Tuesday, July 20, 2010

भीख मांगते वनवासी

-अनिल दूबे, जौनपुर
पिछले दिनों जब मैं उत्तर प्रदेश स्थित जौनपुर जिले के अंतर्गत सुजानगंज के भुइधरा गांव लौटा तो वहां की स्थिति देखकर दंग रह गया। ब्राह्मण बाहुल्य इस गंाव में कई अन्य जातियों के लोग भी रहते हैं, जो इस व्यथा को दर्शाता है कि जाति सदैव कर्म से जुड़ी होती है। आप सिर्फ अपनी जाति द्वारा किया गया कार्य ही कर सकते हैं। खैर बढ़ती जनसंख्या एवं घटते संसाधनों ने अधिकतर नौजवानों को बड़े शहरों में जाकर कमाने के लिए मजबूर कर दिया है। गांवों में बस बूढ़े मां-बाप ही बाकी बचे हैं। इसी गांव में एक जाति है वनवासी, हालांकि उन्हें मुसहरा के नाम से भी पुकारा जाता है। गांव में बिजली, सड़क, परिवहन, विद्यालय आदि का विकास हुआ या नहीं, यह नहीं कह सकते लेकिन एक कार्य अवश्य देखने को मिला है कि पहले जहां शादी या भोज के अवसर पर लोग पत्तलों में भोजन करते थे और मिट्टी के कुल्हड़ों में पानी पीते थे। वहीं अब बाजार से खरीदे गए प्लास्टिक के बर्तनों का इस्तेमाल कर रहे हैं। ढाक एवं बरगद के पत्तों से पत्तल बनाने वाले बनवासियों के जीवन पर संकट के बादल छा गये हैं। ऐसे बादल जो शायद इस जाति के समाप्त होने पर ही हटेंगें।
एक माह पूर्व मैं सुजानगंज स्थित एक मंदिर में अपनी माताजी के साथ दर्शन के लिए गया था। मंदिर से निकलते ही सीढिय़ों पर बैठा भीखरियों का हुजूम हमारी ओर बढ़ता चला आया। मैं जैसे ही दो कदम आगे को बढ़ाया कि भिखारियों का एक परिवार जिसमें दो औरतें एक बूढ़ा और दो बच्चे हमारी तरफ आये। माताजी ने उनसे कहा कि फूटकर पैसे समाप्त हो गये हैं। इस पर एक भिखारी ने कहा कि आपने हमें पहचाना नहीं, हम आपके गांव के बनवासी हैं। माताजी ने दस रुपये के सिक्के को उन्हीं लोगों के बीच में बांट दिया।
जब परिवार के अन्य सदस्य अन्य समानों की खरीदारी में लगे हुए थे, उस समय मैंने उनसे उनकी समस्या को जानने की कोशिश की। जो कुछ उन्होंने बताया उसे सुनकर बड़ा अचंभा हुआ।
उन्होनें बाताया कि अपने पूर्वजों की तरह ढाक एवं बरगद के पत्तों से पत्तल बनाने, खलिहानी खत्म होने पर खेतों में पड़े अन्न को बीनने एवं भोज कार्य में कुत्तों से भोजन छीन कर जीवन निर्वाह करते थे। इसमें सबसे मुख्य कार्य पत्तल बनाकर बेचना था जिसमें 20 से 25 रुपये में 100 पत्तल और दोने दिये जाते थे, लेकिन पिछले दो सालों में शहर की हवा गांवों में पहुंच चुकी थी। लोग पत्तलों की बजाय प्लास्टिक के बर्तनों, जो 200 रुपये सैकड़ा था, का प्रयोग करना शुरू कर दिया। ऐसे में बनवासियों के दोने और पत्तल कौन खरीदता। जिसका सीधा असर उनके वर्तमान स्थिति से जुड़ा था। चूंकि बनवासी होने के कारण वे अन्य कार्य करने के लिए निषेध थे। गरीबी और भुखमरी के कारण उनके बच्चे कुपोषण के शिकार हो गये या असमय बूढ़े हो गये। वे काम की तलाश में आसपास के शहरों में पलायन कर चुके हैं। पिछे रह गये घर के बुजुर्ग, औरतें और बच्चे जो अब मंदिरों या गलियों में भीख मांग कर अपना तथा अपने परिवार का पेट भर रहे हैं।
जो सबसे बड़ा प्रश्न है वह यह है कि बनवासीयों की व्यथा के लिए कौन जिम्मेदार है? सरकार, प्रशासन या हम सभी। वैसे तो हम सभी शामिल हैं। बनवासी हमसे कुछ नही मांगते और न ही हमे दोष देते हैं। वे अपने बच्चों के लिए शिक्षा और बीमारी से मर रहे बुजुर्गों के लिए दवाइया व ईलाज पैसे भी नहीं मांगते। उन्हें सिर्फ पेटभर भोजन चाहिए, क्यों न दिन में एक बार ही मिले। लानत है, इस व्यवस्था, प्रशासन और समाज पर जो उन्हें पेट भर भोजन मुहैया नहीं करा सकता। मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा कि कल अगर मेरे अपने गांव से एक और नक्सलबाड़ी आंदोलन का उदय होता है, क्योंकि हमारी आदत बन चुकी है कि जब तक हमें चोट नहीं लगती तब तक हमें दूसरों के दर्द का एहसास नहीं होता, जब तक हमारे कान में कोई जोर से न चिल्लाये हमें सुनाई नहीं देता। हम सो नहीं रहे, सोने का नाटक कर रहे हैं। हम देख नहीं पा रहे बल्कि हम देखना नहीं चाहते। अब भी समय है हम नहीं चेते तो बहुत देर हो जायेगी। इस जाति व्यवस्था के चक्कर में हम एक जनजाति की बली नहीं ले सकते। किसी भी तरह गांव के लोगों को समझना होगा कि प्लास्टिक का बर्तन न केवल बनवासियों के जीवन पर मृत्यू बनकर छाया है बल्कि पर्यावरण के लिए भी घातक है। बनवासियों हिम्मत मत हारना, हमे तुम्हारी आवष्कता है, कोशिश जारी है। तबाही की गर्त में जाने वाले अकेले तुम ही नहीं हो बल्कि हम सभी हैं। यह व्यवस्था खुद-ब खुद हमें तबाही गर्त की ओर ले जाने का प्रयास कर रही है। हमें इस व्यवस्था, इस समाज को ही बदलना होगा।

4 comments:

  1. भाई अनिल जी आपने अपने क्षेत्र की जो यह कहानी लिखी है वह सिर्फ आप ही के गांव की नहीं है बल्कि देश के सभी क्षेत्रों में रहने वाले उन मेहनतकशों की है जो इन सरकारों की मार झेल रहे हैं। आपने उनकी जिंदगी को कागजों पर उकेर कर एक सराहनीय कार्य किया है।

    मान सिंह चौहान
    गौतमबुद्धनगर

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  2. भाई अनिल दुबे जी आपके इन विचारों से मेरा गला पसीज गया। वास्तव में हमारें देश की बडी विडंबनाओं में से यह एक बडी विडंबना है कि यहां पर गरीब बनवासियों की तरफ आजतक किसी भी सरकार ने ठीक से ध्यान नहीं दिया है।

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  3. kya kahu anil bhai ek taraf ye bechare bhook se taraste log hai.........aur ek taraf hamare saansad...jo 50 hazar mahine par bhi khush nahi hai

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  4. life insurance Corporation of India launched the new health insurance method for Indians associated to the health. The LIC India is the massive corporations for the future planning & sake money for the future.

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