Thursday, September 29, 2011

पीड़ा


- जय प्रताप 

पीड़ा से वह तड़प रही थी। तीन फुट चौड़ी गली में झुग्गी की औरतें भीड़ लगाए खड़ी थी। गली में तिल भर भी जगह नहीं था, जिसके कि अंदर क्या हो रहा है, उसका जायजा लिया जा सके। बिजली भी आंखमिचौली का खेल खेल रही थी। यही वजह थी कि पूरी झुग्गी बस्ती को अंधेरे ने अपने कब्जे में ले लिया था।

औरतें एक-दूसरे से कहती- ''अब इसका भगवान ही मालिक है। इसे कोई नहीं बचा सकता, यह मर जाएगी।'' दूसरी कहती, ''इसका मरद भी नहीं है। पता नहीं वह आज आऐगा कि नहीं। आता तो शायद अस्पताल ले जाने पर बच जाती। इसका है ही कौन जो इसका दवा दारू करवाए।'' कहते हुए उसने अपने पल्लू से आंख पोछी और चली गई। बाकी की औरतें भी अपनी गर्दन को उठाती, उस सीलन भरी अंधेरी कोठरी में झांकती और दूसरी को देखने का मौका देते हुए एक ओर को सरक जाती। एक औरत ने चिल्लाते हुए कहा, यह लड़का नहीं राक्षस है राक्षस जो पैदा होने से पहले ही मां को खा लेगा। डॉ क्या करेगा, जो लिखा है, वही होगा। इसे अब ऊपर वाले का ही भरोसा है।

चार फुट चौड़ी और सात फुट लंबी कोठरी थी। जिसे चारों ओर से एक के ऊपर एक र्इंट डाल कर खड़ा किया गया था। प्लास्टिक के ऊपर थर्मोकोल के टुकड़ों को डालकर छज्जा बनाया गया था। बरसात का पानी तो मानो कसम खा लिया था कि मुझे कमरे से बाहर जाना ही नहीं है। लेकिन सूरज की गरम-गरम किरणें काफी दिनों से अंदर जाने के लिए संघर्ष करती रहीं। बगल में पानी से लबालब भरी एक नाली बह रही थी, जिसका थोड़ा बहुत पानी कोठरी में घुस गया था। पूरी कोठरी चीथड़ों से भरी पड़ी थी। एक कोने पर सोने का बिस्तर तो दूसरे पर अंगीठी रखी गई थी। इसमें से धुंआ उठ रहा था, जिससे आंखों में जलन हो रही थी। यही कारण था कि कोई भी औरत अंदर जाने से कतराती थी।

वह जोर-जोर से पैरों को पटक रही थी। उसका आधा शरीर कोठरी में फैले पानी में भीग चुका था, जिससे गरम-भरी मौसम में शरीर को राहत मिलती थी। ''मुझे बचा लो, मैं मर जाऊंगी। कोई मेरे मरद को बुला दे। डॉक्टर ने कहा है कि तुम्हारा म्ं इलाज नहीं करूंगा, तुम अस्पताल जाओ। आह....। उसकी दर्दनाक चीख निकल पड़ी और बेहोश हो गई। जब भी उसे हाथ आता, वह लोगों की ओर एक तक देखती और दर्द से छुटकारा पाने की याचना करती।

वह कई सालों से नोएडा के सेक्टर-9 की झुग्गी में रह रही थी। उसका पति एक दिहाड़ी मजदूर था। उसे कभी-कभी तो महीनों काम मिलते रहते, लेकिन कभी ऐसा भी दिन आता, जो फांके मस्ती मे गुजरता। तीस साल की उमर में ही उसके तीन बच्चे पैदा हो गए थे, जो धूल मिट्टी में सने नंग-धड़ंग झुग्गियों में घूमा करते। उन्हें पढ़ाने लिखाने का तो दूर शरीर को ढकने के लिए कपड़ों का भी इंतजाम नहीं कर पाते।

उसे काफी दौड़-भाग के बाद कब्जा बनाने वाली एक कंपनी में काम मिल गया था। बारह से चौदह घंटे काम करने के बाद वह इतना थक जाती की बड़ी मुश्किल से खाना बना पाती। बच्चों की देखभाल करना तो दूर की बात थी। पेट में बच्चा होने से उसके लिए बारह घंटा काम करना मुश्किल हो रहा था। कभी-कभी तो उसकी इच्छा होती कि वह काम छोड़ दे। लेकिन रोटी की संकट उसे काम करने पर मजबूर कर रही थी।

मालिक को जब यह पता चला कि वह पेट से है, तो उसने बिना देर किए उसे काम से निकाल दिया। वह कई दिनों से बीमार चल रही थी। वह डॉक्टर के पास नहीं जा रही थी, क्योंकि उसे डर था कि डॉक्टर 500 रुपये का बिल बनाएगा। उसे वह कहां से देगी। उसके लिए तो पचास रुपये भी ज्यादा थे। इसका पति फरीदाबाद में एक कंपनी में काम करता था। वह मुंह अंधेरे घर से निकल जाता और देर रात को वापस आता। इतवार को भी उसे छुट्टी नहीं मिलती थी। यह किसी दिन बीमार हो जाता तो उस दिन की दिहाड़ी भी खत्म हो जाती। पत्नी के साथ बैठ कर आराम से बात करना तो उसे नसीब नहीं था। कई दिनों दिनों से उसके जेब में फूटी कौड़ी नहीं थी। उसे, मालूम थी कि बिना पैसे का पत्नी का इलाज नहीं हो सकता, लेकिन सब जानकर भी वह अनजान बना हुआ था। आखिर एक दिन मैनेजर के पास चला ही गया। 

''बाबू जी मुझे कुछ एडवांस दिलवा दीजिए। मेरी बीवी को बच्चा होने वाला है। उसे अस्पताल भी ले जाना पड़ सकता है। चार दिन की छुट्टी भी चाहिए।'' एक ही सांस मे वह बोलता गया।

"जाओ काम करो। दोबारा यहां आने की हिम्मत मत करना। अभी छह महीना भी काम करते नहीं हुआ और तुम्हे एडवांस की जरूरत पड़ने लगी। उसे बच्चा जनना होगा तो जन ही देगी। अभी माल बाहर भेजना है, इसलिए छुट्टी का तो नाम ही मत लेना। रहा एडवांस का तो बाद में देखा जाएगा।" मैनेजर ने गुस्से में कहा। वह चला आया और सब कुछ अपने भाग्य पर छोड़ दिया।

एक-एक कर सभी औरतें चली गई। वहां अगर कुछ बचा था तो दर्द भरी कराह और भूख से तड़पते बच्चों की चिल्ला-पों। उसमें इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि वह बच्चों के सिर पर हाथ रखकर अपनी ममता को उनपर न्योछावर कर सके।

अचानक जोर की पीड़ा हुई और उसने नीचे के होंठ को दांतों से भींच लिया, जिससे खून की एक धार फूट पड़ी। दर्दनाक चीख के साथ वह बेहोश हो गई। इस दृष्य को देख रहे एक व्यक्ति ने दोनों हाथों से अपने आंखों को ढांकते हुए एक छोटी सी छुग्गी में घुस गया। उसने जब अपना हाथ हटाया तो वह आंसुओं से भीग चुका था। वह काफी देर से इस वाक्य को देख रहा था, लेकिन वह क्या करे, कोई भी निर्णय नही ले पा रहा था। वह कई बार उसकी सहायता करने के लिए आगे बढ़ता फिर पीछे मुड़ जाता।

वह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि एक छोटा-मोटा होमियोपैथिक डॉक्टर था। वह दिन भर झोले में दवाइयां भरकर झुग्गियों में लोगों का इलाज करता और जो कुछ कोई देता उसी से अपना गजारा कर लेता। वा भी पड़ोस की झुग्गी में रहता था। घंटों से वह इस वाक्य को देख रहा था और औरत के पास जाने की हिम्मत जुटा रहा था।

आखिरकार उसने पीड़ा से कराह रही औरत के पास जाने का निर्णय कर लिया। उसने अधखुले फाटक पर दस्तक दिया और कुछ पल इंतजार करने के बाद उसे पूरा खोल दिया। अंदर का दृष्य देख कर वह दंग रह गया। फर्श पर बिखरे पानी में वह औरत अधनंगी पड़ी थी। वह अपने दोनों हाथों से चेहरे को दबाए हुए थी। अंगुलियों के बीच ताजे खून के थक्के जमे हुए थे। वह उलटे पांव कमरे से बाहर निकला और पड़ोस की एक औरत को आवाज देकर फौरन कमरे में गया और बाल्टी से एक अंजुल पानी लेकर उसके चेहरे पर छींटा मारा। बड़ी मुश्किल से उस औरत ने आंख खोली और उसने दोनों हाथों को एक साथ जोड़ने का काफी देर तक प्रयास करती रही। उसके आंखों को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कि कह रही हो। डॉक्टर बाबू मुझे इस दर्द से छुटकारा दिलवा दो।

'' डॉक्टर बाबू! हमका बुलाए हो, का बात है, ऊ जिंदा है कि नाहीं।" पड़ोस की एक औरत ने कमरे में घुसते हुए कहा। 

"हां जिंदा है।" डॉक्टर ने कहा, "इसका शरीर बुखार से तप रहा है। इसे उठा कर खाट पर लिटाना पड़ेगा।" यह कहते हुए उसने बगल में पड़ी खाट पर गुदड़ी को पसार दिया ओर उस महिला की सहायता से बीमार को खाट पर लिटा दिया। वह काफी देर तक उसके माथे पर भीगी पट्टी को बदलता रहा और पांच-दस मिनट पर उसके मुंह में दवा का बूंद डालता रहा।

दवा लेते अभी एक घंटा भी नहीं हुआ था कि वह हृदय विदारक चीख के साथ छटपटाना शुरूकर दी। डॉक्टर ने अपनी आंखें बंद कर ली और अपने दोनों हाथों से उसके पेट को सहलाता रहा।

अचानक एक नवजात शिशु के रोने की आवाज आई और उसने अपनी आंखें खोल दी। बच्चे की आवाज सुनते ही पड़ोस की महिलाएं एक बार फिर उस छोटी सी झुग्गी के आसपास जमा हो गई। डॉक्टर का चेहरा खुशी से चमक उठा। वह भीड़ से रास्ता बनाता हुआ निकल गया।

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