी का नकल करके खेतों में ही ड्रामा करने का होता था। घरवालों को पता चलने पर पिटाई भी होती थी। उनका कहना था कि ऊंची जातियों के लड़के यह सब खेल नहीं खेलते। वे जितना ही रोकने की कोशिश करते खेलने की लालसा उतनी ही अधिक बढ़ती जाती थी। एक मोटी सी लाठी लेकर भैंस पर ऐसे बैठते थे जैसे कि हाथ में तलवार लिए कोई राजा हाथी पर सवार हो। कभी-कभी तो भूल ही जाते थे कि हम भैंस पर बैठे हैं और हाथी के ख्वाबों में खो जाते थे। अचानक भैंस को पोखर का याद आता था और वह दौडऩा शुरू कर देती थी। उसके भागने की देर थी कि मैं जमीन पर चारो खने चित हो जता था। जब तक मैं संभलता कि भैंस पोखर में डुबकी लगा रही होती थी। खेतों में डाक्टर तो हाते नहीं थे इसलिए अन्य साथी ही शरीर को इधर-उधर खींच-तान करके सही कर देते थे। क्योंकि वही एक मात्र दवा थी। चोट कितना भी हो डाक्टर के पास बहुत ही कम जाना पड़ता था। आसपास कोई सरकारी अस्पताल भी नहीं होता था। जो था भी उसमें डाक्टर ही नहीं होते थे। इस बात की जानकारी घर वालों को होने पर ऊपर से डांट भी पड़ती थी।
स्कूलों में पढऩे जाने का था अपना मजा
गांवों में बहुत सारे बच्चे होते थे, जो साथ में प्राइमरी स्कूल में पढऩे जाते थे। हमारे गांव से डेढ़ किलो मीटर दूर दूसरे गांव में एक ही प्राइमरी स्कूल था। उसमें भी दक्षिण टोला के बहुत ही कम बच्चे पढऩे जाते थे। उनके पास फीस देने के लिए पैसे नहीं होते थे। उनका कहना था कि हम पढ़ कर क्या करेंगे, भगवान ने तो हमें हरवाही करने के लिए ही बनाया है। जब बाप-दादा हरवाही कर रहे हैं तो हमें करने में क्या दिक्कत है। सवर्णों के लड़कों के साथ-साथ कुछ अन्य जाति के लोग भी शामिल हो जाते थे। जात-पात भूलकर साथ-साथ स्कूल जाते थे।
पटरी पर छपते थे गोल-गोल चमकते अक्षर
स्कूल जाते समय सभी के हाथ में एक ही तरह की लकड़ी की पटरी हुआ करती थी। तब एक से पांचवीं तक की पढ़ाई में स्याही का इस्तेमाल नहीं होता था। दवात में खडिय़ा घोलकर नरकट के कलम से लिखा जाता था। फिर पटरी को कलर किया जाता था। जो तवे के नीचे पड़े कालिख या भूजा भूनने वाले हंडी के नीचे की कालिख का प्रयोग होता था। लोग अपनी-अपनी पटरी की सुंदरता निखारने में पीछे नहीं रहते थे। उसके लिए कांच की दवात से पटरी को रगड़ा जाता था। दवात को रगडऩे से पटरी में चमक आ जाती थी, और उसपर लिखने से अक्षर निखर जाते थे। स्कूलों में अलग-अलग गांवों के गुट हुआ करते थे। हफ्ते दस दिन में इन गुटों में एक बार भिड़ंत जरूर होती थी। इन संघर्षों का एक मात्र हथियार होता था पटरी, जिससे लोगों का सिर भी फट जाता था। लेकिन दो-तीन दिन बाद ही एक-दूसरे के साथ बैठकर दोपहर के खाने का लुत्फ लिया जाता था।
जब स्कूल में बेहया के डंडे से हुई पिटाई
एक बार स्कूल में बहुत देर से पहुंचा। और उस समय मास्टर साहब कुर्सी पर बैठे-बैठे ऊंघ रहे थे। वहां पर पहुंचते ही एक लड़के से मेरी लड़ाई हो गई और मास्टर साहब की नींद हराम हो गई। उन्होंने आव देखा न ताव और बेहया (एक प्रकार का पौधा) के डंडे से मेरी जमकर पिटाई कर दी। वे पिटाई बंद नहीं करने वाले थे लेकिन अफसोस कि मास्टर साहब का डंडा टूट गया और मैं बच गया। वैसे मास्टर साहब बहुत मारते थे। इसी डर से कुछ लोग उनके हाथ-पांव भी दबाते थे। दलित बच्चों के साथ मास्टर का नजरिया कुछ और ही था वे हर वक्त बच्चों को उनके दलित होने का एहसास दिलाते थे। मास्टर भी ज्यादातर सवर्ण होते थे। पढ़ाई के समय बच्चों को खेतों से मूंगफली लाने के लिए भेज दिया करते थे। पढ़ाते-पढ़ाते मास्टर साहब सो जाते थे। बच्चे इसका फायदा उठाकर खेलने निकल जाते थे। वे तबतक खेलते रहते थे जबतक कि मास्टर साहब के हाथ में बेहया का डंडा नहीं लहराता। छुट्टी होने से एक घंटा पहले स्कूल के सभी बच्चे गोलाई में बैठ जाते थे और जोर-जोर से गिनती गिनते थे। वह भी गाने की तर्ज पर। इसकी आवाज इतनी तेज होती थी कि गांव तक सुनाई देती थी। घंटी बजते ही घर की तरफ भागते थे। रूखा-सूखा खाने के तुरंत बाद ही गांव के बीचो-बीच खाली पड़े मैदान में कंचा खेलने निकल जाते थे।
छोटे-छोटे बेलों से खेलते थे गोली
कंचा खेलने के लिए कांच की गोलियां हमारे पहुंच से बहुत दूर थीं। इसकी जगह बगिया में से छोटे-छोटे बेल को तोड़कर उसी से खेलते थे, जिसमें बड़ा मजा आता था। छुट्टियों में तो खेलते-खेलते पूरा दिन बीत जाता था। बेलों को टकराने से कई-कई बेल टूट जाते थे और दोबारा बगिया में जा कर पेड़ों से बेल तोड़ लाते थे और फिर जुट जाते थे ङ्क्षजदगी के महत्वपूर्ण खेलों में। भइया या बाबूजी के पहुंचने पर नौ-दो ग्यारह हो जाते थे। बाद में पकड़े जाने पर मारने-पीटने के बाद हाथ में किताब पकड़ा कर बैठा दिया जाता था। लेकिन दूसरे दिन फिर वही प्रकृया शुरू हो जाती थी।
जब लटक रहे थे पीले-पीले आम
छुट्टियों में जब आम पकने का समय होता था तो उस समय बच्चे कभी-कभार ही घर पर दिखते थे। पूरा समय वे छोटे-छोटे पेड़ों पर चढ़ कर आम को तोड़ते और नमक के साथ चटकारे ले-लेकर पेड़ों की टहनियों पर लटक कर लखनी खेलते थे। उस समय लखनी और चिक्का दो ही मुख्य खेल था। चिक्का तो बहुत ही खतरनाक खेल होता था जिसमें चोट लगना आम बात थी। लेकिन फिर भी खेल बहुत ही मजेदार होता था। उसमें जमीन पर गोलाई लिए हुए एक जगह बनाई जाती थी और लकीर के बाहर के व्यक्ति के पैर में पैर से मारा जाता था। देर शाम को घर लौटते थे। उस समय घर पर कभी-कभी ही मार खानी पड़ती थी। क्योंकि लौटते समय कुछ आम बड़े भाई को दे देते थे, जिसे खाने में ही वे मस्त हो जाते थे। उस समय एक-दूसरे के पेड़ों से आम तोड़कर खाते थे। गिरे हुए आम को खाने के लिए कोई बोलता नहीं था। यहां तक की लोग बगीचे को बेचते भी नहीं थे। धीरे-धीरे पूरा का पूरा बागीचा सूना होता गया। लोग पेड़ों को काटकर खेती करने लगे। कुछ लोग खेतों में कलमी आम लगाने लगे जो बौर लगते ही पूरा बागीचा बेच देते थे। अब तो देसी आमों के बगीचे गांवों में इक्के-दुक्के ही नजर आते हैं। जो बचे-खुचे हैं वे पर्यावरण की मार झेल रहे हैं और एक भी फल नहीं देते।
जब पिछवाड़े चिपक जाती थीं जोंकें
हमारे गांव में कई-कई पोखर थे। उन पोखरों में हमेशा पानी भरा रहता था। जिसमें भैंसों को नहलाते थे। भैंसें जबतक पानी में डूबी रहती थीं तबतक हम लोग भी पानी में डूब कर तमाम तरह के खेल खेलते रहते थे। कुछ बच्चे तो तैरना सीखते थे। कई-कई लोग तो पानी के ऊपर तैरने वाले विशेष किस्म के एक जाति के कीड़े को पानी के साथ घोंट जाते थे। बच्चों का मानना था कि इन कीड़ों को जिंदा पी जाने से शीघ्र तैरना आ जाता है। लेकिन ढेर सारे जिंदा कीड़े पानी के साथ घोंट जाने के बावजूद मुझे कभी भी तैरने नहीं आया। नहाते वक्त सारे बच्चे बिलकुल प्राकृतिक अवस्था में होते थे, जिसका फायदा उठाकर पिछवाड़े जोंकें चिपक कर खून चूसने में मस्त हो जाती थीं। खुजली होते ही हम समझ जाते थे कि मामला कुछ गड़बड़ है। भागकर पानी से बाहर आते और उन्हें एक-एक कर निकाल फेंकते। कपड़े पहन कर भैंसों को लेकर घर वापस आ जाते थे।
तीज-त्योहारों में आता था खूब मजा
तीज त्योहार में तो बहुत ही आनंद आता था। खासकर होली और दिवाली में। होली की तो एक महीने पहले से ही तैयारी चलती थी। पंद्रह दिन पहले से ही सम्मत गाडऩे के बाद उस पर खर-पतवार रखने की तैयारी होती थी। गांवों के लगभग सारे लोगों की भागीदारी होती थी। जिस रात होलिका दहन का समय होता था, उस रात तो सोना भी हराम था। लोगों के उपले, खर-पतवार यहां तक की छप्पर तक भी सम्मत के हवाले कर दिया जाता था। लोग एक-दो दिन गाली-गुप्ता करके फिर सामान्य हो जाते थे। होलिका दहन के बाद गांव के बच्चे/बुजुर्ग हारमोनियम, ढोलक, तबला आदि वाद्य यंत्र लेकर होलिका गीत गाते थे। उस दिन सारे गिले-शिकवे माफ होते थे। सुबेरे लोगों के नाबदान तक में कीचड़ और पानी नहीं बचता था। लोग इसी से होली खेलते और एक-दूसरे को पकड़कर कीचड़ में सराबोर हो जाते थे। उस समय रंग का बहुत कम चलन था। लोग रंग में पैसा खर्च करना मुनासिब नहीं समझते थे। होली खेलने के बाद घर-घर जाकर होली गीत गाते, होली खेलते और लोगों से गुड़ और कुछ राशन इक_ा कर शाम को सामूहिक भोज करते थे। उस समय लोग भंग के रस में सराबोर रहते। किसी का भी परिवार भंग पीने के लिए मारता-पीटता नहीं था। यही नहीं बल्कि दीपावली में भी लोग एक-दूसरे के घर जा कर पटाखा फोड़ते और अधिकार पूर्वक पकौड़े, गुलगुले, पूड़ी आदि मीठे पकवान मांग-मांग कर खाते थे। ऐसा करने में लोग अपने को बहुत खुशनशीब समझते थे। लेकिन एक बात तो थी कि इस तरह के माहौल की वजह से लोगों की चेतना भी पुरानी मुल्य मान्यताओं पर आधारित थी। शहर की तरफ जाना लोग मुनाशिब नहीं समझते थे। मां-बाप भी अपने बेटे को आंखों से ओझल नहीं होने देते थे। यही कारण था कि लोगों में काफी हद तक अशिक्षा मौजूद थी।
काका-काकी और दादा-दादी का प्यार
अब तो काका-काकी और दादा-दादी का प्यार भी पैसों के तराजू में तौला जाने लगा है। उस समय आपसी प्रेम-भाव होने के बावजूद जातीयता हाबी थी। मजाल क्या कि कोई ऊंची जाति वालों के सामने चारपाई पर बैठ जाये। काम की मनाही करने पर उसकी पिटाई भी कर दी जाती थी। लोगों से काफी हद तक बेगार भी करवाया जाता था। अब तो जातियता के नाम पर केवल दिखावा मात्र ही रह गया है। गांवों में पुराने मूल्य मान्यताओं को मानने वाले बहुत ही कम लोग रह गये हैं। सवर्ण भी अब दलितों के घरों पर बैठ कर पानी पीते हैं। वहां उनके लिए अलग से कुर्सी नहीं बल्कि उसी चारपाई पर साथ-साथ बैठते हैं। बच्चे तो एक-दूसरे के साथ सामान्य रूप से झगड़ लेते हैं। जो पहले नामुमकिन था। ऐसा बदलाव बहुत ही जरूरी था। लेकिन इसके साथ-साथ लोगों के यहां आना-जाना भी बंद हो गया। जो लोग जाते हैं उनके बारे में कहा जाता था कि जरूर इनको कोई मतलब होगा।
ठंडक में जब कौड़े पर जमती थी मंडली
पहले ठंडक के समय में लोगों के दरवाजे पर कौड़ा रखा जाता था जहां पर हमेशा सुबह-शाम आग जलती रहती थी। गांव के बुजुर्ग वहां पर बैठकर गांव की राजनीति पर बहस करते थे। मजेदार बात तो यह होती थी कि सभी लोग बैठकर किस्से कहानी गढ़ते रहते थे। उसमें से जो पहले चला जाता था उसकी वहां पर उपस्थित लोग बुराई करने में जुट जाते थे। फिर दूसरे के जाने के बाद बाकी लोग उसे भी नहीं छोड़ते। यह प्रकृया तबतक चलती रहती थी जबतक की कौड़े पर एक आदमी बचता है। वह बची-खुची बुराइयों को कौड़ा में राख से अगले दिन तक ढक देता और बिस्तर पर जा कर सो जाता। यही नहीं बल्कि वह सूचना के आदान-प्रदान का भी एक जगह हुआ करता था। उससे लोगों के अंदर एक-दूसरे के प्रति प्रेम की भावना भी उत्पन्न होती थी। यह भी अब खत्म हो गया।
जब बढऩे लगी लोगों में दूरियां
जैसे-जैसे हम बड़े होते गये। वैसे-वैसे गांव के बच्चों से दूरियां बढ़ती गयीं। कई ऐसे बच्चे थे जो 6वीं, 7वीं तक पढऩे में काफी तेज थे। लेकिन अब उनके मां-बाप इससे आगे पढ़ाने में असमर्थ थे। बचपन में ही रोटी-रोजी के लिए उन्हें शहर में जाकर मजदूरी करनी पड़ी। गांव की खेती बिलकुल तबाही की कगार पर पहुंच गयी थी। जिनके पास ज्यादा खेती थी वे उसका कुछ ही हिस्से पर किसानी कर रहे थे क्योंकि खाद-बीज इतना महंगा होता जा रहा था कि उसके लिए बाहर की कमाई की जरूरत थी। जो बहुत ही कम लोगों के पास थी। अनाज भी लोगों को बाजार से खरीदना पड़ रहा था। धीरे-धीरे बाजार व्यवस्था गांवों में पैठ बनानी शुरू कर दी। खेती भी बाजार के हिसाब से होने लगी। जिनके पास पैसा था वे अच्छा खाशा पैदावार काटते थे और बाकी लोगों के खाने के लाले पड़ जाते थे। यही कारण था कि लोग शहरों की तरफ पलायन करना शुरू कर दिए। बच्चों के बीच में भी खाई पैदा हो गयी है। कुछ लोग तो शिर्फ छुट्टी मनाने के लिए ही गांव जाते हैं। सवर्णों और दिलितों के बीच की खाई, गरीब और अमीर के रूप में बदल गई है।
लहलहा रहे थे कालानमक के धान
जहां पर हम रहते थे वह क्षेत्र चावल के अच्छे पैदावार के रूप में जाना जाता था। वहां पर एक विशेष किश्म के धान की पैदावार होती थी जिसका नाम था कालानमक। जिस खेत में कालानमक की बिजाई होती थी उधर से गुजरने पर पूरा वातावरण सुगंधित हो उठता था। मोटा चावल जैसे सरजूउनचास, सरजूबावन आदि को कोई पूछता नहीं था। गरीब हो या अमीर सभी लोग कालानमक जरूर खाते थे। लेकिन बाजारवाद ने ऐसी पल्टी मारी कि पूरे के पूरे गांव को तबाह कर दिया।
गांवों की बहुत सारी बुराइयां भी थीं, जिसको बाजारवाद ने खत्म तो किया ही साथ ही उन अच्छाइयों को भी खत्म कर दिया जिसे बचाना बहुत ही जरूरी था। मानवीय मूल्य जैसे धरोहर का भी नाश हो गया। मां, बाप और बेटे के प्यार को भी पैसे से तौला जाने लगा। धीरे-धीरे लोग खेतों में नये-नये बीज बोना शुरू कर दिए। जिसका असर यह हुआ कि कालानमक धान जैसे अच्छे किश्म के स्वादिस्ट अनाज भी खत्म हो गये। प्राकृतिक आपदाओं को भी नहीं झेल पाये। महंगाई इस कदर हाबी हो गई कि अब गांवों में रहना दूभर हो गया। जो लोग शहर में चले गये उनका परिवार काफी मजे में रहने लगा और बच्चे भी अच्छे स्कूलों में पढ़ाई करने लगे। लेकिन गांव में रहने वालों को न तो अच्छी शिक्षा मिलती है और न ही अच्छी तरह की खेती कर पाते हैं। खेती करने के लिए उनके पास पैसा भी नहीं होता है। कर्ज लेकर अगर कोई किसान धान लगा भी देता है तो उसमें रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं की कमी से ऐन वक्त पर सबकुछ तबाह हो जाता है। खेती युक्त जमीनें इस कदर ऊसर हो चुकी हैं कि महंगे रसायनिक खाद और कीटनाशक के पैदावार ही नहीं काट पाते। जो पैदा भी होता है उसका आय के अपेक्षा लागत मूल्य अधिक होता है। ज्यादातर लोग पूरी खेती भी नहीं कर पाते हैं। अब लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं।
कबड्डी चिक्का और कंचे ने ले लिया जुआ का रूप
कंचा, चिक्का, कबड्डी और लखनी जैसा खेल तास के पत्तों ने ले लिया है। जो जुआ का रूप धारण कर लिया है। जब अपने गांव जाता हूं तो वहां दूर-दूर तक गुल्ली-डंडा और कबड्डी का खेल नजर नहीं आता। लेकिन क्रिकेट का टुर्नामेंट जरूर दिखाई दे जाता है। खाली पड़े घरों या पेड़ों के नीचे ज्यादातर बच्चे पूरा का पूर दिन जुआ खेलने में मस्त रहते हैं। कभी कभार पलिस हत्थे चढऩे पर पुलिस वालों को कुछ चढ़ावा देकर छुट्टी पा जाते हैं। गांवों की राजनीति भी बहुत गंदा हो चुकी है। लोगों के बीच पार्टीबंदी इस कदर हाबी है कि चुनाओं के समय एक-दूसरे की हत्या तक करने में पीछे नहीं रहते। युवा वर्ग तो लगभग शहरों की ओर पलायन कर चुका है। कुछ लोग तो ऐसे हैं जो शिर्फ बिजाई, रोपाई और कटाई के समय ही गांवों में आते हैं। बाकी समय वे अपने जीवकोपार्जन के लिए शहर में ही रहते हैं। लोगों के अंदर धीरे-धीरे मानवीयता भी खत्म होती दिखाई दे रही है। दबंगों की दबंगई अभी भी जारी है। पहले वे खेतों में काम करवाते हुए अपनी दबंगई दिखाते थे, लेकिन अब राजनीति में आकर करते हैं। पहले के न तो बच्चे रह गए और न ही दादा काका और बाबा ही हैं। सारे परिवार के सदस्य अलग-अलग अपनी जीविका चला रहे हैं। किसी के घर जाने पर लोग यही सोचते हैं कि यह जरूर किसी काम से आया होगा। पढऩे-लिखने और मेहनत मशक्कत करने वाले शहर की ओर पलायन कर रहे हैं।
प्राइमरी स्कूलों की स्थिति और भी खराब है। कहने के लिए तो गांव में एक मिडिल स्कूल है लेकिन तीन सालों में कोई अध्यापक ही नियुक्त नहीं हुआ है। बीच में एक अध्यापक आए भी थे लेकिन छह माह बाद उनकी मौत हो गयी। इसके बाद अध्यापक नियुक्त होना तो दूर उसकी चर्चा तक नहीं होती। यही है मेरे गांव की राम कहानी।
-पुर्वांचल के एक गांव की तस्वीर-

-जय प्रताप सिंह