Sunday, February 13, 2011

फुटपाथ (एक प्रेम कहानी)

Jai Pratap Singh
मै फुटपाथ हूं। शायद आप चलते वक्त मेरे बारे में जानना नहीं चाहते कि मै कब और कैसे पैदा हुआ? लेकिन मै जानता हूूूूं, आपके बारे में वह सबकुछ जिसके बारे में आप सोचते हैं कि किसी को नहीं पता। यहां तक की आपके जूते के नम्बर भी। जूतों की ठोकरों से पैदा हुए दर्द को भी मै बखूबी महसूस करता हूं। उन तमाम भूखे प्यासे बेघर लोगों के दुख दर्द पर दो-चार आँसू भी बहाता हूं, भले वह मूक ही सही। इसके बावजूद मै एक फुटपाथ हूं। और तो और, मै मोहल्लों से लेकर सभी शहरों में मौजूद हूं, चाहे वह छोटा शहर हो या बड़ा। सभी जगहों पर मै निराश्रितों को आश्रय देता हूं और उनका दुख-दर्द बांटता हूं। अब बेसब्री से मै उनका इंतजार कर रहा हूं।
लालिमा लिए सूरज की किरणें जैसे ही पश्चिम में विलीन होतीं, रात्रि की बेला पूरे शहर को अपने आगोश में समेट लेती। अंधेरा होते ही शहर की बत्तियां जल उठतीं और सबकुछ प्राशमय हो जाता। मै यह सोचकर आनन्दविभोर हो उठता कि अब कुछ पल ही सही, मेरा अपनों का साथ होगा।
रात काफी बीत चुकी थी। छोटी-मोटी दुकाने कभी का हटा ली गई थीं। बीरान पड़ा मै पलकपावड़े बिछाए अपने मेहमानों का इंतजार कर रहा था। मेरे मेहमान भी निराले थे। वे भारी-भरकम गाडिय़ों से नहीं आते और न ही बहुत शेरशराबा ही करते थे। कोई टाट लटकाए तो कोई अखबार लेकर आता, धूल-मिट्टी को झाड़ता और उसे मेरे ऊपर बिछाकर लम्बलेट हो जाता। जब वह हाथ से मिट्टी को झाड़ रहा होता तो ऐसे महसूस होता जैसे कि मेरी प्रेमिका मेरे पीठ हाथ फेर रही हो और बालों में उंगलियों को घुमाते हुए कह रही हो कि तुम चिंता मत करो। मै आ गई हूं, अब सभी दु:ख दर्द को बांट लुंगी। उस समय मेरे आँखों से खुशी के दो बूंद आँसू टपक पड़ते। इन थके-हारे मेहनतकशों को आश्रय देने में मुझे काफी शुकून मिलता।
लोग भले ही अलग-अलग जाति धर्म के हों, लेकिन वे मेरे लिए बस फुटपाथी थे। उनके लिए मै स्वर्ग के समान था। इतने बड़े शहर में इन अभागों को जब कहीं आश्रय नहीं मिलाता तो उस समय चेहरे पर मुश्कान लिए दोनों हाथों को फलाकर मै कहता- आओ! निराश्रितों, मेहनतकशों और मेरे प्यारे लाडलों! तुम्हारा स्वागत है। रात होते ही मोटरों के भोंपू बजना बंद हो जाते। इक्के-दुक्के माल ढोने वाले ट्रक रुक-रुक कर भोपू बजाने से बाज नहीं आते। फिर भी दिन भर के चिल्ल-पों से तो कम ही होता। धेरे-धीरे मेहमानों की जमघट लगनी शुरू हो जाती। इसके बाद शुरू होता नोंकझोंक। ''यह मेरा जगह है, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहां आसन जमाने की। फुटपाथ किसी की बपौती नहीं है। मैं यहां एक महीने से सोता चला आ रहा हूं और तुम मेरी जगह पर कब्जा जमाने की फिराक में हो।ÓÓ पहले ने नाक-भौंह सिकोड़ते हुए कहा और दोनों भिड़ गये। नया आदमी वहीं पर खड़े खड़े बड़बड़ाए जा रहा था। 'आज मुझसे देर रात तक काम करवाया है। खाने के लिए पैसा मांगा तो वह खूसट मालिक ने दिहाड़ी का पैसा ही नहीं दिया। उल्टे दो-चार गालियां शौगात में दे दीं। भूख के मारे  पेट में दर्द हो रहा है।ÓÓ ''आ बैठ, रूखा-सूखा तू भी खा ले।ÓÓ पहले ने थैले में से दो रोटियां निकाली और उसकी ओर बढ़ा दिया। दोनों एक साथ बैठ कर भूखे भेडि़ए की तरह रोटी पर टूट पड़े। यह सब देखकर मुझे कोई ताज्जुब नहीं हुआ। उल्टे मुझे हंसी आ गई।
यह कोई एक दिन की घटना नहीं थी बल्कि रोज-ब-रोज लोग आपस में लड़ते-झगड़ते और कुछ ही समय बाद एक-दूसरे से अपने दु:ख-दर्द को बांटते हुए घंटों चर्चा करते और बीड़ी सुलगाकर धूएं का गुबार छोड़ते। दिन भर की थकान के बाद जब ठंडी-ठंडी पछुआ हवा बहनी शुरू होती तो उन्हें स्वर्ग जैसी अनुभूति होती। कुछ ही देर बाद आपस में हो रही वार्तालाप और लड़ाई-झगड़ा और खर्राटों में बदल जाती। उनकी चिल्लपों और खर्राटों से मुझे काफी शुकून मिलता। मुझे इनसे कोई शिकवा शिकायत नहीं थी। अगर थी तो मेरे ऊपर दिन भर खड़े वाहनों से, जो बेजान-सी पड़ी रहतीं ओर जिनके बोझ तले पूरा दिन मै दबा रहता।
बीरान हो जाने के बाद मुझे तबतक चैन नहीं मिलता जब तक कि मेरे मेहमान नहीं आ जाते। उसमें से अगर किसी दिन कोई नहीं दिखता तो काफी देर तक मै किसी खतरे की आशंका से सोच में पड़ जाता। ऐसा तबतक होता जब तक कि देर रात या दूसरे दिन वह दिखाई नहीं दे जाता। उनके आते ही मै पार्किंग में खड़े वाहनों के बोझ तले दबे रहने के बावजूद काफी खुश रहता और मन ही मन लोरी गा-गाकर उन्हें सुलाता और खुद जागता रहता।
उस समय मै गुस्से से तमतमा उठता जब डंडा फटकारते हुए कोई सिपाही आता और एक-एक के ऊपर डंडा बजाता, दो-चार गालियां देता और जो कुछ भी जेब में होता, उसे लेकर चल देता। उस समय सिपाही ऐसे अकड़ कर चलता जैसे कि मानों यह उसका अधिकार है। सिपाही को देखते ही सारे लोग आतंकित हो जाते और टकटकी लगाए मुझे देखते रहते। जैसे कि मानों कह रहे हों- मेरे आश्रयदाता! काश, तुम इस महाकाल से भी मुझे बचा सकते। मुझसे यह सब देखा नहीं जाता। खून का घूंट पीकर बेजान मिट्टी की तरह पड़ा रहता और उनपर ढाए जा रहे अत्याचार को मूक बन कर देखता रहता।
सिपाही के वापस जाने के देर रात तक उनकी दर्दनाक कराहने और सुबक-सुबक कर रोने की आवाज सुनता और अपने आप पर गुस्सा करता। मै इनको आश्रय दे सकता हूं तो इनकी हिफाजत भी करनी चाहिए। लेकिन मै ऐसा नहीं कर पाता। आखिर क्यों? मै इसी उधेड़बुन में पूरी रात लगा रहता।
सूरज की किरणों के बिखरने के साथ ही लोग अपने फटे-पुराने चीथड़ों को उठाते, धूल झाड़ते और चल देते। मै उन्हे जाते हुए देखता रहता और उन्हें रोकने का प्रयास करता। लेकिन अपने में खोए चले जाते। एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखते। मै एकटक अपने मेहमानों को जाते हुए देखता रहता। फिर शुरू होता भारी भरकम वाहनों के पहियों का बोझ और जूतों की ठोकरों से पैदा हुआ दर्द। इसके बावजूद मै खुशी-खुशी यह सब वर्दाश्त कर लेता, क्योंकि दिन ढलते ही दुनियाभर का दर्द झेल रहे अपने जैसों का साथ होगा। उनको आश्रय दुंगा और मूक ही सही अपना दु:ख-दर्द बयां करुंगा। 
                - जय प्रताप सिंह
            मोबाइल- 9005919184

Tuesday, February 8, 2011

जुलूस

          वह एक मजदूर था। कारखाने में छपाई का काम करता था। काम करने के बीच उसे जब थोड़ा समय मिलता तो वह मजदूरों के जीवन के बारे में ढेर सारी बातें करता  और फिर शांत हो जाता। अगर कुछ शेष बचता तो धुआं छोड़ती मशीनों की गडग़ड़ाहट और छोटे-छोटे अक्षरों में निकले कागजों के बंडल। मशीन के बंद होते ही उसकी तंद्रा टूट जाती और दो-चार देशी गाली देते हुए जेब से तम्बाकू निकाल कर हाथ में मेठता और दो-चार ताल दे कर होंठों के बीच दबा लेता। इसके बाद थुकों का गुबार बनाता और आसपास नजर दौड़ाकर थूक देता। मशीन के एकाएक बंद हो जाने पर उसके एक-एक पुर्जे को खोलता और फंसे हुए कागज को निकाल कर नट बोल्ट कस देता। हाथ और चेहरे पर पुते कालिख को तेल में सने कपड़े से साफ करने का अशफल प्रयास करता और छपाई करने में तल्लीन हो जाता।
उसका पूरा नाम चिंतामणि था, लेकिन उसके मजदूर साथी उसे चिंता कहकर ही पुकारते थे। वह लम्बे कद और दुबला पतला तीस साल का नौजवान था। लेकिन हाड़तोड़ मेहनत और रूखा-सूखा खाने की वजह से कोई भी उसकी उम्र को चालीस साल से कम नहीं आंकता। उसके चेहरे पर असमय ही झुॢरयां पड़ गई थीं। गड्ढों में से झांकती हुई उसकी छोटी-छोटी आंखों में काफी तेज था। वह इतना नम्र स्वभाव का था कि हर किसी पर विश्वास कर लेता। उसने कई सालों से नोएडा शहर की झुग्गी बस्ती में जोड़ जुगाड़ से एक छोटी सी कोठरी बना रखी थी। वह इसी सीलनभरे बदबूदार झुग्गी में रहता था, जहां पर चौबिसों घंटे अंधेरा था। उस कमरे में तंबाकू और मशीन के तेल की भीनी-भीनी गंध मौजूद थी। उस झुग्गी बस्ती में हजारों छोटी-छोटी झुग्गियां थीं जिसकी हालात कमोबेश एक जैसी ही थी। कोठरी छह फुट लंबा और चार फुट चौड़ी थी। कोठरी में लकड़ी का एक तखत पड़ा था और उसके ऊपर धूल में लिपटे चिथड़े पड़े थे। इन्ही चीथड़ों को शरीर में लपेटता और सो जाता। उसी में खाने का सामान भी रखता था, जिसे दो-चार लकडिय़ां सुलगा कर रूखा-सूखा बनाता और अपनी छुधा को शांत कर लेता। कोठरी के पास से ही एक नाली बहती थी। इसी नाली में लोग बाग  ''मूदहुं आंख कतहुं कछु नाहींÓÓ वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए पेशाब कर लिया करते थे। उनके लिए इससे बेहतर और कोई जगह थी नहीं। वहीं पर दो ईंट ऊंचा करके एक संडास घर बना था। उसमें फाटक की जगह एक फटा-चिटा प्टास्टिक का बोरा लटका दिया गया था जिसमे बाहर से सबकुछ साफ दिखता था। यही कारण था कि मिली-जुली एक विशेष प्रकार की गंध पूरी झुग्गी में मौजूद थी।
रुक-रुक कर बिजली कड़क रही थी। न मालूम कब से काले काले डरावने बादल जमे हुए थे। उसी अंधेरी काली रात में बिहारी लाल आत्माराम के साथ आ धमके थे। आत्माराम को देख कर चिंता अपने दिमाग पर जोर डाल कर कुछ याद कर रहा था। आत्माराम ने आगे बढ़कर उससे हाथ मिलाया और बिना किसी संकोच के तखत पर पड़े चिथड़ों को फैला कर बैठ गया। चिंता कुछ बोल पाता कि तभी बिहारी लाल ने कहा- मै तुमसे मिलने ही आ रहा था कि रास्ते में यह भी मिल गए। मैने सोचा! चलो तुमसे ही मिलवा दूं।
आत्माराम दुबले पतले चौबीस साल के नौजवान थे। उनके  चेहरे से तेज टपक रहा था। तखत पर बैठते ही उन्होंने एक गिलास पानी मांगी और एक ही सांस में गटक लिया। उन्होंने गड्ढों में से झांकती हुई अपनी पैनी नजरों से कोठरी का मुआयना करते हुए गम्भीर स्वर में कहा- क्या हमारी जिंदगी गुलामों से बदतर नहीं है? हम दूसरों के लिए आलीशान मकान बनाते हैं, उनके खाने पीने के सामानों का उत्पादन करते हैं और खुद नरक जैसी जिंदगी व्यतीत करते हैं। आखिर कब तक हम इस तरह की जिंदगी जीते रहेंगे? कब सोचेंगे हम अपने बारे में? हमारी यह टाट बोरे से बनाई गई टूटी-फूटी झुग्गियां भी सरकार को फूटी आंखों नहीं सुहा रही हैं। सरकार ने इसे एक ही झटके में बुलडोजरों के हवाले कर देने का मन बना  चुकी है। रौंद डालना चाहती है, हमे और हमारे अरमानों को। यह अंतिम वाक्य चिंता को ऐसे लगा जैसे उसके सिर पर  मनभर  का हथौड़ा चला हो। वह चौंक कर उन्हें देखने लगा। वह डर गया। क्योंकि बहुत दिनों बाद किसी ने उसकी दुाखती रग पर हाथ रखा था। आत्माराम ने आगे कहा- हमारे सामने अब एक ही रास्ता है। हम सबको संगठित हो कर आंदोलन करना चाहिए। संघर्ष से ही हमे मुक्ति मिल सकती है। हमे एक पर्चा छाप कर झुग्गी बस्ती में बांटना चाहिए। हमे यह ध्यान रखना होगा कि कहीं यह आंदोलन गलत होथों में न पड़ जाए। आत्माराम ने एक घूंट पानी पी और बात को जारी रखा। चिंता ने आत्माराम के चेहरे पर ऐसी चमक देखी मानों अंधेरे को चीर कर चंद्रमा का प्रकाश चारो ओर फैल गया हो।
चिंता को दूर कहीं एक चिनगारी दिखई दे रही थी। उसे अब अपमान भरी जिंदगी से नफरत होने लगी। उसके अंदर मुक्ति के लिए छटपटाहट पैदा हो गई। वह बहुत ही जल्द सबकुछ बदल देना चाहता था। लेकिन उससे पहले इस झुग्गी को बचाना उसके लिए जीवन मरण का सवाल था। वह मुंह अंधेरे उठकर दातून-कुल्ला करके आत्ममराम के दिए हुए पर्चे को लेकर अपने जैसों से बातें करता। वह एक ऐसा आंदोलन खड़ा करना चाहता था जिससे पूरा प्रशासन हिल उठे और खून पसीने से बनी उसकी झुग्गियां बच जाएं। वह आत्माराम का क्रितज्ञ था।
सभा होने के दूसरे दिन वह अपनी खबर छपने की उम्मीद से अखबार के पन्ने पलटता रहता, लेकिन कहीं भी कोई खबर दिखाई नहीं देती। उसे यह देखकर बड़ा ताज्जुब होता कि बिहारी लाल जब कोई सभा करता है तो उसकी खबर ही नहीं बल्कि फोटो भी छपता था। लेकिन आत्माराम का तो कहीं नामोनिशान नहीं। उसे यह सब देखकर बड़ा दुख होता, क्योंकि आत्माराम उसके आदर्श बन चुके थे। उसके सामने आत्माराम का वह चेहरा घूम जाता जब वह झुग्गियों के बाहर लकड़ी के टूटे-फूटे कुर्सी पर खड़ा हो कर दिल को भेद देने वाले भाषण देते। उनके एक-एक शब्दों से अपनापन की गंध आती।
वह किसी भी काम के लिए कारखाना से छट्टी ले लेता और उन नौजवानों के साथ पर्चा बांटने में मदद करता। वह यह सोचता था कि क्रांति के लिए उसकी बेकार जिंदगी का सही जगह इस्तेमाल हो रहा है। वह बिहारी लाल के भी सभाओं में जाना बंद नहीं किया था, क्योंकि वे तो उसके पास के ही थे। उसे बिहारी लाल से भी काफी उम्मीद थी। 
सूरज की किरणें अभी पूरी तरह से विखर भी नहीं पाई थीं कि झुग्गी के चारो ओर बच्चे, बूढ़े और नौजवान नारा लगाते हुए घूम रहे थे। कुछ तो माथे पर लाल रंग की पट्टियां बांधे ऐसे चल रहे जैसे की युद्ध के मैदान में हों। वह किसी दल के नहीं थे बल्कि उन्होंने स्वयं ही अपनी यह हुलिया बना रखी थी। वह मरने और मारने पर उतारू थे। रास्ते में जो भी साइकिल या रिक्शा चलाते मिल जाता उनके पहियों का छुच्छी खोलते और फेंक देते। सड़कों पर लकड़ी का कुंदा रख कर जाम कर दिया गया था। यदि कुछ था तो सायरन बजाती हुई पुलिस की गाड़ी। लगभग पूरा शहर पुलिस छावनी में तब्दील था। महिलाएं भी कम नहीं थीं। वे हाथों में झाड़ू-डंडा लिए घर से अन्य औरतों को हाथ पकड़कर खींचतीं और जुलूस में निकल पड़तीं। आत्माराम अपने गिने-चुने साथियों के साथ झुग्गियों में लोगों के हाथों में पर्चा थमाता, तेज तर्रार भाषण देता और जुलूस में चलने के लिए उत्साहित करता। वह कागज पर लाल-लाल रंग से लिखे नारों ''झ़ग्गी-झोपड़ी जिंदाबाद, हम अपना हक लेकर रहेंगेÓÓ का ऐप्रिन अपने शरीर पर पहन रखा था।
सूरज की गर्म-गर्म किरणें शहर को अपने आगोश में ले चुकी थीं। बिहिारी लाल चमचमाता हुआ कुर्ता और जैकेट पहने खुले जीप में बैठा हुआ था। जीप के आगे पीछे दो माइक बंधे हुए थे। वह उत्तेजित भाषण दे रहा था। उसकी आवाज में तलवार की धार की तेजी थी। जैसे ही वह रुकता तालियों की गडग़ड़ाहट और हजारों कंठों से नारे गूंज उठते थे। वह खुशी के मारे फूले नहीं समा रहा था। वह अपने आपको दुनिया का सबसे महान नेता मान बैठा था। शायद इसीलिए उसके चाल में अकड़ भी पैदा हो गयी थी। उसके आंखों के सामने प्रधानमंत्री की कुर्सी के सिवा शायद कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। इन भूखे-नंगों हजारों कंठों से निकले कर्णभेदी नारों से अपार्टमेंटों और कालोनियों की खिड़कियां खुल गई थीं। इन खिड़कियों से एक नहीं कई कई आंाखें हजारों के जनसमूह को देखकर आतंकित हो रही थीं। हर किसी के मुंह से एक ही बात निकलती- आगे क्या होगा? क्या होगा?
चिंता इतना उत्साहित था कि वह बाकी का सबकुछ भूल ही गया। वह भी बिहारी लाल के साथ खड़ा होकर दो-चार बातें कहना चाह रहा था। लेकिन बिहारी लाल के ठाट को देखकर उसका हिम्मत छूट गया। वह आगे बढ़ ही रहा था कि उनके आदमियों ने उसे परे धकेल दिया। अब उसे आत्माराम का वह चेहरा जिसमें वह अपने आपको देख रहा था, उसके आंखों के सामने नाचने लगा। वह उन्हें मंच पर देखना चाहता था। उसकी आंखें हजारों लोगों के बीच आत्माराम को खोज रही थीं। उसे दूर कहीं नारों की आवाज सुनाई दी जहां पर आत्माराम हाथ में तख्ती लिए खड़ा बिहारी लाल को देख रहा था। वह उसके पास पहुंचने ही वाला था कि तभी जुलूस आगे बढ़ गया।
गरमी से पूरा शरीर जल रहा था। लोग बाग माथे से पसीना पोछ रहे थे। कोई अंगोछे को निकाल कर हवा करता तो कोई चेहरे को ढकने का अशफल प्रयास करता। नोएडा प्राधिकरण को चारो ओर से झुग्गीवासी चिल्लाचिल्ला कर नारे लगा रहे थे। खुली जीप एक पेड़ के छाये में रुक गई। जुलूस धीरे-धीरे सभास्थल में तब्दील हो गया। मंच पर बिहारी लाल ने अपने बड़े नेता रघुबीर सिंह को हाथ पडकर खड़ा किया और उनके जयजयकार के नारे लगवाए।
प्राधिकरण कार्यालय जयकारे के नारे से गूंज उठा। रघुबीर सिंह मोटे और थुलथुल व्यक्ति थे। उनका तोंद इतना भरी था कि वह शरीर से निकल भागने को बेताब था। इसलिए उनको मंच पर खड़ा करने में बिहारी को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। उसने अपनी मोटी आवाज में कहा- हमारी झुग्गियों पर जो कोई भी आंख उठाकर देखा तो मै उसकी आंखें निकाल लुंगा। झुग्गियों को भले ही हटा दिया जाए लेकिन हमे अलग से प्लाट मिलना चाहिए। हमारे झुग्गीवासी उसी में अपना गुजारा कर लेंगे।
इस बात से चिंता को बड़ा धक्का लगा। क्योंकि उसे पहले से मालूम था कि प्लाट लेने के लिए राशन कार्ड और तमाम कागजातों की जरूरत पड़ती है, जिसे शायद ही कोई झुग्गीवासी उपलब्ध करा पाए। उसने याद करने की कोशिश की जिससे उसके माथे पर बल पड़ गया। ''आच्छा तो यह बात है। उस कुछ दिन पहले ही बिहारी लाल ने पहले झुग्गियों को बचाने के लिए लाखों रुपये का चंदा वसूला था। फिर राशन कार्ड और अन्य कागजात बनवाने के लिए एक-एक हजार रुपये की और मांग की थी। जिसका कोई नतीजा नहीं निकला। अब फिर वही सबकुछ करने के फिराक में हैं।ÓÓ उसने बिहारी लाल का मुस्कुराता हुआ चेहरा देखा और फिर रघुबीर सिंह को। उसको मतली आने लगी और बगल में थूक दिया।  वह जोर-जोर से चिल्लाना चाह रहा था कि भीड़ में गुमसुम खड़े आत्माराम दिख गये।
वह उनके पास पहुंचा और खींचते हुए मंच के पास ले गया। वह आत्माराम को मंच पर देखना चाहता था। मंच की ओर आते देख बिहारी लाल के इसारे पर चार-पांच मुस्टंडों ने दोनों को ऐसा धक्का दिया कि वे गिरते-गिरते बचे। चिंता हक्का-बक्का बिहारी को देखता रहा। उसे सबकुछ समझने में देन नहीं लगी।
धीरे-धीरे नारों की आवाज खत्म होती गई। वहां पर अगर कुछ बची थी तो गर्मी से बेहाल बच्चों के राने की आवाज। उसे जोर की प्यास लगी थी। वह पानी पीकर अपने आपको ढंडा करना चाह रहा था। पानी के नल तो थे नहीं जिससे उसकी प्यास बुझती। इसके बाद वहां क्या हुआ? किसी को कुछ पता नहीं। सभास्थल पर जीप खाली पड़ी थी। नेतागंण कार्यालय के अंदर अधिकारियों से गुप्तगू कर रहे थे।
सभास्थल खाली हो चुका था। सूरज अपनी लालिमा के साथ पश्चिम में विलीन हो रहा था। सड़कों पर भोपू बजाते वाहन भगे जा रहे थे। अंधेरे ने प्राकाश पर विजय पा लिया और पूरे शहर को अपने आगोश में समेट लिया। चिंता झुग्गी में पहुंचते ही तखत पर चिथड़े को उठाए बिना ही औंधे मुंह लेट गया। उसके दिमाग में अजीब अजीब विचार आने लगे। वह सोचता रहा कि आखिर सत्य क्या है? सत्य क्या है? क्या यह समाज बिहारीलाल और रघुबीर सिंह जैसे लोगों से भरा पड़ा है या कोई और? वह काफी देर तक इसी उधेड़बुन में लगा रहा।
वह अब किसी से बात नहीं करता। सुबह कारखाने जाता और देर रात को अपनी कोठरी में बैठ कर गांजा का कश खींचता। ''नहीं! इस दुनिया में अच्छें लोग भी होंगे।ÓÓ वह पागलों की तरह बड़बडा रहा था उसके सामने आत्माराम का चेहरा आइने की तरह साफ दिख रहा था। वह बहुत ही जल्द आत्माराम से मिलना चाह रहा था। करवट बदलते-बदलते उसे नींद आ गई। वह जब जागा तो अंधेरा कबका छंट चुका था। और सूरज की किरणें चारो ओर फैल चुकी थीं।