अंध विश्वाश के साए में जीते लोग
सिद्धार्थनगर। गौतम बुद्ध की पावन धरती पर रहने वाले लोग आज भी अंधविश्वाश के साये में में जी रहे हैं। पहले इसे नौगढ़ तहसील के नाम से जाना जाता था, जो वर्षों पहले बस्ती जनपद के अंतर्गत आता था। बाद में पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीर बहादुर सिंह के कार्यकाल में इसे सिद्धार्थ नगर के नाम से जनपद का दर्जा मिला। सिद्धार्थ नगर नाम भी इसे गौतमबुद्ध की राजधानी कपिल बस्तु तथा उससे कुछ ही दूरी पर नेपाल में स्थित गौतमबुद्ध की जन्मस्थली लुम्बनी के नाम पर पड़ा। यह जनपद पहले से ही काफी पिछड़ा हुआ माना जाता है, लेकिन जिला होने के बाद इसका विकास तो हुआ पर उसकी रफ्तार कछुआ चाल के बराबर थी। इस जिले के पिछड़े क्षेत्र के कुछ ऐसे ही गांवों की एक घटना का जिक्र करने जा रहे हैं।
सिद्धर्थनगर जिले के पांच गांव ऐसे हैं जो वर्ष के एक दिन पूरे के पूरे खाली हो जाते हैं। ऐसा नहीं कि जिले को ही छोड़ कर लोग बाहर चले जाते हैं, बल्कि गांव के बाहर पूजा-पाठ करते हैं। पूरे दिन बाहर ही पूजा पाठ करते हैं। शाम को भोजन करने के बाद पुन: घर लौटते हैं। इन लोगों का मानना है कि गांव के बाहर पूजा-पाठ करने से पूरा गांव बीमारी और प्राकृतिक आपदा से बचा रहेगा। यह और बात है कि गांव छोडऩे की इस कवायद से कोई लाभ नहीं होता है, जबकि देखने में आता है कि बीमारी और आपदा कमोबेस इन गांवों में ज्यादा ही आती हैं।
यह गांव इटवा तहसील क्षेत्र के खुखुड़ी, महादेव घुरहू, भावपुर पांडेय, सेहरी और धनधरा हैं। यहां यह परम्परा दशकों पुरानी है। हर साल इन गांवों के युवक, बूढ़े, बच्चे, महिलाएं सावन माह में शुक्ल पक्ष द्वितीया, मघा नक्षत्र को सूर्योदय होने से पहले ही गांव छोड़कर बाहर चले जाते हैं। पूरे गांव के लोग गांवों से कुछ दूरी पर स्थित भगहर पर इक_ा होकर देवी काली की पूजा-पाठ करते हैं। गांववासियों के दिन का भोजन भगहर पर ही होता है। सूर्यास्त के बाद लोगों का हुजूम एक बड़ी तादाद में घरों की तरफ रवाना होता है। इस वर्ष 11 अगस्त को भी गांव खुखुड़ी के ग्रामीणों ने गांव छोड़कर भगहर में पूजा-पाठ किया।
आखिर ऐसा क्यों करते है ग्रामीण?
खुखुड़ी के प्रधान मतई का कहना है कि गांव को हैजा, जमोगा, चेचक जैसी महामारियों से बचाने के लिये एक महात्मा ने ऐसा करने का उपाय बताया था। उसके बाद लोगों ने बाबा के बताये अनुसार भगहर पर इक_ा हो कर पूजा-पाठ करना शुरू कर दिया। धीरे-धीर यह एक परम्परा बन गयी। जब उनसे पूछा गया कि क्या पूजा पाठ करने से बीमारियां नहीं होती हैं। उनका कहना था कि अभी भी बीमारियां होती हैं। लेकिन क्या करें पुरानी परंपराओं को तो निभाना ही है।
Wednesday, August 25, 2010
सइयां भये कोतवाल तो काहे का डर...
राशन डीलर की मनमानी
जयप्रकाश मिश्रा, बहराइच
बहराइच। पुर्वांचल का यह कहावत सइयां भए कोतवाल तो काहे का डर... को लोग चरितार्थ करने पर लगे हुए हैं। पूरे प्रशासनिक ढांचे की यही हालत है। इसकी मिसाल पूर्वी उत्तर प्रदेश स्थित बहराइच जिले के जतौरा गांव में देखने को मिली है। वहां पर भाभी के प्रधान होने के कारण उनके देवर ने मनचाहे ढंग से राशन की कालाबाजरी करने में मशगूल है। उसे किसी भी प्रसाशनिक अधिकारी का खौफ नहीं है।
एक तरफ तो प्रदेश सरकार गरीबों के लिए अनेक योजनाएं जैसे मा. कांशीराम योजना को संचालित कर रही है, वहीं सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जुड़े लोग भी गरीबों का जमकर शोषण कर रहे हैं। यह बात किसी एक जगह की नहीं है, बल्कि कमोबेस पूरे प्रदेश में यही हालात हैं। प्रदेश का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं होगा जहां पर तहसील से लेकर ग्राम प्रधान और राशन डीलर तक गरीबों को मिलने वाले आर्थिक सहयोग का बंदरबांट न होता हो। राशन डीलरों का आलम यह है कि वे ग्राम प्रधान को तो हिस्सा देते ही हैं साथ में तहसील, ब्लाक और जिले पर बैठने वाले संबंधित अधिकारियों से भी मिलीभगत करके गरीबों को मिलने वाले चीनी, केरोसिन और बीपीएल कार्डों पर मिलने वाले राशन को संबंधित लोगों को वितरित न करके खुद हड़प जाते हैं। इस संबंध में 'उकाब दि बर्डÓ की टीम ने बहराइच में जब लोगों की समस्याओं के बारे में जानकारी ली तो राशन के कालाबाजारी का मामला सामने आया।
जनपद के कैसरगंज तहसील क्षेत्र में आने वाला गांव जतौरा पिछले कुछ समय से राशन की कालाबाजारी को लेकर चर्चा में बना रहा। इस गांव का कोटा गांव की महिला प्रधान आशा देवी के देवर परमजीत के पास है। गांव प्रधान के अपने रुतबे और प्रशासनिक अफसरों से गहरी पैठ के चलते राशन डीलर अपनी मनमानी कर रहा है। चौंकाने वाली बात यह है कि गांव के लोगों ने कुछ दिनों पहले राशन की कालाबाजारी करते राशन डीलर को रंगे हाथों पकड़ चुके हैं और ले जा रहे गेहूं के खेप को पुलिस के हवाले भी कर चुके हैं। गांव वालों का कहना है कि इसके बावजूद अभी तक राशन डीलर के ऊपर कोई भी कार्रवाई नहीं हुई। लोगों का कहना है कि इसके बाद से हम लोगों ने विरोध करना ही छोड़ दिया। जब पूरा प्रशासन इसी भ्रष्टाचार में लिप्त है तो शिकायत करने से कोई फायदा नहीं। उन्होंने कई बार इसकी शिकायत लिखित रूप से एसडीएम से भी करते रहे हैं, लेकिन कार्रवाई के नाम पर वही ढाक के तीन पात। विगत 9 मार्च 2010 को जतौरा के रहने वाले बंसल लाल, जयप्रकाश मिश्रा, सीतेश चन्द तिवारी, जनार्दन प्रसाद, पारस नाथ, मिथलेश वर्मा, नन्द किशोर सिंह, रक्षाराम, विजय प्रताप, उदयराज सिंह, रामकुमार शुक्ला, ज्ञान प्रताप, सिपाही लाल, ओमप्रकाश, रामतेज मिश्रा, अमीरकालाल पाल, बृजेश कुमार, बंसत लाल, कैलास नाथ, माताप्रसाद तिवारी, भानु प्रताप, सुनील कुमार, सुरेश कुमार, पिन्टू मिश्रा, हाफिज अली, अय्यूब मोहम्मद, शब्बीर, प्रभुदयाल मिश्रा, दिनेश वर्मा, अवधेश, मनोज कुमार वर्मा आदि ने राशन डीलर पर मिट्टी का तेल न बांटने सहित कई आरोप लगाये थे। कुछेक को छोड़कर लगभग पूरा गांव इस डीलर से खफा है।
जतौरा गांव निवासी जय प्रकाश मिश्रा का कहना है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत जोभी खाद्य सामग्री आती है उसे गरीबों को वितरण करने के बजाय ब्लैक में बेच दिया जाता है। यह गोरखधंधा पिछले काफी समय से चल रहा है। उन्होंने कहा कि कोटेदार के इस गलत कार्यशैली में छोटे-मोटे अधिकारियों का मिलीभगत भी है। उन्होंने शिकायत प्रत्र की एक प्रतिलिपि कैसर तहसील में कार्यरत एसडीएम को भी रिसीब करवाया है।
यही नहीं बल्कि कोटेदार ने गांव के कुछ लोगों का राशन कार्ड भी अपने पास रखता है और हर माह अपने आप ही कार्ड पर एंट्री भी कर देता है। गांव वालों का कहना है कि जब राशन लेने पहुंचते हैं तो उन्हें भगा दिया जाता है। अब गांव के लोग इस कोटेदार से आजिज आ चुके हैं। प्रशासनिक अधिकारियों में डीलर की पकड़ इतनी मजबूत है कि गांव वाले अब खुलकर शिकायत करने से बच रहे हैं।
क्या कहते हैं एसडीएम?
इस संबंध में जब कैसरगंज तहसील के एसडीएम दिलीप कुमार से फोन पर बात की तो उनका कहना है कि 'मुझे आये अभी कुछ ही दिन हुए हैं, इसलिए इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। यदि यह मामला मेरे संज्ञान में आया तो हम इस पर उचित कार्रवाई करेंगे। पूर्व में क्या हुआ और क्या नहीं हुआ, इस संबंध में हम कुछ नहीं कह सकते हैं।Ó इसके बाद वे अपने काम में बिजी हो गये और लाइन काट दिया।
जयप्रकाश मिश्रा, बहराइच
बहराइच। पुर्वांचल का यह कहावत सइयां भए कोतवाल तो काहे का डर... को लोग चरितार्थ करने पर लगे हुए हैं। पूरे प्रशासनिक ढांचे की यही हालत है। इसकी मिसाल पूर्वी उत्तर प्रदेश स्थित बहराइच जिले के जतौरा गांव में देखने को मिली है। वहां पर भाभी के प्रधान होने के कारण उनके देवर ने मनचाहे ढंग से राशन की कालाबाजरी करने में मशगूल है। उसे किसी भी प्रसाशनिक अधिकारी का खौफ नहीं है।
एक तरफ तो प्रदेश सरकार गरीबों के लिए अनेक योजनाएं जैसे मा. कांशीराम योजना को संचालित कर रही है, वहीं सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जुड़े लोग भी गरीबों का जमकर शोषण कर रहे हैं। यह बात किसी एक जगह की नहीं है, बल्कि कमोबेस पूरे प्रदेश में यही हालात हैं। प्रदेश का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं होगा जहां पर तहसील से लेकर ग्राम प्रधान और राशन डीलर तक गरीबों को मिलने वाले आर्थिक सहयोग का बंदरबांट न होता हो। राशन डीलरों का आलम यह है कि वे ग्राम प्रधान को तो हिस्सा देते ही हैं साथ में तहसील, ब्लाक और जिले पर बैठने वाले संबंधित अधिकारियों से भी मिलीभगत करके गरीबों को मिलने वाले चीनी, केरोसिन और बीपीएल कार्डों पर मिलने वाले राशन को संबंधित लोगों को वितरित न करके खुद हड़प जाते हैं। इस संबंध में 'उकाब दि बर्डÓ की टीम ने बहराइच में जब लोगों की समस्याओं के बारे में जानकारी ली तो राशन के कालाबाजारी का मामला सामने आया।
जनपद के कैसरगंज तहसील क्षेत्र में आने वाला गांव जतौरा पिछले कुछ समय से राशन की कालाबाजारी को लेकर चर्चा में बना रहा। इस गांव का कोटा गांव की महिला प्रधान आशा देवी के देवर परमजीत के पास है। गांव प्रधान के अपने रुतबे और प्रशासनिक अफसरों से गहरी पैठ के चलते राशन डीलर अपनी मनमानी कर रहा है। चौंकाने वाली बात यह है कि गांव के लोगों ने कुछ दिनों पहले राशन की कालाबाजारी करते राशन डीलर को रंगे हाथों पकड़ चुके हैं और ले जा रहे गेहूं के खेप को पुलिस के हवाले भी कर चुके हैं। गांव वालों का कहना है कि इसके बावजूद अभी तक राशन डीलर के ऊपर कोई भी कार्रवाई नहीं हुई। लोगों का कहना है कि इसके बाद से हम लोगों ने विरोध करना ही छोड़ दिया। जब पूरा प्रशासन इसी भ्रष्टाचार में लिप्त है तो शिकायत करने से कोई फायदा नहीं। उन्होंने कई बार इसकी शिकायत लिखित रूप से एसडीएम से भी करते रहे हैं, लेकिन कार्रवाई के नाम पर वही ढाक के तीन पात। विगत 9 मार्च 2010 को जतौरा के रहने वाले बंसल लाल, जयप्रकाश मिश्रा, सीतेश चन्द तिवारी, जनार्दन प्रसाद, पारस नाथ, मिथलेश वर्मा, नन्द किशोर सिंह, रक्षाराम, विजय प्रताप, उदयराज सिंह, रामकुमार शुक्ला, ज्ञान प्रताप, सिपाही लाल, ओमप्रकाश, रामतेज मिश्रा, अमीरकालाल पाल, बृजेश कुमार, बंसत लाल, कैलास नाथ, माताप्रसाद तिवारी, भानु प्रताप, सुनील कुमार, सुरेश कुमार, पिन्टू मिश्रा, हाफिज अली, अय्यूब मोहम्मद, शब्बीर, प्रभुदयाल मिश्रा, दिनेश वर्मा, अवधेश, मनोज कुमार वर्मा आदि ने राशन डीलर पर मिट्टी का तेल न बांटने सहित कई आरोप लगाये थे। कुछेक को छोड़कर लगभग पूरा गांव इस डीलर से खफा है।
जतौरा गांव निवासी जय प्रकाश मिश्रा का कहना है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत जोभी खाद्य सामग्री आती है उसे गरीबों को वितरण करने के बजाय ब्लैक में बेच दिया जाता है। यह गोरखधंधा पिछले काफी समय से चल रहा है। उन्होंने कहा कि कोटेदार के इस गलत कार्यशैली में छोटे-मोटे अधिकारियों का मिलीभगत भी है। उन्होंने शिकायत प्रत्र की एक प्रतिलिपि कैसर तहसील में कार्यरत एसडीएम को भी रिसीब करवाया है।
यही नहीं बल्कि कोटेदार ने गांव के कुछ लोगों का राशन कार्ड भी अपने पास रखता है और हर माह अपने आप ही कार्ड पर एंट्री भी कर देता है। गांव वालों का कहना है कि जब राशन लेने पहुंचते हैं तो उन्हें भगा दिया जाता है। अब गांव के लोग इस कोटेदार से आजिज आ चुके हैं। प्रशासनिक अधिकारियों में डीलर की पकड़ इतनी मजबूत है कि गांव वाले अब खुलकर शिकायत करने से बच रहे हैं।
क्या कहते हैं एसडीएम?
इस संबंध में जब कैसरगंज तहसील के एसडीएम दिलीप कुमार से फोन पर बात की तो उनका कहना है कि 'मुझे आये अभी कुछ ही दिन हुए हैं, इसलिए इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। यदि यह मामला मेरे संज्ञान में आया तो हम इस पर उचित कार्रवाई करेंगे। पूर्व में क्या हुआ और क्या नहीं हुआ, इस संबंध में हम कुछ नहीं कह सकते हैं।Ó इसके बाद वे अपने काम में बिजी हो गये और लाइन काट दिया।
Thursday, August 19, 2010
Wednesday, August 18, 2010
एक हजार लोग हो सकते हैं स्वाइन फ्लू के शिकार

मान सिंह चौहान
स्वाइन फ्लू ने शहर में दस्तक दे दी है। सेक्टर 41 निवासी अस्पताल कर्मी युवती तो ठीक हो गई है लेकिन स्वास्थ्य विभाग की परेशानी साफ झलकने लगी है। विभाग ने स्वाइन फ्लू से निपटने के लिए प्रदेश सरकार से संसाधनों की मांग की है। एक हजार लोगों का उपचार करने लायक दवाएं, वैक्सीन और उपकरण मांगे गये हैं क्योंकि डाक्टरों का मानना है कि खराब मौसम के कारण पिछले साल के मुकाबले इस साल मरीजों की संख्या बढ़ सकती है।
गत वर्ष एक के बाद एक करके 309 मरीज शहर के तमाम अस्पतालों में स्वाइन फ्लू से पीडि़त पाए गए थे। फोर्टिस अस्पताल में भरती एक मरीज की मौत भी हो गई थी। विशेषज्ञ चिकित्सकों का मानना है कि स्वाइन फ्लू का वायरस भारतीय मौसम में अनुकूलित हो चुका है। दूसरी बीमारियों के वायरस के संपर्क में आकर इसमें बदलाव भी आए होंगे। अपोलो अस्पताल के डा. डी शर्मा का कहना है कि इस संबंध में देश भर में शोध चल रहे हैं। इस बार बारिश समय से पहले हुई है और लगातार भी नहीं हो रही है। बारिश के बाद मौसम साफ हो जाता है, जिससे तापमान और उमस बढ़ती है। ऐसा मौसम वायरल और बैक्टीरियल विकास के लिए मुफीद होता है। स्वाभाविक है कि स्वाइन फ्लू लोगों को परेशान करेगा। स्वास्थ्य विभाग में एंटी स्वाइन फ्लू सेल के प्रभारी डा. अनिल कुमार का कहना है कि पिछले साल के मुकाबले इस साल रोगियों की संख्या बढ़ सकती है। जिसे ध्यान में रखकर एक हजार रोगियों का उपचार करने लायक इंतजाम किए जा रहे हैं। सरकार से 10,000 ओसिल टैमीविर कैप्सूल, 1,000 टैमी सिरप फ्लू, 1,000 वीटीएन, 1,000 थ्रोट स्वैप, 5,000 टू लेयर फेस मास्क, 1,000 एन-95 मास्क, 1,000 हैंड सेमी टाइवर मांगे गए हैं। पत्र शासन को भेजा गया है। दवाएं और उपकरण जल्दी मिलने की उम्मीद है।
गौरतलब है कि निजी अस्पतालों में स्वाइन फ्लू का उपचार नहीं है। जिला अस्पताल के बाद दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में उपचार संभव है। पिछले साल शहर के कालेजों, विश्वविद्यालयों और कंपनियों में बड़ी संख्या में स्वाइन फ्लू के रोगियों की पहचान की गई थी। जिला अस्पताल में ही 309 बीमारों का उपचार किया गया था।
जिला अस्पताल में डेंगू से पीडि़त तीन और मरीज भर्ती हुए हैं। तीनों को डेंगू की पुष्टिï होने के बाद अस्पताल प्रशासन ने उपचार शुरू कर दिया है। पीडि़त युवकों में एक की उम्र 25 वर्ष और दूसरे की 15 वर्ष है। तीसरा रोगी 42 वर्ष का है। मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डॉ. मीना मिश्रा ने बताया कि फिलहाल तीनों खतरे से बाहर हैं।
वहीं नोएडा क्षेत्र में एक 17 वर्षीय युवती में स्वाइन फ्लू की पुष्टि की गई है। पीडि़त को जिला अस्पताल से टेमी फ्लू दवा दी गई है। सेक्टर-41 में रहने वाली युवती का इलाज मैक्स अस्पताल में चल रहा था। स्वाइन फ्लू की पुष्टि के बाद वह जिला अस्पताल जांच कराने आई। रिपोर्ट के आधार पर इसे टेमी फ्लू दे दी गई है। साथ ही सावधानी बरतने की सलाह दी गई है। जिला अस्पताल की मुख्य चिकित्सा अधीक्षक राजरानी कंसल ने बताया कि निजी अस्पताल की पुष्टि पर युवती को दवाएं दी गई हैं। जिला अस्पताल में इससे पहले भी बीमारी के संदिग्ध मरीज आ चुके हैं। वर्ष 2009 के नवंबर व दिसंबर माह में जिले में स्वाइन फ्लू के लगभग 300 मामले सामने आए थे। बीमारी से चार लोगों की मौत भी हुई थी। जिला अस्पताल में स्वाइन फ्लू के टीके व जांच की सुविधा उपलब्ध है। हालांकि अभी चिकित्सीय कर्मचारियों के लिए ये टीके उपलब्ध कराए गए हैं।
ncr@ekkadamaage.com
प्रदेश में शिक्षा का गिरता स्तर
जय प्रताप सिंह
ज्य में प्राथमिक शिक्षा का स्तर दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है। इस समय प्रदेश में 13113 स्कूल ऐसे हैं, जहां पर मात्र एक शिक्षक के दम पर स्कूल चल रहे हैं। जिस दिन वह शिक्षक अवकाश पर हो या किसी अन्य सरकारी काम से बाहर गया हो तो उस समय बच्चों की छुट्टी रहती है। जहां पर एक-दो अध्यापक हैं, उन्हें भी जनगणना या अन्य सरकारी कामों का बोझ इस कदर लाद दिया जाता है कि वे मोटी-मोटी फाइलों को पूरा करने में ही महीनों गुजार देते हैं। इन कामों से वे इतना थक जाते हैं कि बच्चों को पढ़ाना उनके लिए मात्र खानापूॢत होती है। हकीकत यह है कि यातायात के साधन और अन्य सुविधाएं न होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर अध्यापक जाना नहीं चाहते।
इसी तरह आर्थिक दृष्टि से संपन्न पश्चिमी जिलों के सरकारी स्कूलों में छात्र और शिक्षक ज्यादा हैं, जबकि पूरब के गरीब जिलों में छात्र ज्यादा और शिक्षक कम हैं। आबादी के हिसाब से उत्तर प्रदेश में 6 से 14 साल की उम्र के बच्चों की संख्या लगभग पौने छह करोड़ है। प्रदेश में इस समय 3 करोड़, 62 लाख 63 हजार बच्चे स्कूलों में पढ़ रहे हैं, लेकिन लाखों बच्चों का स्कूलों से दूर-दूर का रिश्ता नहीं है। सरकार की नीतियों को मानें तो प्राइवेट स्कूलों में 25 फीसदी सीटें आस-पड़ोस के गरीब बच्चों के लिए आरक्षित चाहिए।
इस स्थिति में राज्य में इस समय कम से कम 10 लाख शिक्षकों की जरूरत है। वर्तमान में शिक्षकों के कुल स्वीकृत पद 4 लाख 6 हजार 607 हैं। इनमें से लगभग एक तिहाई यानी एक लाख 53 हजार 623 पद खाली हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए एक लाख 86 हजार शिक्षामित्र भर्ती किए गये हैं। नए कानून में केवल प्रशिक्षित शिक्षक को ही मान्यता दी गई है जबकि उत्तर प्रदेश में कई बरसों से बीटीसी की ट्रेनिंग ही बंद थी। इस समय ट्रेनिंग तो शुरू हुई है लेकिन एक साल में लगभग सात हजार बीटीसी शिक्षक ट्रेंड करने की क्षमता है। वहीं दूसरी ओर गौर करें तो हर साल लगभग 10 हजार टीचर रिटायर हो रहे हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो बड़े पैमाने पर शिक्षकों की ट्रेनिंग और तैनाती की आवश्यकता है। ट्रेनिंग में एक बात पर ध्यान देना जरूरी है कि अध्यापक बच्चों को मारपीट और धमकाए बगैर पढऩे के लिए प्रेरित करें। इसके अलावा स्कूलों का वातावरण सही बनाने के लिए पर्याप्त रोशनी और हवादार कमरे की व्यवस्था, पेयजल, शौचालय, पुस्तकालय, पढ़ाई में उपयोग सामग्री और खेल का मैदान की उचित व्यवस्था हो। इस मामले में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर पूरे राज्य में प्राइमरी स्कूलों में बड़े पैमाने पर काम करने की जरूरत है।
अधिकारियों की माने तो अब राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में प्राइमरी स्कूलों की कमी नहीं रह गई है। एक किलोमीटर की परिधि में प्राइमरी और दो किलोमीटर की परिधि में अपर प्राइमरी स्कूल खुल गए हैं। इन स्कूलों की संख्या बढ़कर एक 1 लाख 95 हजार 940 हो गई है। लेकिन शहरी क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों और शिक्षकों की बहुत कमी है। शहरी क्षेत्रों में लगभग 30 फीसदी आबादी मलिन बस्तियों में रहती है, जहां पर स्कूल ही नहीं हैं। जो हैं भी वे जीर्ण-शीर्ण भवनों में चल रहे हैं।
इस समय अकेले राजधानी में 225 प्राइमरी और 54 मिडिल स्कूल हैं। नगर क्षेत्र में 30 वार्ड ऐसे हैं जहां पर मकान न होने के कारण स्कूल नहीं हैं। 21 स्कूल शहर के सामुदायिक केंद्रों में चल रहे है। यह समस्या मुरादाबाद, आगरा, फिरोजाबाद बरेली और पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अन्य शहरों में मौजूद है। वर्ष 1998 के बाद से शहरी क्षेत्रों में अध्यापकों की नियुक्ति ही नहीं हुई है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल पूरे राज्य में तीन लाख छोटे बच्चे स्कूल से बाहर थे। एक स्कूल की प्रिंसिपल ने बताया कि जब तक अभिभावक जागरूक नहीं होंगे तब तक समस्या का समाधान नहीं हो सकता। उनका कहना है कि छात्रवृत्ति के लालच में लड़कियों के दाखिले बढ़े हैं। राज्यों को तीन साल का समय स्कूलों के लिए सक्षम प्रबंधकीय ढांचा खड़ा करने के लिए दिया गया है।
सच्चाई यह है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा का गुणवत्ता ने होने से संपन्न लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढाते हैं। गरीब ही अपने बच्चे को सरकारी स्कूलों में भेजते हैं। इसका मतलब है कि इन स्कूलों में ज्यादातर बच्चे दलित और मुस्लिम समुदायों के हैं। हमे यह देखना होगा कि कहीं यह कानून समाज में एक समान शिक्षा के बजाय दोहरी व्यवस्था को मान्यता न प्रदान कर दे।
jaipratapsingh80@gmail.com
ज्य में प्राथमिक शिक्षा का स्तर दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है। इस समय प्रदेश में 13113 स्कूल ऐसे हैं, जहां पर मात्र एक शिक्षक के दम पर स्कूल चल रहे हैं। जिस दिन वह शिक्षक अवकाश पर हो या किसी अन्य सरकारी काम से बाहर गया हो तो उस समय बच्चों की छुट्टी रहती है। जहां पर एक-दो अध्यापक हैं, उन्हें भी जनगणना या अन्य सरकारी कामों का बोझ इस कदर लाद दिया जाता है कि वे मोटी-मोटी फाइलों को पूरा करने में ही महीनों गुजार देते हैं। इन कामों से वे इतना थक जाते हैं कि बच्चों को पढ़ाना उनके लिए मात्र खानापूॢत होती है। हकीकत यह है कि यातायात के साधन और अन्य सुविधाएं न होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर अध्यापक जाना नहीं चाहते।
इसी तरह आर्थिक दृष्टि से संपन्न पश्चिमी जिलों के सरकारी स्कूलों में छात्र और शिक्षक ज्यादा हैं, जबकि पूरब के गरीब जिलों में छात्र ज्यादा और शिक्षक कम हैं। आबादी के हिसाब से उत्तर प्रदेश में 6 से 14 साल की उम्र के बच्चों की संख्या लगभग पौने छह करोड़ है। प्रदेश में इस समय 3 करोड़, 62 लाख 63 हजार बच्चे स्कूलों में पढ़ रहे हैं, लेकिन लाखों बच्चों का स्कूलों से दूर-दूर का रिश्ता नहीं है। सरकार की नीतियों को मानें तो प्राइवेट स्कूलों में 25 फीसदी सीटें आस-पड़ोस के गरीब बच्चों के लिए आरक्षित चाहिए।
इस स्थिति में राज्य में इस समय कम से कम 10 लाख शिक्षकों की जरूरत है। वर्तमान में शिक्षकों के कुल स्वीकृत पद 4 लाख 6 हजार 607 हैं। इनमें से लगभग एक तिहाई यानी एक लाख 53 हजार 623 पद खाली हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए एक लाख 86 हजार शिक्षामित्र भर्ती किए गये हैं। नए कानून में केवल प्रशिक्षित शिक्षक को ही मान्यता दी गई है जबकि उत्तर प्रदेश में कई बरसों से बीटीसी की ट्रेनिंग ही बंद थी। इस समय ट्रेनिंग तो शुरू हुई है लेकिन एक साल में लगभग सात हजार बीटीसी शिक्षक ट्रेंड करने की क्षमता है। वहीं दूसरी ओर गौर करें तो हर साल लगभग 10 हजार टीचर रिटायर हो रहे हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो बड़े पैमाने पर शिक्षकों की ट्रेनिंग और तैनाती की आवश्यकता है। ट्रेनिंग में एक बात पर ध्यान देना जरूरी है कि अध्यापक बच्चों को मारपीट और धमकाए बगैर पढऩे के लिए प्रेरित करें। इसके अलावा स्कूलों का वातावरण सही बनाने के लिए पर्याप्त रोशनी और हवादार कमरे की व्यवस्था, पेयजल, शौचालय, पुस्तकालय, पढ़ाई में उपयोग सामग्री और खेल का मैदान की उचित व्यवस्था हो। इस मामले में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर पूरे राज्य में प्राइमरी स्कूलों में बड़े पैमाने पर काम करने की जरूरत है।
अधिकारियों की माने तो अब राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में प्राइमरी स्कूलों की कमी नहीं रह गई है। एक किलोमीटर की परिधि में प्राइमरी और दो किलोमीटर की परिधि में अपर प्राइमरी स्कूल खुल गए हैं। इन स्कूलों की संख्या बढ़कर एक 1 लाख 95 हजार 940 हो गई है। लेकिन शहरी क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों और शिक्षकों की बहुत कमी है। शहरी क्षेत्रों में लगभग 30 फीसदी आबादी मलिन बस्तियों में रहती है, जहां पर स्कूल ही नहीं हैं। जो हैं भी वे जीर्ण-शीर्ण भवनों में चल रहे हैं।
इस समय अकेले राजधानी में 225 प्राइमरी और 54 मिडिल स्कूल हैं। नगर क्षेत्र में 30 वार्ड ऐसे हैं जहां पर मकान न होने के कारण स्कूल नहीं हैं। 21 स्कूल शहर के सामुदायिक केंद्रों में चल रहे है। यह समस्या मुरादाबाद, आगरा, फिरोजाबाद बरेली और पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अन्य शहरों में मौजूद है। वर्ष 1998 के बाद से शहरी क्षेत्रों में अध्यापकों की नियुक्ति ही नहीं हुई है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल पूरे राज्य में तीन लाख छोटे बच्चे स्कूल से बाहर थे। एक स्कूल की प्रिंसिपल ने बताया कि जब तक अभिभावक जागरूक नहीं होंगे तब तक समस्या का समाधान नहीं हो सकता। उनका कहना है कि छात्रवृत्ति के लालच में लड़कियों के दाखिले बढ़े हैं। राज्यों को तीन साल का समय स्कूलों के लिए सक्षम प्रबंधकीय ढांचा खड़ा करने के लिए दिया गया है।
सच्चाई यह है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा का गुणवत्ता ने होने से संपन्न लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढाते हैं। गरीब ही अपने बच्चे को सरकारी स्कूलों में भेजते हैं। इसका मतलब है कि इन स्कूलों में ज्यादातर बच्चे दलित और मुस्लिम समुदायों के हैं। हमे यह देखना होगा कि कहीं यह कानून समाज में एक समान शिक्षा के बजाय दोहरी व्यवस्था को मान्यता न प्रदान कर दे।
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Monday, August 16, 2010
बेचारे गरीब सांसद
चौंकिये नहीं! यह एक सच्चाई है। आज हमारे देश के सांसद कितने गरीब हैं इसका अनुमान आप इस बात से लगा सकते हैं कि दिन रात जनता के दुख दर्द में शामिल होने के बावजूद इनकी सेलरी मात्र 16,000 रुपये ही है। यह अलग बात है कि वह जनता के बीच जाते हैं या नहीं? वे आम जनता के प्रतिनिधि हैं या किसी और के भला एक सांसद का खर्चा सोलह हजार रुपये में कैसे चलेगा। इनके करोड़ों के फ्लैट और दो चार महंगी गाडिय़ां, ड्राइवर का वेतन, नौकर-चाकर आदि का खर्चा, क्या 16 हजार रुपये में पूरा हो सकता है। यह तो रहा सामान्य खर्चा, बाकी फाइवस्टार होटलों का खर्चा आखिर कहां से आयेगा? कमीशन और अन्य बैक फुट से हुई कमाई करोड़ों अरबों में होती है। लेकिन फिर भी वेतन तो वेतन होता है। हमारे सांसदों का जो दर्द है वह यह है कि एक सेक्रेटरी का वेतन 80 हजार रुपये है और सांसद का मात्र सोलह। आखिर सेक्रेटरी का काम ही क्या होता है। वह दिन रात किताबें ही तो पढ़ कर आया है। और बैठे-बैठे लेखा-जोखा करता है। कुल मिला कर थोड़ा बहुत देश के हित में काम कर जाता है। जबकि हमारे सांसद तो करोड़ों रुपये दारू मुर्गा पर खर्च करके चुनाव जीतते हैं और बिना पूंजी लगाये लाभ वाले बिजनेस में शामिल हो जाते हैं। फिर भी जनता के ही प्रतिनिधि ही माने जाते हैं। आखिर उनका भी तो कोई सपना होता है। इतना ही नहीं बल्कि कितनों की हत्याएं भी करनी पड़ती हैं। आखिर इस पाप के प्रायश्चित के लिए भी तो पैसों की जरूरत होती है। वैसे तो पचास हजार रुपये महीना होने का प्रस्ताव है, लेकिन उतने में भी इन बेचारों का पेट भरने वाला नहीं है। अब इन्हें पांच गुना और चाहिए।
सेलरी के अलावा सांसदों को संसद सत्र के दौरान या हाऊस की कमेटियों की मीटिंग के दौरान हर रोज के हिसाब से 1000 रुपये का भत्ता भी पाते हैं। सांसद इसे दोगुना करने की मांग कर रहे हैं। इसके अलावा संसदीय क्षेत्र का मंथली अलाउंस भी 20 हजार से बढ़ाकर 40 हजार करने की मांग कर रहे हैं। ऑफिस अलाउंस के तौर पर भी सांसदों को 20 हजार रुपये मिल रहे हैं। इसे भी बढ़ाने का प्रस्ताव है। अन्य सुविधाओं के तहत सांसद अपनी पत्नी या किसी दूसरे रिश्तेदार के साथ साल में 34 हवाई यात्रा कर सकते हैं। उन्हें किसी भी ट्रेन में किसी भी समय एसी फस्र्ट क्लास में पत्नी समेत यात्रा करने का पास भी मिलता है। इसके अलावा उन्हें अपने कार्यकाल के दौरान मुफ्त में आवास सुविधा भी मिलती है। लेकिन इसके अलावे भी तो लोग हैं। जैसे आम लोगों का खून बहाकर चुनाव जिताने में मदद करने वालों, दादा परदादा के रिश्तेदारों और जो स्वर्ग सिधार गये हैं, उनके लिए भी तो सरकार को खर्चा देना चाहिए। क्योंकि ये जा ठहरे जनता के आदमी। वैसे जहां तक मेरा मानना है कि इनका वेतन तो नियमत: बढऩा ही चाहिए, क्योकि महंगाई जो इस कदर बढ़ रही है। रहा सवाल कारखानों में खटने वाले मेहनतकशों को तो उनका तो फर्ज है ही कि वे अपने और अपने बीबी बच्चों के पेट पर पट्टी बांध कर देश को आगे बढ़ाने में मदद करें। उन्हें वेतन मजदूरी बढ़ाने की चिंता करने की जरूरत ही क्या है। उसकी ङ्क्षचता तो सरकार में शामिल लोगों पर छोड़ दें। आखिर भगवान श्री कृष्ण जी ऐसे थोड़ी कह गये थे कि ''काम करो और फल की ङ्क्षचता मत करोÓÓ जो हमें गीता के माध्यम से उपदेश दिया जाता है। इस पर हमें अमल भी करना चाहिए, लेेकिन हम हैं कि बेवजह वेतन बढ़ाओ, वेतन बढ़ाओ की मांग करते रहते हैं और पुलिस की लाठियां भी खाते हैं। छोटी सी बात हमारी समझ में नहीं आती। लेकिन यह सब बातें हमारे सांसदों पर लागू नहीं होतीं। क्योंकि वे बेचारे तो हमारे प्रतिनिधि हैं और हमारा यह फर्ज बनता है कि हम अपना खून पसीना बहाकर उनका ख्याल रखें। इसके लिए अगर हमें भूखे भी रहना पड़े तो गलत नहीं। एक बार हमारे एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री ने कहा था कि देश को आगे बढ़ाने के लिए यदि जनता को अपनी पेट पर पट्टी भी बांधनी पड़े तो उसमें जनता को पीछे नहीं हटना चाहिए। लेकिन यह बात सिर्फ गरीब जनता पर लागू होती है, जनप्रतिनिधि पर नहीं। वैसे यह सरकार कौन है? आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।
देश को उन्नत शिखर पर पहुंचाया
वाह मेरे प्यारे गरीब सांसद, मै आपके दुख दर्द को समझता हूं। आपने देश के लिए कितना बड़ा काम किया। आज हमारे देश के लोग घंटों में अमेरिका, रूस, चीन, जापान आदि पूरे विश्व में भ्रमण कर रहे हैं। फाइवस्टार होटलों में मुर्गा, कबाब, दारू और तमाम ऐशोआराम की जिंदगी जी रहे हैं। यह दीगर बात है कि लोग गांव से 20 किलोमीटर की दूरी पर बसे शहर में जाने के लिए हजार बार सोचते हैं। क्योंकि वहां जाने के लिए 20 रुपये बस का किराया तक देने के लिए उनके पास नहीं होते। अब आप कहेंगे कि किराया नहीं है, साइकिल तो है। लेकिन साइकिल चलाने के लिए भी तो शरीर में ताकत होनी चाहिए। ताकत आयेगी कहां से? तो आप कहेंगे कि हरी सब्जी खाओ, दूध पियो और ताकतवर फल फू्रड खाओ। जनाब जरा सोचिए! इस महंगाई में फल खाना तो दूर देश की 70 प्रतिशत जनता नमक और मिर्च के साथ भी रोटी नहीं खा सकती। मिर्च भी अब 50 से 60 रुपये किलो है। रहा सवाल आटे का तो वह भी पांच किलो का पैकेट का दाम अब 105 रुपये हो गया है। उसके शरीर में ताकत कहां से आयेगी। वह साइकिल कैसे चला सकता है। यह तो स्वाभाविक ही है कि उनकी सेलरी बढऩी ही चाहिए। अब एक नजर डालते हैं देश की स्थिति पर। बेचारे सांसद अपनी सेलरी तो बढ़वाना चाहते हैं, लेकिन फैक्ट्री कारखानों में 14 से 18 सौ रुपये में दिन रात खटने वाले मेहनतकशों के बारे में सोचने का इनके पास फुर्सत ही नहीं है। और सोचें भी क्यों? इन्हें जनता से क्या लेना देना है। वे तो इनकी नजर में बस नाली के कीड़े हैं। जिसे जब चाहो कीटनाशक दवाओं की तरह कानूनी डंडे का छिड़काव करके बाहर कर दें। जनता तो हर पांच साल पर याद आती है। और उसके लिये तो यह पहले से ही सोच रखे हैं कि उनको मनाना बाएं हाथ का खेल है। यदि इस पर भी नहीं मानें तो करोड़ों रुपये का मुर्गा दारू खर्च करके अपराधियों से मनवा ही लिया जायेगा। और इसमें एक हद तक कामयाब भी हो रहे हैं। क्योंकि जनता के पास तो दूसरा कोई चारा भी नहीं है, इनमें से किसी एक को तो चुनना ही है। अब आप ही बतायें कि इनकी सेलरी बढऩी चाहिए या नहीं। यदि नहीं तो क्यों?
सेलरी के अलावा सांसदों को संसद सत्र के दौरान या हाऊस की कमेटियों की मीटिंग के दौरान हर रोज के हिसाब से 1000 रुपये का भत्ता भी पाते हैं। सांसद इसे दोगुना करने की मांग कर रहे हैं। इसके अलावा संसदीय क्षेत्र का मंथली अलाउंस भी 20 हजार से बढ़ाकर 40 हजार करने की मांग कर रहे हैं। ऑफिस अलाउंस के तौर पर भी सांसदों को 20 हजार रुपये मिल रहे हैं। इसे भी बढ़ाने का प्रस्ताव है। अन्य सुविधाओं के तहत सांसद अपनी पत्नी या किसी दूसरे रिश्तेदार के साथ साल में 34 हवाई यात्रा कर सकते हैं। उन्हें किसी भी ट्रेन में किसी भी समय एसी फस्र्ट क्लास में पत्नी समेत यात्रा करने का पास भी मिलता है। इसके अलावा उन्हें अपने कार्यकाल के दौरान मुफ्त में आवास सुविधा भी मिलती है। लेकिन इसके अलावे भी तो लोग हैं। जैसे आम लोगों का खून बहाकर चुनाव जिताने में मदद करने वालों, दादा परदादा के रिश्तेदारों और जो स्वर्ग सिधार गये हैं, उनके लिए भी तो सरकार को खर्चा देना चाहिए। क्योंकि ये जा ठहरे जनता के आदमी। वैसे जहां तक मेरा मानना है कि इनका वेतन तो नियमत: बढऩा ही चाहिए, क्योकि महंगाई जो इस कदर बढ़ रही है। रहा सवाल कारखानों में खटने वाले मेहनतकशों को तो उनका तो फर्ज है ही कि वे अपने और अपने बीबी बच्चों के पेट पर पट्टी बांध कर देश को आगे बढ़ाने में मदद करें। उन्हें वेतन मजदूरी बढ़ाने की चिंता करने की जरूरत ही क्या है। उसकी ङ्क्षचता तो सरकार में शामिल लोगों पर छोड़ दें। आखिर भगवान श्री कृष्ण जी ऐसे थोड़ी कह गये थे कि ''काम करो और फल की ङ्क्षचता मत करोÓÓ जो हमें गीता के माध्यम से उपदेश दिया जाता है। इस पर हमें अमल भी करना चाहिए, लेेकिन हम हैं कि बेवजह वेतन बढ़ाओ, वेतन बढ़ाओ की मांग करते रहते हैं और पुलिस की लाठियां भी खाते हैं। छोटी सी बात हमारी समझ में नहीं आती। लेकिन यह सब बातें हमारे सांसदों पर लागू नहीं होतीं। क्योंकि वे बेचारे तो हमारे प्रतिनिधि हैं और हमारा यह फर्ज बनता है कि हम अपना खून पसीना बहाकर उनका ख्याल रखें। इसके लिए अगर हमें भूखे भी रहना पड़े तो गलत नहीं। एक बार हमारे एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री ने कहा था कि देश को आगे बढ़ाने के लिए यदि जनता को अपनी पेट पर पट्टी भी बांधनी पड़े तो उसमें जनता को पीछे नहीं हटना चाहिए। लेकिन यह बात सिर्फ गरीब जनता पर लागू होती है, जनप्रतिनिधि पर नहीं। वैसे यह सरकार कौन है? आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।
देश को उन्नत शिखर पर पहुंचाया
वाह मेरे प्यारे गरीब सांसद, मै आपके दुख दर्द को समझता हूं। आपने देश के लिए कितना बड़ा काम किया। आज हमारे देश के लोग घंटों में अमेरिका, रूस, चीन, जापान आदि पूरे विश्व में भ्रमण कर रहे हैं। फाइवस्टार होटलों में मुर्गा, कबाब, दारू और तमाम ऐशोआराम की जिंदगी जी रहे हैं। यह दीगर बात है कि लोग गांव से 20 किलोमीटर की दूरी पर बसे शहर में जाने के लिए हजार बार सोचते हैं। क्योंकि वहां जाने के लिए 20 रुपये बस का किराया तक देने के लिए उनके पास नहीं होते। अब आप कहेंगे कि किराया नहीं है, साइकिल तो है। लेकिन साइकिल चलाने के लिए भी तो शरीर में ताकत होनी चाहिए। ताकत आयेगी कहां से? तो आप कहेंगे कि हरी सब्जी खाओ, दूध पियो और ताकतवर फल फू्रड खाओ। जनाब जरा सोचिए! इस महंगाई में फल खाना तो दूर देश की 70 प्रतिशत जनता नमक और मिर्च के साथ भी रोटी नहीं खा सकती। मिर्च भी अब 50 से 60 रुपये किलो है। रहा सवाल आटे का तो वह भी पांच किलो का पैकेट का दाम अब 105 रुपये हो गया है। उसके शरीर में ताकत कहां से आयेगी। वह साइकिल कैसे चला सकता है। यह तो स्वाभाविक ही है कि उनकी सेलरी बढऩी ही चाहिए। अब एक नजर डालते हैं देश की स्थिति पर। बेचारे सांसद अपनी सेलरी तो बढ़वाना चाहते हैं, लेकिन फैक्ट्री कारखानों में 14 से 18 सौ रुपये में दिन रात खटने वाले मेहनतकशों के बारे में सोचने का इनके पास फुर्सत ही नहीं है। और सोचें भी क्यों? इन्हें जनता से क्या लेना देना है। वे तो इनकी नजर में बस नाली के कीड़े हैं। जिसे जब चाहो कीटनाशक दवाओं की तरह कानूनी डंडे का छिड़काव करके बाहर कर दें। जनता तो हर पांच साल पर याद आती है। और उसके लिये तो यह पहले से ही सोच रखे हैं कि उनको मनाना बाएं हाथ का खेल है। यदि इस पर भी नहीं मानें तो करोड़ों रुपये का मुर्गा दारू खर्च करके अपराधियों से मनवा ही लिया जायेगा। और इसमें एक हद तक कामयाब भी हो रहे हैं। क्योंकि जनता के पास तो दूसरा कोई चारा भी नहीं है, इनमें से किसी एक को तो चुनना ही है। अब आप ही बतायें कि इनकी सेलरी बढऩी चाहिए या नहीं। यदि नहीं तो क्यों?
Saturday, August 14, 2010
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