Friday, July 30, 2010

शशि प्रकाश मेरे आदर्श थे !

हमने महसूस किया कि शशि प्रकाश का शातिर दिमाग पुनर्जागरण-प्रबोधन की बात करते हुए प्रकाशन और संस्थानों के मालिक बनने की होड़ में लग गया और हमलोग उसके पुर्जे होते गए.मेरा साफ मानना है कि शशि प्रकाश को हीरो बनाने में कुछ हद तक कमेटी के वे साथी भीजिम्मेदार रहे हैं जिन्होंने सब कुछ समझते हुए भी इतने दिनों तक एक क्रांति विरोधी आदमी का साथ दिया.
जय प्रताप सिंह
रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट लीग ऑफ इंडिया एक कम्पनी है जो शहीदे आजम भगत सिंह नाम पर युवाओं को भर्ती करती है.इसके लिए कई तरह के अभियानों का नाम भी दिया जाता है. उदाहरण के लिए 'क्रांतिकारी लोग स्वराज अभियान. कार्यकर्ता चार पेज का एक पर्चा लेकर सुबह पांच बजे से लेकर रात 8बजे तककालोनियों, मोहल्लों, ट्रेनों, बसों आदि में घर-घर जाकर कम्पनी के मालिक माननीय श्री श्री शशि प्रकाश जी महाराज द्वारा रटाए गये चंद शब्दों को लोगों के सामने उगल देते हैं । लोग भगत सिंह के नाम पर काफी पैसा भी देते हैं। पैसा कहां जाता था यह सब तो ईमानदार कार्यकर्ताओं के लिए कोई मायने नहीं रखता था लेकिन इतना तो साफ था कि पारिवारिक मंडली ऐशो आराम की चीजों का उपभोग करती थी । उदाहरण के लिए लखनऊ और दिल्ली केपाश इलाके में रहने, और उनके बेटे जिन्हें भविष्य के लेनिन के नाम से नवाजा जाता था, उसके लिए महंगा से महंगा म्यूजिक सिस्टम, गिटार आदि उपलब्ध कराया जाता था।
इसी संगठन के एक हिस्सा थे कामरेड अरविन्द जो अब नहीं रहे। अरविंद एक अच्च्छे मार्क्सवादी थे, लेकिन सब कुछ जानते हुए भी संगठन का मुखर विरोध नहीं करते थे,जो उनकी सबसे बड़ी कमजोरी थी। अरविंद चूंकि जन संगठनों से जुड़े हुए थे और जनसंघर्षों का नेत्रृत्व भीकरते थे इसलिए कार्यकर्ताओं के दिल की बात को बखूबी समझते थे। कभी-कभी शशि प्रकाश से हिम्मत करके चर्चा भी करते थे। लेकिन शशि प्रकाश के पास से लौटने के बाद अरविंद उन्हीं सवालों को जायज कहते जिन संदेहों पर हमलोग सवाल उठाये होते. हालाँकि वह बातें उनके दिल से नहीं निकलती थी क्योंकि ऐसे समय में वह आंख मिलाकर बात नहीं करते थे। और फिर लोगों से उनके घरपरिवार और ब्यक्तिगत संबंधों की बातें करने लग जाते थे।
बाद में पता चला कि शशि प्रकाश और कात्यायनी के सामने अरविंद जब संगठन की गलत लाइन पर सवाल उठाते हुए कार्याकर्ताओं के सवालों को अक्षरश:रखते थे तो शशिप्रकाश इसे आदर्शवाद का नाम देकर उनकी जमकर आलोचना करते। उसके ठीक बाद अरविन्द को बिगुल, दायित्ववोध पत्रिकाओं के लिए लेख आदि का काम करने में शशि प्रकाश लगा देते.
वैसे एक बात बताते चलें कि इस दुकान रूपी संगठन में जब भी कोई साथी अपना स्वास्थ्य खराब होने की बात करता तो उसे उसकी ऐसे खिल्ली उड़ाई जाती थीकि वह दोबारा चाहे जितना भी बीमार हो उल्लेख नहीं करता था। इस संगठन में आराम तो हराम था। शायद यह भी एक कारण रहा होगा कि दिन रात काम करते रहने के कारण साथी अरविंद का शरीर रोगग्रस्त हो गया। दवा के नाम पर मात्र कुछ मामूली दवाएं ही उनके पास होती थीं। इससे अधिक के बारे में वे सोच भी नहीं सकते थे क्योंकि महंगे अस्पतालों में जा कर इलाज कराने का अधिकारतो शशि प्रकाश एंड कम्पनी को ही था।
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शशि प्रकाश के आंख का इलाज अमेरिका में होता था। सबसे दु:ख की बात तो यह थी कि इस क्रांति विरोधी आदमी के इलाज में जो पैसा खर्च होता था वह उन मजदूरों का होता था जो अपनीरोटी के एक टुकड़ों में से अपनी मुक्ति के लिए लड़े जा रहे आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए सहयोग करते थे।
जहां-जहां अरविंद ने नेत्रृत्वकारी के रूप में काम किया, वहां-वहां सेउन्हें मोर्चे पर फेल हो जाना बताते हुए हटा दिया गया। अंत में उन्हें गोरखपुर के सांस्कृतिक कुटीर में अकेले सोचने के लिए पटक दिया गया। यहां तक कि उस खतरनाक बीमारी के दौरान जब किसी अपने की जरूरत होती है उस समयसाथी अरविंद अकेले उस मकान में अनुवाद कर रहे थे और दायित्वबोध और बिगुल के लिए लेख लिख रहे थे। उधर उनकी पत्नी मीनाक्षी दिल्ली के एक फ्लैट में रहकर युद्ध चला रही थीं। उन्होंने दिल्ली का फ्लैट छोड़कर अरविन्द के पास आना गवारा नहीं समझा या फिर शशि प्रकाश ने उन्हें अरविन्द के पासजाने नहीं दिया। यहां तक की किसी अन्य वरिष्ठ साथी तक को साथी अरविन्द के पास नहीं भेजा। जिस समय हमारा साथी अल्सर के दर्द से तड़प-तड़प कर दम तोड़ रहा था उस समय उनके पास एक-दो नये साथी ही थे। इन सब चीजों पर अगर गौर करें तो शशि प्रकाशको अरविन्द का हत्यारा नहीं तो और क्या कहा जाएगा?
मेरा मानना है है कि शशि प्रकाश ने बहुत सोच-समझकर अरविन्द को धीमी मौत के हवाले किया था.क्योंकि वरिष्ठ साथियों और संगठनकर्ता में वही अब अकेले बचे थे। और सही मायने में उनके पास मजदूर वर्ग के बीच के कामों का शशि प्रकाश से ज्यादा अनुभव था।
मैं भी इस संगठन में 1998 से लेकर 2006 तक बतौर होलटाइमर के रूप में काम किया हूं। इस दौरान संगठन की पूरी राजनीति को जाना और समझा भी। हमने महसूस किया कि शशि प्रकाश का शातिर दिमाग पुनर्जागरण-प्रबोधन की बात करते हुए प्रकाशन और संस्थानों के मालिक बनने की होड़ में लग गया और हमलोग उसके पुर्जे होते गए. मेरा साफ मानना है कि शशि प्रकाश को हीरो बनाने में कुछ हद तक कमेटी के वे साथी भीजिम्मेदार रहे हैं जिन्होंने सब कुछ समझते हुए भी इतने दिनों तक एक क्रांति विरोधी आदमी का साथ दिया.
ऐसे साथियों का इतने दिनों तक जुडऩे का एक कारण यह भी हो सकता है कि वे जिस मध्यवर्गीय परिवेश से आये थे वह परिवेश ही रोके रहा हो. शशि प्रकाश के शब्दों में-हमें सर्वहारा के बीच रह कर सर्वहारा नहीं बन जाना चाहिए बल्कि हम उन्हे उन्नत संस्कृति की ओर ले जाएंगे। इसके लिए कमेटी व उच्च घराने से आये हुए लोगों को ब्रांडेड जींस और टीशर्ट तक पहनने के लिए प्रेरित किया जाता रहा है। ऐसा इसलिए कि शशि प्रकाश और कात्यायनी भी उच्च मध्यवर्गीय जीवन जी रहे थे। कोई उन पर सवाल न उठाए इसलिए कमेटी के अन्य साथियों के आगे भी थोड़ा सा जूठन फेंक दिया जाता रहा है। कई कमेटी के साथी शशि प्रकाश और उनके कुनबे के उतारे कपड़े पहनकर धन्य हो जाते थे। यह रोग आगे चल कर ईमानदार साथियों में भी घर कर गया और वे सुविधाभोगी होते गये।
यह भी एक सच्चाई है कि किसी को अंधेरे में रख कर गलत रास्ते पर नहीं चला जा सकता। यही कारण रहा कि शशि प्रकाश को जब भी लगा कि अब तो फलां कार्यकर्ता या कमेठी सदस्य भी सयाना हो गया और हमारे ऊपर सवाल उठाएगा तो उन सबको किनारे लगाने का तरीका अख्तियार किया। इतना तो वह समझ ही गए थे कि इन लोगों को इस कदर सुविधाभोगी बना दिया है कि अपनी सुविधाओं को ही जुटाने में लगे रहेंगे.
शशि प्रकाश इस बात को जीतें हैं कि समाज के बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों में ख्याति तो ही गयी है,लोग आते रहेंगे, दुकान से जुड़ते रहेंग। रही बात कार्यकर्ताओं की तो वे चाहे ज्यादा दिनों तक रुकें या न रुकें फिर भी जितना दिन रुकेंगे भीख मांग कर लाएंगे ही और उसकी झोली भरकर चले जाएंगे। कुल मिला कर शशि प्रकाश एंड कंपनी अपनी सोच में कामयाब हो गयी है।
इसमें मैं भी अपने आप को साफ सुथरा नहीं मानता क्योंकि जब यह संगठन इतना ही मानव द्रोही था तो इतने दिनों तक मैंने काम ही क्यों किया? मैं भी सिद्धार्थ नगर जिले के ग्रामीण परिवेश से आया और भगत सिंह की सोच को आगे बढ़ाने के नाम पर देश में एक क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा करने के लिए काम में जुट गया। इसके लिए मैंने ज्यादा पढऩा लिखना उचित नहीं समझा। मुझे यहशिक्षा भी मिली कि पढऩा लिखना तो बुद्धिजीवियों का काम है। हमें संगठन के लिए अधिक से अधिक पैसा जुटाना और युवाओं को संगठन से जोडऩा है। और मैंइसी काम में लग गया। मुझे संगठन की ओर से घर भी छोडवा़ दिया गया और मर्यादपुर में तीन सालों तक रहकर देहाती मजदूर किसान यूनियन,नारी सभा औरनौजवान भारत सभा के नाम पर काम करने के लिए लगा दिया गया। पीछे के सारे रिश्ते नाते एवं घर परिवार से संगठन ने विरोध करवा दिया जिससे कि हम बहुत जल्द वापस न जा पाएं। यही नहीं बल्कि अपना घर और जमीन बेचने के लिए अपने ही पिता के खिलाफ कोर्ट में केस भी लगभग करवा ही दिया गया था। लेकिन पता नहीं क्यों (शायद मैं अभी पूरी तरह उसकी गिरफ्त में नहीं आया था),मेरा मन ऐसा करने को नहीं हुआ।
मैं शशि प्रकाश को ही आदर्श मानता था। मुझे यह शिक्षा दी गयी थी कि भाईसाहब दुनिया में चौथी खोपड़ी हैं। मेरे अंदरयह सवाल कई बार उठा कि जब यह चौथी खोपड़ी हैं तो प्रथम, दूसरी और तीसरी खोपड़ी कौन है? बाद में पता चला कि पहली खोपड़ी मार्क्स थे,दूसरी लेनिन,तीसरी खोपड़ी माओ थे। अब माओ के बाद तो कोई हुआ नहीं। इसलिए चौथी खोपड़ी भाई साहब हुए न।
भाईसाहब कहते थे कि वही एक क्रांतिकारी संगठन है। बाकी तो दुस्साहसवादी और संशोधनवादी पार्टियां हैं। लेकिन सब्र का बांध तो एक दिन टूटना ही था। जो आप के सामने है। यदि इन सबके बावजूद कहीं कोने में भी इस मानव विरोधी संगठन को सहयोग देने के बारे में आप में से कोई सोच रहा है तो उसे बर्बाद होने से कौन रोक सकता है?

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