माया
हमारे समाज में जातिगत अपमान और उत्पीडऩ जैसे कई कुकर्म किए जाते हैं। देश आजाद होने के बाद दलितों को आज भी सामंती सोच रखने वालों के अधीन रहना पड़ता है। यदि कोई यह समझता है कि अछूत एक जमाने पहले की बात है तो यह गलत है। आज भी हरियाणा के हिसार जिले के मिर्चपुर गांव में ऐसा ही होता है। जहां पर वाल्मीकि समुदाय के घर के साथ-साथ उसमें रहने वाले लोगों को भी जला दिया जाता है। जिन लोगों ने अपना गुजारा करने के लिए उन घरों को अपना खून पसीना एक करके बनाते हैं, उसे उन्हीं के सामने जला कर राख कर दिया जाता है। उनकी जिंदगी भर की मेहनत को चंद समय में ही मिट्टी में मिला दिया जाता है।
यह लोग परम्परावादी पेशे को छोड़कर अपनी मेहनत से गुजारा कर रहे थे और अपने बच्चों को स्कूल भेजने का सपना अपनी आंखों में संजोये हुए थे। मेहनत मजदूरी करने के लिए अपने घरों में पशुओं, पाक्षियों को पालने लगे थे। इनके रहन-सहन को देखकर जाट समुदाय के लोगा सहन कर पाने में असमर्थ थे। उन्हें लग रहा था कि उनके कदम डगमगा रहे हैं। इसलिए उनके लिए इसे सहन करना असंभव था। जब उन्होंने आने-जाने वाले रास्ते में एक वाल्मीकि कर्ण सिंह के बेटे दिलबाग को एक कुत्ते को बड़े प्यार से नहलाते हुए देखा तो रास्ते से जा रहे जाट समुदाय के कुछ लोगों ने कहा कि हर रोज सुबह शाम इसी गली से गुजरना पड़ता है। जोकि नशे में धुत्त थे और ऐसा कहते हुए उन्होंने कुत्ते को लात मारी। इस बात से दिलबाग और उसके पिता ने उनका विरोध किया। इस बहस को सुनकर वहां पर और लोग भी आ गए। जाटों ने कहा कि तुम्हें भी इसी तरह मार देंगे जिस तरह कुत्ते को मैंने मारा है। इस बात से उन्हें गुस्सा आ गया और नौबत हाथापाई तक पहुंच गई। तभी कुछ लोगों ने झगड़े को सुलझाया। उसके बाद वाल्मीकि समुदाय के लोगों ने आपस में बातचीत की। बातचीत के दौरान पता चला कि उन जाटों के समूह में गांव का जमाई भी था, जिससे गलती से झगड़ा हो गया। गांव में आज भी यह परंपरा मानी जाती है कि किसी भी जात-बिरादरी का जमाई पूरे गांव का जमाई होता है। वीरभान ने गांव को शांति बनाए रखने के लिए कहा कि हमें उन लोगों से माफी मांग लेनी चाहिए। विचार-विमर्श करने के तुरंत बाद कर्ण और बीरभान दोनों ही माफी मांगने के लिए उनके घर चल पड़े। लेकिन जाटों के घर पहुंचने से पहले ही उन दोनों के ऊपर लाठियों से वार किया गया, जिससे दोनों को काफी चोटें आई थीं और उन्हें अस्पताल ले जाया गया। डाक्टर ने उन्हें छ: टांके लगाए। अस्पताल में उनका इलाज चल ही रहा था कि उन्हें फोन पर सूचना मिली कि जाट समुदाय के लोग अभी भी झगड़ा करने को तैयार हैं। सूचना मिलते ही वीरभान और कर्ण दोनों सीधे पुलिस चौकी पहुंच कर चौकी इचार्ज विनोद काजल को घटना की जानकारी दी। उसने कहा कि क्यूं थारे घर जला दिये जो इस तरह बात कर रहे हो। चौकी इचार्ज ने छूटते ही कहा। उसके बाद उन्होंने पुलिस दस्ते को लेकर गांव में आ धमके। जब गांव में कोई नहीं दिखा तो पुलिस वालों ने वीरभान को खूब धमकाते हुए कहा कि तुमने तो कहा था कि जाट समुदाय वाल्मीकियों पर हमला करने वाले हैं। लेकिन यहां तो कुछ भी नहीं हो रहा है।
21 अप्रैल 2010 को विनोद काजल वाल्मीकि बस्ती में वीरभान और कर्ण से मिलकर कहा कि इस मामले को पंचायत ही सुलझाएगी। वाल्मीकि समुदाय ने पंचायत में जाने को तैयार हो गये, क्योंकि वह सब शांति चाहते थे। वाल्मीकि बस्ती के सारे पुरुष पंचायत में पहुंच गये। घर में केवल महिलाएं और बच्चे ही रह गये थे। जाट समुदाय पहले से ही तैयारी में थे कि कब यह लोग बाहर जाएं और वे घटना को अंजाम दें। पंचायत में अभी लोग पहुंचे ही थे कि उधर वाल्मीकि बस्ती में जाट समुदाय ने आग लगा दी। कुछ घरों का सामान भी लूट लिया।
चंद्रभान की पत्नी फूलकली ने बताया कि हमारे घर में अगले महीने लड़की की शादी थी। घर में दहेज का सामान भी रखा हुआ था। सारा सामान लूट लिया। मेरी बहू के सामने अपने कपड़े उतार कर खड़े हो गये। मैंने उसे चौबारे में ऊपर भेज दिया और उन्होंने फिर भी उसका पीछा किया। वह एक कमरे में घुस कर अंदर से दरवाजा बंद कर ली, लेकिन जाटों के लड़कों ने उस कमरे में जलती हुई लकड़ी खिड़की से अंदर फेंक दी। कमरे में रखा सामान धू-धू कर जलने लगा। बहू किसी तरह जान बचाकर बाहर भागी। गांव के कई लोगों ने पुलिस के पास गये और उनसे काफी मिन्नतें कीं, लेकिन पुलिस वालों ने हमारी कोई भी मदद नहीं की। उस जलती हुई आग को देखकर छोटे-छोटे बच्चे कांप रहे थे। फिर भी पुलिस वालों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। खून-पसीने एक करके बनाए गये घर को हमारी आंखों के सामने जाटों ने जला कर राख कर दिया। उन लोगों ने हैवानियत का सीमा पार करते हुए एक लड़की को जिंदा जला दिया और हम लोग देखते रहे।
सुमन जिसकी उम्र लगभग 18-19 साल की थी, जो बारहवीं पास थी। वह घर के अंदर पहिए वाली कुर्सी में बैठ कर किताब पढ़ रही थी। उसके घर के चारों तरफ लोगों ने आग लगा दी और बाहर से गेट की कुंडी चढ़ा दी, जिससे वह बाहर न निकल सके। सुमन को घर में आग लगाकर सबों ने मार डाला। सुमन के पिता तारा सिंह की उम्र 55 साल थी। उन्होंने अपनी बेटी को बचाने का प्रयास किया जिसमें वह भी जल गया। बेटी को नहीं बचा सका। वह उसकी चीख को सुनता रहा और खुद को आग में जलाता रहा। जिन लोगों ने इस घटना को अंजाम दिया उनको तो लोगों की चीखें सुनकर मजा आ रहा था, लेकिन जिनकी आंखों के सामने अपनी बेटी, बहू और बच्चे जल रहे थे, उन पर क्या बीत रही होगी इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यह घटना मात्र एक मिर्चपुर की ही नहीं है, बल्कि कमोबेस पूरे देश में ऐसी घटनाएं लगातार हो रही हैं। प्रसाशन पर इसका कोई फर्क नहीं पडऩे वाला है। उसे मात्र चंद पैसों का मुआवजा देकर अपना पल्ला झाड़ लेना है। गरीबों की उन्हें क्या परवाह वह तो उनकी नजरों में कीड़-मकोड़े हैं।
अब सवाल यह उठता है कि क्या हम ऐसे ही इन घटनाओं को देखते रहेंगे? आखिर हम कबतक अपने लोगों से ही लड़ते रहेंगे? जबकि इन सबका असली दुश्मन कोई और है, जिसके बारे में हम सबकुछ जानते हुए भी चुप्पी साधे बैठे हैं।
Monday, August 30, 2010
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