प्रतिमान उनियाल
कभी आपने सोचा है कि एक छोटी सी चीज जो हमेशा साथ लेकर चलते हैं, जो आपके अभिन्न मित्र से भी ज्यादा करीब है। जिसके लिए आप अपने व्यस्ततम समय मे से भी कुछ समय निकाल कर इतना बात करते हो कि आपका बॉस और पत्नी दोनों ही गुस्सा होते हैं। जिसकी मधुर आवाज से आपका सबेरा होता हो, दिन रात आपके पास हो और जिसका जन्म करीब पचीस साल पहले हुआ हो। उस समय इसका वजन करीब एक किलो और कीमत तकरीबन एक लाख रुपये रही हो। चौंकिए मत, हम आपके मोबाइल फोन की बात कर रहे हैं।
वर्ष 1983 में मोटोरोला ने अपने 15 वर्षों की अथक शोध और 100 मिलियन डॉलर के निवेश के पश्चात दुनिया के सामने पहला मोबाइल फोन 'डायना टी ए सी 8000 एक्सÓ पेश किया। इस 13 इंच लंबे ईंट नुमा मोबाइल की कीमत तीन हजार डॉलर थी।
वैसे मोबाइल फोन के विकास की गाथा 1908 से शुरू होती है जब केंटकी के एक सज्जन नाथन बी स्टबलफील्ड के वायरलैस टेलीफोन को केव रेडियो के नाम पेटेंट कराया (यूएस पेटेंट संख्या 887357)। यूरोप में बॢलन तथा हेमबर्ग के बीच चलने वाली यात्री रेल में 1926 में रेडियो टेलीफोनी शुरू हुई। 1946 में तत्कालीन सोवियत संघ के इंजीनियर जी शापीरो और आई जहारचेंको ने अपनी कार में रेडियो मोबाइल का सफल परीक्षण किया। इस मोबाइल की पहुंच करीब 20 किलोमीटर तक थी। 1957 में सेवियत संघ के इंजीनियर लियोनिडकुप्रियानोविच ने मास्को में पोर्टेवल रेडियो फोन बनाया जिसका नाम रखा गया एलकेवन (यूएसएसआर पेटेंट संख्या 115494, 1-11-1957)। इस फोन का वजन 3 किलो था और रेंज करीब 30 किलोमीटर था। इसकी बैटरी 20 से 30 घंटे चलती थी। पहला सफल सार्वजनिक मोबाइल फोन नेटवर्क फिनलैंड का एआरपी नेटवर्क था जोकि 1971 में शुरू हुआ था।
अब यह ईंटनुमा वस्तु 100 ग्राम वजनी एक ऐसा सुरीला यंत्र बन गया है जो संचार का साधन के अलावा आपके मनोरंजन का साधन भी बन गया है। अब आप मोबाइल से फोटो व वीडियो बना कर यादों में संजो सकते हैं। इंटरनेट के माध्यम से देश विदेश ज्ञान बटोर सकते हैं, गाने व फिल्में देख सकते हैं, दफ्तर का काम ईमेल या चुङ्क्षनदा एपलीकेशन के माध्यम से कर सकते हैं। बहुत जल्द आप पैसों का लेनदेन भी मोबाइल से कर सकेंगे। मतलब यह कि मोबाइल एक ऐसी जरूरत की चीज बन गया है कि आपका काम इसके बनिा एक मिनट के लिए भी नहीं चल सकता। यकीन नहीं आ रहा तो ऐसे वयक्ति से पूछ कर देखिये जिसका फोन हाल ही में चोरी हो गया हो। उसका हाल ऐसा होगा जैसे वह दुनिया से कट गया हो।
भारत में मोबाइल फोन सेवा की शुरुआत अगस्त 1995 से हुई थी। उस समय मोबाइल सेट करीब पचास हजार रुपये का मिलता था। कालरेट करीब 32 रुपये प्रति मिनट और इनकङ्क्षमग 16 रुपये प्रति मिनट होती थी। पंद्रह साल बाद 2010 में नया मोबाइल सेट 500 रुपये से भी कम का आता है। इसका काल रेट 10 पैसे प्रति मिनट से भी कम है। टेलीकॉम रेगुलेट्री अथॉरिटी ऑफ इडिया के डेटा के अनुसार मई 2010 में मोबाइल कनेक्शन की संख्या 601.22 मिलियन हो गई है।
भारत में आज सरकारी और निजी क्षेत्र की पंद्रह कंपनियां मोबाइल सेवायें दे रही हैं। तकरीबन सभी के कॉल रेट एक समान हैं। बाजार के 84.63 प्रतिशत में सरकारी कंपनियों बीएसएनएल और एमटीएनएल का कब्जा है। 3जी फोन सेवा में भी सरकारी कंपनियों ने बाजी मारी है। 3जी फोन के माध्यम से आप तेज स्पीड का इंटरनेट कर सकते हैं और एक दूसरे से वीडियो कॉल के जरिये संपर्क कर सकते हैं। अमेरिका में तो 4जी सेवा प्रारंभ हो चुकी है। लेकिन भारत में अभी भी 3जी की ही जंग चल रही है। इतना तो साफ है कि आने वाले समय में मोबाइल फोन का इतने बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होगा कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते। 4जी सेवा के द्वारा आप टीवी, एयरकंडीशन, माईक्रोवेव इत्यादि ऑफिस में बैठे-बैठे ही नियंत्रित कर सकेंगे ताकि जब आप घर पहुंचें तो आपको तुरंत ठंडा मिले, टीवी में आपका मनपसंद कार्यक्रम चल रहा हो और और आपके लिए लजीज व्यंजन तैयार हो सके।
तो एक बार फिर अपने प्रिय मोबाइल फोन की तरफ देखें और विज्ञापन की प्रसिद्ध पंक्ति को याद करके मुस्कुरायें- ''कर लो दुनिया मुटठी में।ÓÓ
Wednesday, August 11, 2010
Tuesday, August 10, 2010
संघर्ष
-दिनेश कुमार-
समय किसी का इंतजार नहीं करता। वह अपने समय के अनुसार बदलता रहता है। मैंने बचपन से लेकर अबतक कई ऐसे परिवारों को देखा है जिन्होंने जिंदगी के हर पहलू को जाना और समझा है। आज दुनिया में ऐसे बहुत से परिवार हैं जो गरीबी के कारण होने वाली समस्याओं के बारे में कभी सोचा भी नहीं होगा। अगर इनशान हिम्मत व मेहनत से काम ले तो प्रकृति भी उसकी साथ देती है। मैं ऐसे ही एक परिवार की घटना बताने जा रहा हूं। जो अपने परिवार को संवारने के लिए अपनी पूरी मेहनत लगा दी।
मेरे गांव के पास एक संपन्न परिवार रहता था जिसे किसी चीज की कमी नहीं थी। यह परिवार अपने खेती-बाड़ी का काम किया करता था। घर में नौकर-चाकर भी थे। लेकिन समय की मार ऐसे पड़ी कि देखते ही देखते पूरा परिवार एक मझधार में ऐसा फंसा कि पूछो मत। कहते हैं कि गलत लोगों से दोस्ती सही नहीं होती। कुछ ऐसा ही इस परिवार के साथ हुआ जो घर के मुखिया तो थे ही गांव के भी मुखिया थे। उनके एक मित्र थे। दोनों में बहुत गहरी दोस्ती थी। वह दोस्त एक गरीब परिवार से ताल्लूकात रखता था। वह कम समय में अमीर बनना चाहता था। वह अकसर अपने मुखिया मित्र से इस बारे में बातें किया करता था। मुखिया जी अक्सर उसे समझाते थे कि मेहनत से ही आदमी को अपनी जिंदगी में आगे बढऩा चाहिए न कि कोई गलत कार्य करके। क्योंकि किया गया काम अगर गलत है तो उसका नतीजा भी एक दिन गलत ही होगा। लेकिन उसको मुखिया की एक भी बात समझ में नहीं आती थी। उसे तो बस एक ही धुन थी कि जल्द से जल्द मुखिया से भी ज्यादा पैसा कमा लूं। मुखिया के परिवार वाले भी मुखिया को उस व्यक्ति से दूर रहने के लिए कहा करते थे, लेकिन मुखिया जी तो अपनी दोस्ती के कारण मजबूर थे। उनका मानना था कि अगर मैंने उसे नहीं समझाया तो वह कोई गलत काम न कर बैठे। लेकिन वही हुआ जिसका मुखिया के पिरवार वालों को डर था। एक दिन मुखिया का दोस्त रात के करीब बारह बजे उनके घर आया और बोला कि उसका उसके घर पर झगड़ा हो गया है और वह कुछ दिन उनके घर पर ही रहना चाहता है। मुखिया जी का घर काफी बड़ा। उन्होंने अपने मित्र को बाहर का एक कमरा दे दिया।
तीन चार दिन बीत जाने के बाद एक दिन उनके घर पर पुलिस आई और उस व्यक्ति को पकड़ ली। जब मुखिया को इस बात का पता चला तो वह भी अपने मित्र के पास आ गये। मुखिया ने देखा कि दस-बारह पुलिस कर्मी उसके मित्र को पकड़े खड़े थे। उसने पुलिस वालों से पूछा कि क्या बात है? इसको क्यों पकड़े हो? तुम्हारा दोस्त खूनी है। एक पुलिस वाले ने जवाब दिया। इसने एक नहीं बल्कि चार-चार खून किया है। यह सब सुनकर मुखिया सन्न रह गया। वह सिर पर हाथ रखे जमीन पर ही धम्म से बैठ गया। फिर पुलिस वालों ने मुखिया के दोस्त से पूछा कि बता तेरे साथ और कौन-कौन हैं? उसने मुखिया का नाम भी बता दिया। बस फिर क्या था, पुलिस ने मुखिया को भी गिरफ्तार कर लिया। पुलिस ने जब उस कमरे की तलाशी ली तो वहां पर चोरी का सामान और हत्या में शामिल हथियार भी मिला। पुलिस मुखिया और उसके दोस्त को पकड़ कर थाने ले आई। इसके बाद से मुखिया के परिवार की तबाही शुरू हो गयी।
एक साल तक मुखिया के बीबी बच्चों ने अपने पास जितना भी पैसा था सब अदालतों और वकीलों के चक्कर काटते हुए खर्च कर दिया। लेकिन हुआ कुछ भी नहीं। सालों तक मुकद्दमा चलने के बाद मुखिया और उसके दोस्त को दस-दस साल की सजा हो गई। सजा होने के बाद मुखिया के चचेरे भाई उसके सारे खेतों पर अपना कब्जा जमा लिया। जब यह बात मुखिया को पता चली तो उसे इतना दुख हुआ कि उसने जेल में ही दम तोड़ दी। मुखिया की मौत के बाद उसकी पत्नी छह बच्चों के साथ गांव में ही एक छोटे से मकान में रहने लगी। पहले जो उनका बड़ा मकान था वह मुखिया का केस लड़ते हुए बिक चुका था। अब मुखिया की पत्नी के सामने समस्या यह थी कि बच्चों को कैसे पाले-पोशे। काम वाम तो वह कुछ जानती नहीं थी और रहा जमीन का सवाल तो उसे मुखिया का चचेरा भाई पहले ही हड़प चुका था।
एक दिन मुखिया की पत्नी से बच्चे ने पूछा कि मां हमे अब कभी पेट भर खाना नहीं मिलेगा। तो मुखिया की पत्नी रो पड़ी और वह अगले ही दिन मजदूरी करने लगी। अब उसे जो पैसा मिलता था वह उससे अपने बच्चों के लिए रोटी का इंतजाम करती और खुद भूखा रहकर बच्चों का पेट पालती। बच्चे जब किसी जरूरत के लिए रोते तो वह जवाब देती कि बेटा समय सदा एक सा नहीं होता। जैसे हमारा बुरा दिन आया है वैसे ही अच्छा दिन भी आएगा।
उसने अपने बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए रात दिन मेहनत की और अपने बच्चों को स्कूल में दाखिला करवाया। समय जैसे-जैसे बीतता गया बच्चे बड़े होते गए। पढ़ाई के साथ-साथ बच्चों ने भी छोटा मोटा काम शुरू कर दिया जिससे मां को सहारा मिल गया। गांव के कुछ अच्छे लोगों ने मुखिया की दो बेटियों की शादी करवा दी। अब मुखिया के दोनों लड़के और दोनों लडि़कियां पढ़ाई पूरी करने के बाद घर का सारा बोझ अपने कंधों पर ले लिया। उन्होंने अपने मां की भी जमकर सेवा की।
आज समय बदल चुका है। तीन बच्चों के पास सरकारी नौकरी है और अपना एक बड़ा सा घर है। अब उनकी मां उनसे कहती है कि बेटा मै कहती थी न कि समय सदा एक सा नहीं रहता। कभी गम कभी खुशी जिंदगी के दो पहलू हैं। जो ङ्क्षदगी से लड़ा वही अपनी जिंदगी में आगे बढ़ा। जो दुखों से डर कर रह गया वह कभी भी अगे नहीं बढ़ सकता है।
समय किसी का इंतजार नहीं करता। वह अपने समय के अनुसार बदलता रहता है। मैंने बचपन से लेकर अबतक कई ऐसे परिवारों को देखा है जिन्होंने जिंदगी के हर पहलू को जाना और समझा है। आज दुनिया में ऐसे बहुत से परिवार हैं जो गरीबी के कारण होने वाली समस्याओं के बारे में कभी सोचा भी नहीं होगा। अगर इनशान हिम्मत व मेहनत से काम ले तो प्रकृति भी उसकी साथ देती है। मैं ऐसे ही एक परिवार की घटना बताने जा रहा हूं। जो अपने परिवार को संवारने के लिए अपनी पूरी मेहनत लगा दी।
मेरे गांव के पास एक संपन्न परिवार रहता था जिसे किसी चीज की कमी नहीं थी। यह परिवार अपने खेती-बाड़ी का काम किया करता था। घर में नौकर-चाकर भी थे। लेकिन समय की मार ऐसे पड़ी कि देखते ही देखते पूरा परिवार एक मझधार में ऐसा फंसा कि पूछो मत। कहते हैं कि गलत लोगों से दोस्ती सही नहीं होती। कुछ ऐसा ही इस परिवार के साथ हुआ जो घर के मुखिया तो थे ही गांव के भी मुखिया थे। उनके एक मित्र थे। दोनों में बहुत गहरी दोस्ती थी। वह दोस्त एक गरीब परिवार से ताल्लूकात रखता था। वह कम समय में अमीर बनना चाहता था। वह अकसर अपने मुखिया मित्र से इस बारे में बातें किया करता था। मुखिया जी अक्सर उसे समझाते थे कि मेहनत से ही आदमी को अपनी जिंदगी में आगे बढऩा चाहिए न कि कोई गलत कार्य करके। क्योंकि किया गया काम अगर गलत है तो उसका नतीजा भी एक दिन गलत ही होगा। लेकिन उसको मुखिया की एक भी बात समझ में नहीं आती थी। उसे तो बस एक ही धुन थी कि जल्द से जल्द मुखिया से भी ज्यादा पैसा कमा लूं। मुखिया के परिवार वाले भी मुखिया को उस व्यक्ति से दूर रहने के लिए कहा करते थे, लेकिन मुखिया जी तो अपनी दोस्ती के कारण मजबूर थे। उनका मानना था कि अगर मैंने उसे नहीं समझाया तो वह कोई गलत काम न कर बैठे। लेकिन वही हुआ जिसका मुखिया के पिरवार वालों को डर था। एक दिन मुखिया का दोस्त रात के करीब बारह बजे उनके घर आया और बोला कि उसका उसके घर पर झगड़ा हो गया है और वह कुछ दिन उनके घर पर ही रहना चाहता है। मुखिया जी का घर काफी बड़ा। उन्होंने अपने मित्र को बाहर का एक कमरा दे दिया।
तीन चार दिन बीत जाने के बाद एक दिन उनके घर पर पुलिस आई और उस व्यक्ति को पकड़ ली। जब मुखिया को इस बात का पता चला तो वह भी अपने मित्र के पास आ गये। मुखिया ने देखा कि दस-बारह पुलिस कर्मी उसके मित्र को पकड़े खड़े थे। उसने पुलिस वालों से पूछा कि क्या बात है? इसको क्यों पकड़े हो? तुम्हारा दोस्त खूनी है। एक पुलिस वाले ने जवाब दिया। इसने एक नहीं बल्कि चार-चार खून किया है। यह सब सुनकर मुखिया सन्न रह गया। वह सिर पर हाथ रखे जमीन पर ही धम्म से बैठ गया। फिर पुलिस वालों ने मुखिया के दोस्त से पूछा कि बता तेरे साथ और कौन-कौन हैं? उसने मुखिया का नाम भी बता दिया। बस फिर क्या था, पुलिस ने मुखिया को भी गिरफ्तार कर लिया। पुलिस ने जब उस कमरे की तलाशी ली तो वहां पर चोरी का सामान और हत्या में शामिल हथियार भी मिला। पुलिस मुखिया और उसके दोस्त को पकड़ कर थाने ले आई। इसके बाद से मुखिया के परिवार की तबाही शुरू हो गयी।
एक साल तक मुखिया के बीबी बच्चों ने अपने पास जितना भी पैसा था सब अदालतों और वकीलों के चक्कर काटते हुए खर्च कर दिया। लेकिन हुआ कुछ भी नहीं। सालों तक मुकद्दमा चलने के बाद मुखिया और उसके दोस्त को दस-दस साल की सजा हो गई। सजा होने के बाद मुखिया के चचेरे भाई उसके सारे खेतों पर अपना कब्जा जमा लिया। जब यह बात मुखिया को पता चली तो उसे इतना दुख हुआ कि उसने जेल में ही दम तोड़ दी। मुखिया की मौत के बाद उसकी पत्नी छह बच्चों के साथ गांव में ही एक छोटे से मकान में रहने लगी। पहले जो उनका बड़ा मकान था वह मुखिया का केस लड़ते हुए बिक चुका था। अब मुखिया की पत्नी के सामने समस्या यह थी कि बच्चों को कैसे पाले-पोशे। काम वाम तो वह कुछ जानती नहीं थी और रहा जमीन का सवाल तो उसे मुखिया का चचेरा भाई पहले ही हड़प चुका था।
एक दिन मुखिया की पत्नी से बच्चे ने पूछा कि मां हमे अब कभी पेट भर खाना नहीं मिलेगा। तो मुखिया की पत्नी रो पड़ी और वह अगले ही दिन मजदूरी करने लगी। अब उसे जो पैसा मिलता था वह उससे अपने बच्चों के लिए रोटी का इंतजाम करती और खुद भूखा रहकर बच्चों का पेट पालती। बच्चे जब किसी जरूरत के लिए रोते तो वह जवाब देती कि बेटा समय सदा एक सा नहीं होता। जैसे हमारा बुरा दिन आया है वैसे ही अच्छा दिन भी आएगा।
उसने अपने बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए रात दिन मेहनत की और अपने बच्चों को स्कूल में दाखिला करवाया। समय जैसे-जैसे बीतता गया बच्चे बड़े होते गए। पढ़ाई के साथ-साथ बच्चों ने भी छोटा मोटा काम शुरू कर दिया जिससे मां को सहारा मिल गया। गांव के कुछ अच्छे लोगों ने मुखिया की दो बेटियों की शादी करवा दी। अब मुखिया के दोनों लड़के और दोनों लडि़कियां पढ़ाई पूरी करने के बाद घर का सारा बोझ अपने कंधों पर ले लिया। उन्होंने अपने मां की भी जमकर सेवा की।
आज समय बदल चुका है। तीन बच्चों के पास सरकारी नौकरी है और अपना एक बड़ा सा घर है। अब उनकी मां उनसे कहती है कि बेटा मै कहती थी न कि समय सदा एक सा नहीं रहता। कभी गम कभी खुशी जिंदगी के दो पहलू हैं। जो ङ्क्षदगी से लड़ा वही अपनी जिंदगी में आगे बढ़ा। जो दुखों से डर कर रह गया वह कभी भी अगे नहीं बढ़ सकता है।
Monday, August 9, 2010
बाबूजी का जुर्माना
जय प्रताप सिंह
जय कंप्यूटर पर बैठकर खबरों की दुनिया में खोया हुआ था। उसकी उंगलियां तेजी के साथ कीबोर्ड पर दौड़ रही थीं। उसके अगल बगल तीन आदमी उसे जोर-जोर से उसे हिला रहे थे। उसमें से एक गोरा-चि_ा नाटे कद का आदमी हाथ में पीली पर्ची का बंडल और कांख में दबाए एक अखबार को लिए खड़ा था। वह लगातार बोलता जा रहा था। अचानक जय गुस्से में आकर कीबोर्ड पर जोर से हाथ पटका और खड़ा हो गया। तुमहारा दिमाग खराब हो गया है? चपरासी हो तो अपनी औकात में रहो। तुम्हें जर्माना ही तो चाहिए...। अभी ले लेना। मैं कोई अपराधी थेड़े हूं कि मुझे पकडऩे के लिए चार लोग खड़े हो। क्ंप्यूटर बंद करो और बाबूजी के पास चलो। मैनेजर ने भी अपनी आवाज को गति देते हुए बोला। तुम पहले 100 रुपये की पर्ची काटो फिर बात करना। बगल में खड़े तीसरे आदमी ने उसके हाथ में पेन पकड़ाते हुए कहा। यह कोई गलती नहीं है। शिर्फ एक शब्द ही तो गलत हुआ है और उसका 200 रुपया जुर्माना। मैं नहीं दुंगा। जय ने जवाब दिया। चलो बाबूजी के पास। चपरासी बाबूजी के आफिस की ओर जाते हुए कहा। चपरासी आगे-आगे और उसके पीछे-पीछे दोनों आदमी जय को पकड़े एक बड़े से हाल की ओर लिए जा रहे थे।
बीस फुट लंबा और पंद्रह फुट लंबा एक बड़ा सा हाल था। उसके एक किनारे एक लंबा चौड़ा मेज रखा हुआ था। किनारे किनारे सोफा और कुर्सियां करीने से रखी हुई थीं। उन कुर्सियों पर जालंधर शहर के मानी जानीं हस्तियां सफेद कुर्ता पाजामा पहने माथे पर लंबा सा तिलक लगाये गुपचुप बैठे हुए थे। बीच बीच में मुस्करा भी दिया करते थे। वहां पर रखा मेज फाइलों के बोझ तले दबा जा रहा था। उन्हीं फाइलों के बीच से माथे पर तिलक, गले में रामनामी दुपट्टा डाले बाबूजी ने अपना थोबड़ा बाहर निकाला। बाबूजी के सिर के बाल लगभग उजड़ा चमन हो चुका था, लेकिन उसकी भरपाई मुंछें पूरी कर दे रही थीं। वह हर समय सफेद वस्त्रों को ही धारण करते थे। बाबूजी बहुत बड़े धाॢमक किस्म के व्यक्ति थे। वे हर समय अपने जैसे ही धार्मिक लोगों के बीच घिरे रहते थे। यह बात अलग है कि इन धाॢमक लोगों पर लोग मुंह पीछे अपराधी और बलात्कारी होने का आरोप भी लगाते थे। लेकिन इन लोगों पर केस दर्ज होना तो दूर पुलिस पास तक फटकती नहीं थी। कुल मिला जुलाकर बाबूजी धर्म के ठेकेदारों से घिरे रहते थे। बाबूजी कुर्सी पर जब एक बार पसर जाते थे तो फिर जल्दी उठना नहीं चाहते, क्योंकि उनका अग्रभाग इस कदर बढ़ा हुआ था कि वह हमेशा बाहर आने को बेताब रहता था।
बाबूजी बिलकुल अलग किस्म के धार्मिक व्यक्ति थे। वह कभी भी अपनी जेब से दान नहीं करते थे। बल्कि उनके दान करने का तरीका ही कुछ अलग होता था। बाबूजी अखबार के दफ्तर में चपरासी, उपसंपादक और संपादक और अन्य कर्मचारियों के ऊपर जुर्माना लगाते थे। उस जुर्माने की रकम को धार्मिक कामों में लगाते थे। उनकी सबसे बड़ी जो महानता थी वह यह कि कर्मचारियों के खून पसीने से निचोड़े गये पैसों को सहीद फंड में भिजवा देते थे। इस शहीद फंड से जम्मू कश्मीर में हो रहे शहीद परिवारों के पास ट्रक के ट्रक रशद पहुंचाते थे। जिस समय रशद का ट्रक जाना होता था उस समय उपसंपादकों के कान खड़े हो जाते थे। बढ़ी हुई सेलरी और ओवर टाइम तो हर माह जुर्माने में कट जाता था। बाबूजी इन सबके बावजूद दया के मुॢत थे। इस बात का सबूत उस समय मिलता था जब किसी उपसंपादक के पास जुर्माने की रकम देने के लिए जेब में पैसे नहीं हुआ करते थे। उस समय उससे रजिस्टर पर साइन कराकर कर पीली या लाल पर्ची पकड़ा दिया जाता था और वह कैस देने से छुट्टी पा जाता था। अब तो आप सोच रहे होंगे कि ऐसे समय में जेब में पैसा न रहना ही अच्छा है। लेकिन आप इतने चालाक मत बन बनिए। हमारे महान बाबूजी ऐसे थोड़े महान और दया के मुर्ति थे। वह पैसा वेतन से सूद व्याज सहित काट लिया जाता था। ऐसा ही कुछ जय के भी साथ होने वाला था।
फाइलों के लगे ढेर के बीच से सिर को ऊपर उठाते हुए दया के मूर्ति बाबूजी ने लालच भरी निगाहों से जय को घूरते हुए कहा- की बात है पुत्तर? तूसी क्या काम है? बाबूजी यह जुर्माने की पर्ची नहीं काट रहा है? कह रहा है कि मेरी गलती नहीं है। मैनेजर ने जय का हाथ पकड़ कर उनके पास धक्का देते हुए कहा। तुम क्यों नहीं पर्ची कटा रहे हो। बाबूजी यह हेडिंग गलत नहीं है। आप भी इसको पढ़ लीजिए। जय ने रुआंसे स्वर में जवाब दिया। बाबूजी यह झूठ बोल रहा है। खबर और हेडिंग दोनों गलत है। चपरासी ने जल्दी से अखबार को हाथ में पकड़ाते हुए कहा। वह गलत कह रहा है तो गलत है। तुम पहले पर्ची कटाओ फिर जाओ। बाबूजी ने गुस्से से अखबार को एक तरफ फेंकते हुए कहा और फिर अपनी निगाहें फाइलों के बीच गड़ा दी। कितने की पर्ची कटवानी है? जय ने कहा। तुमने हमारा कीमती समय बर्बाद किया है। अब तुम्हें 300 रुपये की पर्ची कटवानी पड़ेगी। बाबूजी ने फाइलों के बीच खोए खोए ही जवाब दिया। लो पर्ची पर साइन करो। चपरासी ने पर्ची को आगे बढ़ा दिया। जय अभी पर्ची पर साइन कर ही रहा था कि बाबूजी ने कहा कि तुम काम करो तो आदमी बन जाओगे। हां बाबूजी मैं आदमी बनना चाहता हूं। जबसे यहां पर आया हूं, आदमी रहा ही नहीं। पर्ची हाथ में पकड़े पकड़े जय ने जवाब दिया। अब बताओ तुम क्या हो? तूसी अब फंस गये हो, तुम्हें बताना ही पड़ेगा कि तुम क्या हो। जय अपने आपको तत्काल संभाल लिया।। उसे समझ में आ गया कि यह खूसट बुड्ढा सबसे कहलवाता था कि कहो कि तुम गधे हो। जय गधा नहीं बनना चाहता था। लेकिन कुछ न कुछ तो उसे कहना ही था। जो आप हैं, वही मैं भी हूं। आप लोगों के बीच रह रहा हूं, वही बन गया हूं। उसने दोहराते हुए कहा कि जो आप हैं वही मैं हूं। जोर से बोलो तुम क्या हो? गधा हूं। जय ने गधा शब्द पर जोर देते हुए बोला। थेड़ी देर के लिए कमरे में सन्नाटा छा गया। बाबूजी जय का चेहरा एक टक देखे जा रहा था। उसका चेहरा तमतमा उठा। उसने चारो तरफ नजर दौड़ाते हुए कहा कि लड़का निडर है। हां बाबूजी यह निडर है। मैनेजर ने हां में हां मिलाया। देखो यह बात कंपनी में नहीं जानी चाहिए। किसी से भी मत कहना। मैनेजर की ओर नजर दौड़ाते हुए बाबूजी ने कहा। बाबूजी हम किसी से नहीं कहेंगे। मैनेजर, चपरासी और चीफ व्यूरों ने दोनों हाथों को जोड़े लगभग कांपते हुए कहा। लो बेटा बर्फी खाओ। बाबूजी ने बर्फी का डिब्बा आगे बढ़ाते हुए कहा। जय ने नियमानुसार मिठाई के डिब्बे में से तीन बर्फी निकाला और पीछे मुड़ गया। उस संस्थान का सबसे बड़ा नियम यह था कि जो 100 रुपये जुर्माना दे उसे एक पीस बर्फी और 300 रुपये देने पर तीन पीस बर्फी दिया जाता था।
जय पीछे मुड़ा नहीं कि उलटे पांव ऐसे भागा जैसे कि अभी अभी पुलिस कस्टडी से भागा हो। वह कंप्यूटर को ऑन किया और सबकुछ भूल कर खबरों की दुनिया में खो गया। कितने की पर्ची कटाए हो? एक उपसंपादक साथी ने सवाल किया। तीन सौ रुपये का। फिर वह काम में व्यस्त हो गया। यह कोई एक दिन की बात नहीं थी, बल्कि रोज ही किसी न किसी को जुर्माना देना ही पड़ता था। अभी वह पिछली बातें भूल भी नहीं पाया था कि वही चपरासी जिसका पढ़ाई से दूर दूर का रिश्ता नहीं था, पीली पर्ची लिए आ धमका। यह खबर तुमने क्यों नहीं लगाई? उसने जागरण अखबार हाथ में पकड़ाते हुए कहा। नहीं लगाई तो क्या? चलो छोटे बाबूजी बुलाए हैं। उसने सीट से उठाते हुए कहा। जय इस बार कोई बहस नहीं किया। क्योंकि बहस करने पर ही उसने 100 रुपये की जगह तीन सौ रुपये अभी अभी देकर आया था। चपरासी आगे-आगे और वह पीछे-पीछे चल दिया।
तुमसे यह खबर क्यों छूट गयी? छोटे बाबूने कहा। सर, यह खबर रिपोर्टर ने मेरे पास नहीं भेजा था। मुझे क्या मालूम कि शहर से 100 किलोमीटर दूर क्या हो रहा है। जय ने जवाब दिया। 200 की पर्ची काटो और चलो। छोटे बाबू ने लगभग झिड़कते हुए कहा। सर अब मैं पर्ची नहीं काट सकता। मेरी पूरी सेलरी ही जुर्माने में चली जाएगी, मैं पंद्रह दिन में बारह सौ रुपया जुर्माना दे चुका हूं। अब नहीं दे सकता। जय ने रोते हुए कहा। नहीं दे सकते तो सीढिय़ों से नीचे उतर जाओ। उसने पर्ची कटाई और रोते हुए वापस अपनी सीट पर आ गया। इस बार पैसा भी दिया और बर्फी भी नहीं मिली। क्योंकि छोटे बाबू जो जुर्माना लगाते थे, उसका बर्फी नहीं मिलता था। बर्फी शिर्फ बड़े बाबूूजी ही देते थे। वह कंप्यूटर पर बैठा-बैठा अपनी किशमत को रो रहा था कि कहां आ कर मैं फंस गया। यह सब इनशान नहीं बल्कि हैवान हैं। वह बहुत पहले ही चला जाना चाहता था, लेकिन क्या करे? घर जाने के लिए उसके पास पैसा ही नहीं बचता था। सेलरी तो सढ़े छह हजार थी, लेकिन जुर्माना और पीएफ काटने के बाद चार हजार रुपये हाथ में आते थे। जो मकान का किराया और रोटी में ही खत्म हो जाता था। पीएफ भी मात्र एक बहाना था। वह पैसा कहां जाता था, कुछ पता नहीं। उसका कोई प्रूफ नहीं भी नहीं था। जो लोग पांच छह सालों तक काम करते थे, उनमें से किसी किसी को पीएफ कार्ड दे दिया जाता था। एडिटोरियल हेड और मैनेजर अपनी पूरी ऊर्जा बाबूजी को खुश करने में लगा देते थे। वे लोग बारी बारी से सभी उपसंपादकों का जुर्माना जानबूझकर लगवाते थे। वे लोग इतने योग्य थे कि अन्य किसी अखबार में कोई उन्हें ट्रेङ्क्षनग में भी न रखे। लेकिन पंजाब के इस चर्चित अखबार में बतौर समाचार संपादक और मैनेजर थे। ऐसी घटनाएं अक्सर सभी के साथ होती थी। समाचार संपादक और मैनेजर भी जुर्माने से अछूते नहीं थे। जुर्माना इस लिए भी काफी आता था क्योंकि यहां पर प्रत्येक उपसंपादक से आठ घंटा ही नहीं बल्कि बारह-बारह घंटा गुलामों की तरह खटाया जाता था। ऊपर से प्रत्येक उपसंपादक से चार से लेकर आठ-आठ पेज बनवाया जाता था। सहुलियत शिफ इतनी थी कि पेज सेट करने के लिए एक पेजनेटर मिलता था।
एक दिन की घटना तो अभी तक नहीं भूला है। हुआ यूं कि जय एक दिन जालंधर सिटी डेक्स पर बैठा था। उसी समय बाबूजी ने उसको अपने पास बुलाया और हाथ से लिखा हुआ एक कागज पकड़ाते हुए कहा कि इसे चार नंबर पेज पर लीड बना लेना। अच्छी तरह से खबर बनाना, यह मेरी खबर है। वह खबर गीतावाटिका मंदिर के प्रधानगी के चुनाव के बारे में था। जय ने उस खबर को अच्छी तरह से पढ़ कर चार नंबर पेज की लीड बनवाने के बाद उस प्रूफरीडिंग भी करवाई। खबर चूंकि बाबूजी का था इसलिए उस खबर को काफी अच्छी तरह से पढऩे के बाद ही पेज पर लगाया गया। सुबह जब अखबार खोला तो उसमें प्रधानगी का चुनाव पांच को की जगह छपा था कि प्रधानमंत्री का चुनाव पांच को जय को फिर बाबूजी के सामने पेस होना पड़ा। तूसी तो बलंडर कर दिया है। मेरे पास पांच सौ लोगों का फोन आ चुका है कि कैसे लोगों को भर्ती किए हो। अब तुम्हें दो हजार रुपये जुर्माना देना पड़ेगा। बाबूजी ने गुस्से में कहा। बाबूजी दो हजार रुपये कैसे? एक ही शब्द तो गलत है। बाकी अंदर सब ठीक है। एक शब्द का 100 रुपये ही हुआ। जय ने आत्मविश्वाश के साथ कहा। ठीक है 100 रुपये की पर्ची कटवाओ। बाबूजी फिर अपने काम मे व्यस्त हो गये। जय ने पर्ची कटवाया और नियमानुसार एक बर्फी उठाते हुए कमरे से बाहर हो गया। वह बाबूजी की मूर्खता पर काफी खुश था। उसे इस बात पर हंसी आ रही थी कि इस गधे को यह नहीं मालूम कि यह मात्र एक शब्द की गलती नहीं बल्कि एक प्रतिष्ठत अखबार के लिए बलंडर था। वह फिर अपने कामों में जुट गया और बहुत ही जल्द उस कालकोठरी से निकलने के बारे में सोचता रहा।
जय कंप्यूटर पर बैठकर खबरों की दुनिया में खोया हुआ था। उसकी उंगलियां तेजी के साथ कीबोर्ड पर दौड़ रही थीं। उसके अगल बगल तीन आदमी उसे जोर-जोर से उसे हिला रहे थे। उसमें से एक गोरा-चि_ा नाटे कद का आदमी हाथ में पीली पर्ची का बंडल और कांख में दबाए एक अखबार को लिए खड़ा था। वह लगातार बोलता जा रहा था। अचानक जय गुस्से में आकर कीबोर्ड पर जोर से हाथ पटका और खड़ा हो गया। तुमहारा दिमाग खराब हो गया है? चपरासी हो तो अपनी औकात में रहो। तुम्हें जर्माना ही तो चाहिए...। अभी ले लेना। मैं कोई अपराधी थेड़े हूं कि मुझे पकडऩे के लिए चार लोग खड़े हो। क्ंप्यूटर बंद करो और बाबूजी के पास चलो। मैनेजर ने भी अपनी आवाज को गति देते हुए बोला। तुम पहले 100 रुपये की पर्ची काटो फिर बात करना। बगल में खड़े तीसरे आदमी ने उसके हाथ में पेन पकड़ाते हुए कहा। यह कोई गलती नहीं है। शिर्फ एक शब्द ही तो गलत हुआ है और उसका 200 रुपया जुर्माना। मैं नहीं दुंगा। जय ने जवाब दिया। चलो बाबूजी के पास। चपरासी बाबूजी के आफिस की ओर जाते हुए कहा। चपरासी आगे-आगे और उसके पीछे-पीछे दोनों आदमी जय को पकड़े एक बड़े से हाल की ओर लिए जा रहे थे।
बीस फुट लंबा और पंद्रह फुट लंबा एक बड़ा सा हाल था। उसके एक किनारे एक लंबा चौड़ा मेज रखा हुआ था। किनारे किनारे सोफा और कुर्सियां करीने से रखी हुई थीं। उन कुर्सियों पर जालंधर शहर के मानी जानीं हस्तियां सफेद कुर्ता पाजामा पहने माथे पर लंबा सा तिलक लगाये गुपचुप बैठे हुए थे। बीच बीच में मुस्करा भी दिया करते थे। वहां पर रखा मेज फाइलों के बोझ तले दबा जा रहा था। उन्हीं फाइलों के बीच से माथे पर तिलक, गले में रामनामी दुपट्टा डाले बाबूजी ने अपना थोबड़ा बाहर निकाला। बाबूजी के सिर के बाल लगभग उजड़ा चमन हो चुका था, लेकिन उसकी भरपाई मुंछें पूरी कर दे रही थीं। वह हर समय सफेद वस्त्रों को ही धारण करते थे। बाबूजी बहुत बड़े धाॢमक किस्म के व्यक्ति थे। वे हर समय अपने जैसे ही धार्मिक लोगों के बीच घिरे रहते थे। यह बात अलग है कि इन धाॢमक लोगों पर लोग मुंह पीछे अपराधी और बलात्कारी होने का आरोप भी लगाते थे। लेकिन इन लोगों पर केस दर्ज होना तो दूर पुलिस पास तक फटकती नहीं थी। कुल मिला जुलाकर बाबूजी धर्म के ठेकेदारों से घिरे रहते थे। बाबूजी कुर्सी पर जब एक बार पसर जाते थे तो फिर जल्दी उठना नहीं चाहते, क्योंकि उनका अग्रभाग इस कदर बढ़ा हुआ था कि वह हमेशा बाहर आने को बेताब रहता था।
बाबूजी बिलकुल अलग किस्म के धार्मिक व्यक्ति थे। वह कभी भी अपनी जेब से दान नहीं करते थे। बल्कि उनके दान करने का तरीका ही कुछ अलग होता था। बाबूजी अखबार के दफ्तर में चपरासी, उपसंपादक और संपादक और अन्य कर्मचारियों के ऊपर जुर्माना लगाते थे। उस जुर्माने की रकम को धार्मिक कामों में लगाते थे। उनकी सबसे बड़ी जो महानता थी वह यह कि कर्मचारियों के खून पसीने से निचोड़े गये पैसों को सहीद फंड में भिजवा देते थे। इस शहीद फंड से जम्मू कश्मीर में हो रहे शहीद परिवारों के पास ट्रक के ट्रक रशद पहुंचाते थे। जिस समय रशद का ट्रक जाना होता था उस समय उपसंपादकों के कान खड़े हो जाते थे। बढ़ी हुई सेलरी और ओवर टाइम तो हर माह जुर्माने में कट जाता था। बाबूजी इन सबके बावजूद दया के मुॢत थे। इस बात का सबूत उस समय मिलता था जब किसी उपसंपादक के पास जुर्माने की रकम देने के लिए जेब में पैसे नहीं हुआ करते थे। उस समय उससे रजिस्टर पर साइन कराकर कर पीली या लाल पर्ची पकड़ा दिया जाता था और वह कैस देने से छुट्टी पा जाता था। अब तो आप सोच रहे होंगे कि ऐसे समय में जेब में पैसा न रहना ही अच्छा है। लेकिन आप इतने चालाक मत बन बनिए। हमारे महान बाबूजी ऐसे थोड़े महान और दया के मुर्ति थे। वह पैसा वेतन से सूद व्याज सहित काट लिया जाता था। ऐसा ही कुछ जय के भी साथ होने वाला था।
फाइलों के लगे ढेर के बीच से सिर को ऊपर उठाते हुए दया के मूर्ति बाबूजी ने लालच भरी निगाहों से जय को घूरते हुए कहा- की बात है पुत्तर? तूसी क्या काम है? बाबूजी यह जुर्माने की पर्ची नहीं काट रहा है? कह रहा है कि मेरी गलती नहीं है। मैनेजर ने जय का हाथ पकड़ कर उनके पास धक्का देते हुए कहा। तुम क्यों नहीं पर्ची कटा रहे हो। बाबूजी यह हेडिंग गलत नहीं है। आप भी इसको पढ़ लीजिए। जय ने रुआंसे स्वर में जवाब दिया। बाबूजी यह झूठ बोल रहा है। खबर और हेडिंग दोनों गलत है। चपरासी ने जल्दी से अखबार को हाथ में पकड़ाते हुए कहा। वह गलत कह रहा है तो गलत है। तुम पहले पर्ची कटाओ फिर जाओ। बाबूजी ने गुस्से से अखबार को एक तरफ फेंकते हुए कहा और फिर अपनी निगाहें फाइलों के बीच गड़ा दी। कितने की पर्ची कटवानी है? जय ने कहा। तुमने हमारा कीमती समय बर्बाद किया है। अब तुम्हें 300 रुपये की पर्ची कटवानी पड़ेगी। बाबूजी ने फाइलों के बीच खोए खोए ही जवाब दिया। लो पर्ची पर साइन करो। चपरासी ने पर्ची को आगे बढ़ा दिया। जय अभी पर्ची पर साइन कर ही रहा था कि बाबूजी ने कहा कि तुम काम करो तो आदमी बन जाओगे। हां बाबूजी मैं आदमी बनना चाहता हूं। जबसे यहां पर आया हूं, आदमी रहा ही नहीं। पर्ची हाथ में पकड़े पकड़े जय ने जवाब दिया। अब बताओ तुम क्या हो? तूसी अब फंस गये हो, तुम्हें बताना ही पड़ेगा कि तुम क्या हो। जय अपने आपको तत्काल संभाल लिया।। उसे समझ में आ गया कि यह खूसट बुड्ढा सबसे कहलवाता था कि कहो कि तुम गधे हो। जय गधा नहीं बनना चाहता था। लेकिन कुछ न कुछ तो उसे कहना ही था। जो आप हैं, वही मैं भी हूं। आप लोगों के बीच रह रहा हूं, वही बन गया हूं। उसने दोहराते हुए कहा कि जो आप हैं वही मैं हूं। जोर से बोलो तुम क्या हो? गधा हूं। जय ने गधा शब्द पर जोर देते हुए बोला। थेड़ी देर के लिए कमरे में सन्नाटा छा गया। बाबूजी जय का चेहरा एक टक देखे जा रहा था। उसका चेहरा तमतमा उठा। उसने चारो तरफ नजर दौड़ाते हुए कहा कि लड़का निडर है। हां बाबूजी यह निडर है। मैनेजर ने हां में हां मिलाया। देखो यह बात कंपनी में नहीं जानी चाहिए। किसी से भी मत कहना। मैनेजर की ओर नजर दौड़ाते हुए बाबूजी ने कहा। बाबूजी हम किसी से नहीं कहेंगे। मैनेजर, चपरासी और चीफ व्यूरों ने दोनों हाथों को जोड़े लगभग कांपते हुए कहा। लो बेटा बर्फी खाओ। बाबूजी ने बर्फी का डिब्बा आगे बढ़ाते हुए कहा। जय ने नियमानुसार मिठाई के डिब्बे में से तीन बर्फी निकाला और पीछे मुड़ गया। उस संस्थान का सबसे बड़ा नियम यह था कि जो 100 रुपये जुर्माना दे उसे एक पीस बर्फी और 300 रुपये देने पर तीन पीस बर्फी दिया जाता था।
जय पीछे मुड़ा नहीं कि उलटे पांव ऐसे भागा जैसे कि अभी अभी पुलिस कस्टडी से भागा हो। वह कंप्यूटर को ऑन किया और सबकुछ भूल कर खबरों की दुनिया में खो गया। कितने की पर्ची कटाए हो? एक उपसंपादक साथी ने सवाल किया। तीन सौ रुपये का। फिर वह काम में व्यस्त हो गया। यह कोई एक दिन की बात नहीं थी, बल्कि रोज ही किसी न किसी को जुर्माना देना ही पड़ता था। अभी वह पिछली बातें भूल भी नहीं पाया था कि वही चपरासी जिसका पढ़ाई से दूर दूर का रिश्ता नहीं था, पीली पर्ची लिए आ धमका। यह खबर तुमने क्यों नहीं लगाई? उसने जागरण अखबार हाथ में पकड़ाते हुए कहा। नहीं लगाई तो क्या? चलो छोटे बाबूजी बुलाए हैं। उसने सीट से उठाते हुए कहा। जय इस बार कोई बहस नहीं किया। क्योंकि बहस करने पर ही उसने 100 रुपये की जगह तीन सौ रुपये अभी अभी देकर आया था। चपरासी आगे-आगे और वह पीछे-पीछे चल दिया।
तुमसे यह खबर क्यों छूट गयी? छोटे बाबूने कहा। सर, यह खबर रिपोर्टर ने मेरे पास नहीं भेजा था। मुझे क्या मालूम कि शहर से 100 किलोमीटर दूर क्या हो रहा है। जय ने जवाब दिया। 200 की पर्ची काटो और चलो। छोटे बाबू ने लगभग झिड़कते हुए कहा। सर अब मैं पर्ची नहीं काट सकता। मेरी पूरी सेलरी ही जुर्माने में चली जाएगी, मैं पंद्रह दिन में बारह सौ रुपया जुर्माना दे चुका हूं। अब नहीं दे सकता। जय ने रोते हुए कहा। नहीं दे सकते तो सीढिय़ों से नीचे उतर जाओ। उसने पर्ची कटाई और रोते हुए वापस अपनी सीट पर आ गया। इस बार पैसा भी दिया और बर्फी भी नहीं मिली। क्योंकि छोटे बाबू जो जुर्माना लगाते थे, उसका बर्फी नहीं मिलता था। बर्फी शिर्फ बड़े बाबूूजी ही देते थे। वह कंप्यूटर पर बैठा-बैठा अपनी किशमत को रो रहा था कि कहां आ कर मैं फंस गया। यह सब इनशान नहीं बल्कि हैवान हैं। वह बहुत पहले ही चला जाना चाहता था, लेकिन क्या करे? घर जाने के लिए उसके पास पैसा ही नहीं बचता था। सेलरी तो सढ़े छह हजार थी, लेकिन जुर्माना और पीएफ काटने के बाद चार हजार रुपये हाथ में आते थे। जो मकान का किराया और रोटी में ही खत्म हो जाता था। पीएफ भी मात्र एक बहाना था। वह पैसा कहां जाता था, कुछ पता नहीं। उसका कोई प्रूफ नहीं भी नहीं था। जो लोग पांच छह सालों तक काम करते थे, उनमें से किसी किसी को पीएफ कार्ड दे दिया जाता था। एडिटोरियल हेड और मैनेजर अपनी पूरी ऊर्जा बाबूजी को खुश करने में लगा देते थे। वे लोग बारी बारी से सभी उपसंपादकों का जुर्माना जानबूझकर लगवाते थे। वे लोग इतने योग्य थे कि अन्य किसी अखबार में कोई उन्हें ट्रेङ्क्षनग में भी न रखे। लेकिन पंजाब के इस चर्चित अखबार में बतौर समाचार संपादक और मैनेजर थे। ऐसी घटनाएं अक्सर सभी के साथ होती थी। समाचार संपादक और मैनेजर भी जुर्माने से अछूते नहीं थे। जुर्माना इस लिए भी काफी आता था क्योंकि यहां पर प्रत्येक उपसंपादक से आठ घंटा ही नहीं बल्कि बारह-बारह घंटा गुलामों की तरह खटाया जाता था। ऊपर से प्रत्येक उपसंपादक से चार से लेकर आठ-आठ पेज बनवाया जाता था। सहुलियत शिफ इतनी थी कि पेज सेट करने के लिए एक पेजनेटर मिलता था।
एक दिन की घटना तो अभी तक नहीं भूला है। हुआ यूं कि जय एक दिन जालंधर सिटी डेक्स पर बैठा था। उसी समय बाबूजी ने उसको अपने पास बुलाया और हाथ से लिखा हुआ एक कागज पकड़ाते हुए कहा कि इसे चार नंबर पेज पर लीड बना लेना। अच्छी तरह से खबर बनाना, यह मेरी खबर है। वह खबर गीतावाटिका मंदिर के प्रधानगी के चुनाव के बारे में था। जय ने उस खबर को अच्छी तरह से पढ़ कर चार नंबर पेज की लीड बनवाने के बाद उस प्रूफरीडिंग भी करवाई। खबर चूंकि बाबूजी का था इसलिए उस खबर को काफी अच्छी तरह से पढऩे के बाद ही पेज पर लगाया गया। सुबह जब अखबार खोला तो उसमें प्रधानगी का चुनाव पांच को की जगह छपा था कि प्रधानमंत्री का चुनाव पांच को जय को फिर बाबूजी के सामने पेस होना पड़ा। तूसी तो बलंडर कर दिया है। मेरे पास पांच सौ लोगों का फोन आ चुका है कि कैसे लोगों को भर्ती किए हो। अब तुम्हें दो हजार रुपये जुर्माना देना पड़ेगा। बाबूजी ने गुस्से में कहा। बाबूजी दो हजार रुपये कैसे? एक ही शब्द तो गलत है। बाकी अंदर सब ठीक है। एक शब्द का 100 रुपये ही हुआ। जय ने आत्मविश्वाश के साथ कहा। ठीक है 100 रुपये की पर्ची कटवाओ। बाबूजी फिर अपने काम मे व्यस्त हो गये। जय ने पर्ची कटवाया और नियमानुसार एक बर्फी उठाते हुए कमरे से बाहर हो गया। वह बाबूजी की मूर्खता पर काफी खुश था। उसे इस बात पर हंसी आ रही थी कि इस गधे को यह नहीं मालूम कि यह मात्र एक शब्द की गलती नहीं बल्कि एक प्रतिष्ठत अखबार के लिए बलंडर था। वह फिर अपने कामों में जुट गया और बहुत ही जल्द उस कालकोठरी से निकलने के बारे में सोचता रहा।
Thursday, August 5, 2010
आज का श्रवण या कुछ और...
जय प्रताप सिंह
आज का श्रवण इस समय लगातार मीडिया में मुख्य खबर बनता जा रहा है। दूसरे धर्मों के लोग फूल मालाएं लेकर उसके सम्मान को निकल पड़े हैं। लोग बड़ी-बडी़ खबरें छापने से लेकर भारी-भरकम लेखों पर अपनी कलम चला रहे हैं। चैनलों का तो मानों बहार आ गया है। इस पर गौर करने की बात है कि आखिर यह कौन सा समय है जब लोग इन सब मसलों पर अपना समय नष्ट कर रहे हैं? क्या आज के समय में हमारे पास शिर्फ यही एक खबर है? क्या हमारे सामने भूख, बीमारी और कर्ज के बोझ तले दबकर हो रही मौतें खबर नहीं हैं? क्या हम इन चीजों को ही बढ़ावा देना चाहते हैं? क्या वही इक्के-दुक्के लोग ही बचे हैं जो अपने मां-बाप से प्यार करते हैं, या कुछ और----? इस पर भी सोचने की जरूरत है। आदि, आदि।
जुलाई माह के अंतिम और अगस्त माह की शुरुआत से ही पूर्वी व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सड़कों पर एक तरफ सड़कों पर कंधे में कांवड़ लिए तथा दूसरी ओर अपनी रोजी-रोटी के लिए, जिनके पास नौकरी करके अपने मां-बाप और बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी जुटाने का और कोई साधन नहीं है, के बीच कांवड़ ही सबसे महत्वपूर्ण स्थान ले लिया है। लोग भी इसे सकारात्मक रूप में सराह रहे हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि कुछ नौजवानों को तो श्रवण कुमार बनने की हसरत भी है, जिनमें इक्के-दुक्के लोग श्रवण कुमार की तरह अपने कंधे पर जुआ लटकाए दोनों तरफ अपने मामा-पिता को बैठा कर लिए जाते हरिद्वार तक कांवड़ भरने जाते हैं। लोगों की निगाह उन्हीं नौजवानों पर टिक जाती हैं। उनके सामने बाकी सभी कुछ गौड़ हो जाता है। लोगों को यह कहते हुए भी सुना जाता है कि 'देखो! वह अपने माता-पिता को कितना प्यार करता है।Ó लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचता, इसे चाहे बेवकूफी कहें या अपने मां-बाप के प्रति अमानवीय या कुछ और....। मैं कहना यह चाहता हूं कि क्या वह बेटा अपने मां-बाप को प्यार नहीं करता है जो दिन भर मजदूरी करने के बाद शाम को अपने भूखे व बीमार मां-बाप और बच्चों के लिए भात, रोटी नमक और तरकारी का इंतजाम करता है? या वह नौजवान जो अपनी बीबी बच्चों की दवा और दो वक्त की रोटी कमाने में ही अपनी जिंदगी तबाह कर देता है, लेकिन न चाहते हुए भी अपने बूढ़े मां-बाप के साथ चंद समय भी नहीं निकाल सकता। यदि निकाल भी ले तो दूसरे दिन उसकी नौकरी पर भी तलवार लटकती दिखाई देती है। क्या इसको बढ़ावा देने से हजारों, लाखों नौजवानों ताने नहीं सुनने पड़ेंगे।
यह सब तो कुछ उसी तरह से है जब शाहजहां ने नुरजहां से इस कदर प्यार करता था कि उसकी मौत के बाद उसने आगरे का ताजमहल बनवा दिया। इसका मतलब तो यही हुआ कि शाहजहां ही एक ऐसा शख्श था जो प्यार करता था। बाकी लोग तो शिर्फ ढकोसला करते हैं। और हम भी उसी बहाव में बह जाते हैं। क्या हम यह नहीं सोच सकते कि शाहजहां का प्यार ही मात्र प्यार नहीं है बल्कि ऐसे लाखों लोगा हैं जो एक-दूसरे से इस कदर प्यार करते हैं कि एक-दूसरे के दुख तकलीफों में शेयर करते-करते अपनी जान तक दे देते हैं। लेकिन वह शाहजहां जैसे सुलतान या राजा नहीं थे कि ताजमहल बनवा सकें।
ठीक इसी तरह इक्के-दुक्के को छोड़ कर लाखों नौजवान ऐसे हैं जो अपने माता-पिता को इस कदर प्यार करते हैं कि उन्हें हरिद्वार ही क्या पूरे देश का सैर करवा सकें, लेकिन उनके सामन रोटी का संकट इस कदर हाबी होता है कि वे सैर कराना तो दूर उनके पास दो दिन रुकने का भी समय नहीं निकाल सकते। यदि दो दिन काम पर न जाएं तो मालिक काम पर से निकाल कर इस कदर फेंक देगा कि जैसे दूध से मख्खी।
वहीं दूसरी ओर पूरा का पूरा हाईवे जाम कर दिया जाता है जिससे आवागमन भी बाधित होता है। लोगों को फैक्टरी, कारखानों तथा कार्यालयों में पहुंचने के लिए भी घंटों की दूरियां तय करनी पड़ती हैं। यदि किसी को दवा इलाज के लिए कहीं बाहर जाना हो तो वह कांवड़ लौटने तक इंतजार करे या यमराज से बिनती करे कि भाई कुछ दिन का समय और दे दो फिर हम दवा करवा लेंगे। नहीं तो यमराज के पास जाने का रास्त तो हर समय खाली ही रहता है। वहां पर कोई भी जाम की स्थिति नहीं है। सोचने की बात यह है कि आज हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या रोजी-रोटी की है। दिन दूना रात चौगुनी की तरह महंगाई बढ़ती जा रही है। लोगों का जीना दूभर है। लोगों के पास यदि आमदनी 100 रुपये है तो खर्चा 150 रुपये। लेकिन सरकार को इन सबसे क्या लेना-देना है। उसके लिए तो सबसे जरूरी है इस समय धाॢमक मामलों में सुरक्षा के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च पानी की की तरह बहा देना। इस तरह अरबों रुपये पानी की तरह बहाने के लिए सरकार के पास पैसों की कमी नहीं है लेकिन यदि महंगाई को कम करने की बात करें तो देश की हालत ही गंभीर हो जाती है। यह है हमारे देश की स्थिति। ऐसे समय में एक बेहतर ङ्क्षजदगी जीने के लिए हमें क्या करना होगा, इसके बारे में हमें सोचने की जरूरत है। यदि सबकुछ इसी तरह चलता रहा तो आने वाला समय कितना भयावह होगा सहज ही इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
आज का श्रवण इस समय लगातार मीडिया में मुख्य खबर बनता जा रहा है। दूसरे धर्मों के लोग फूल मालाएं लेकर उसके सम्मान को निकल पड़े हैं। लोग बड़ी-बडी़ खबरें छापने से लेकर भारी-भरकम लेखों पर अपनी कलम चला रहे हैं। चैनलों का तो मानों बहार आ गया है। इस पर गौर करने की बात है कि आखिर यह कौन सा समय है जब लोग इन सब मसलों पर अपना समय नष्ट कर रहे हैं? क्या आज के समय में हमारे पास शिर्फ यही एक खबर है? क्या हमारे सामने भूख, बीमारी और कर्ज के बोझ तले दबकर हो रही मौतें खबर नहीं हैं? क्या हम इन चीजों को ही बढ़ावा देना चाहते हैं? क्या वही इक्के-दुक्के लोग ही बचे हैं जो अपने मां-बाप से प्यार करते हैं, या कुछ और----? इस पर भी सोचने की जरूरत है। आदि, आदि।
जुलाई माह के अंतिम और अगस्त माह की शुरुआत से ही पूर्वी व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सड़कों पर एक तरफ सड़कों पर कंधे में कांवड़ लिए तथा दूसरी ओर अपनी रोजी-रोटी के लिए, जिनके पास नौकरी करके अपने मां-बाप और बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी जुटाने का और कोई साधन नहीं है, के बीच कांवड़ ही सबसे महत्वपूर्ण स्थान ले लिया है। लोग भी इसे सकारात्मक रूप में सराह रहे हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि कुछ नौजवानों को तो श्रवण कुमार बनने की हसरत भी है, जिनमें इक्के-दुक्के लोग श्रवण कुमार की तरह अपने कंधे पर जुआ लटकाए दोनों तरफ अपने मामा-पिता को बैठा कर लिए जाते हरिद्वार तक कांवड़ भरने जाते हैं। लोगों की निगाह उन्हीं नौजवानों पर टिक जाती हैं। उनके सामने बाकी सभी कुछ गौड़ हो जाता है। लोगों को यह कहते हुए भी सुना जाता है कि 'देखो! वह अपने माता-पिता को कितना प्यार करता है।Ó लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचता, इसे चाहे बेवकूफी कहें या अपने मां-बाप के प्रति अमानवीय या कुछ और....। मैं कहना यह चाहता हूं कि क्या वह बेटा अपने मां-बाप को प्यार नहीं करता है जो दिन भर मजदूरी करने के बाद शाम को अपने भूखे व बीमार मां-बाप और बच्चों के लिए भात, रोटी नमक और तरकारी का इंतजाम करता है? या वह नौजवान जो अपनी बीबी बच्चों की दवा और दो वक्त की रोटी कमाने में ही अपनी जिंदगी तबाह कर देता है, लेकिन न चाहते हुए भी अपने बूढ़े मां-बाप के साथ चंद समय भी नहीं निकाल सकता। यदि निकाल भी ले तो दूसरे दिन उसकी नौकरी पर भी तलवार लटकती दिखाई देती है। क्या इसको बढ़ावा देने से हजारों, लाखों नौजवानों ताने नहीं सुनने पड़ेंगे।
यह सब तो कुछ उसी तरह से है जब शाहजहां ने नुरजहां से इस कदर प्यार करता था कि उसकी मौत के बाद उसने आगरे का ताजमहल बनवा दिया। इसका मतलब तो यही हुआ कि शाहजहां ही एक ऐसा शख्श था जो प्यार करता था। बाकी लोग तो शिर्फ ढकोसला करते हैं। और हम भी उसी बहाव में बह जाते हैं। क्या हम यह नहीं सोच सकते कि शाहजहां का प्यार ही मात्र प्यार नहीं है बल्कि ऐसे लाखों लोगा हैं जो एक-दूसरे से इस कदर प्यार करते हैं कि एक-दूसरे के दुख तकलीफों में शेयर करते-करते अपनी जान तक दे देते हैं। लेकिन वह शाहजहां जैसे सुलतान या राजा नहीं थे कि ताजमहल बनवा सकें।
ठीक इसी तरह इक्के-दुक्के को छोड़ कर लाखों नौजवान ऐसे हैं जो अपने माता-पिता को इस कदर प्यार करते हैं कि उन्हें हरिद्वार ही क्या पूरे देश का सैर करवा सकें, लेकिन उनके सामन रोटी का संकट इस कदर हाबी होता है कि वे सैर कराना तो दूर उनके पास दो दिन रुकने का भी समय नहीं निकाल सकते। यदि दो दिन काम पर न जाएं तो मालिक काम पर से निकाल कर इस कदर फेंक देगा कि जैसे दूध से मख्खी।
वहीं दूसरी ओर पूरा का पूरा हाईवे जाम कर दिया जाता है जिससे आवागमन भी बाधित होता है। लोगों को फैक्टरी, कारखानों तथा कार्यालयों में पहुंचने के लिए भी घंटों की दूरियां तय करनी पड़ती हैं। यदि किसी को दवा इलाज के लिए कहीं बाहर जाना हो तो वह कांवड़ लौटने तक इंतजार करे या यमराज से बिनती करे कि भाई कुछ दिन का समय और दे दो फिर हम दवा करवा लेंगे। नहीं तो यमराज के पास जाने का रास्त तो हर समय खाली ही रहता है। वहां पर कोई भी जाम की स्थिति नहीं है। सोचने की बात यह है कि आज हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या रोजी-रोटी की है। दिन दूना रात चौगुनी की तरह महंगाई बढ़ती जा रही है। लोगों का जीना दूभर है। लोगों के पास यदि आमदनी 100 रुपये है तो खर्चा 150 रुपये। लेकिन सरकार को इन सबसे क्या लेना-देना है। उसके लिए तो सबसे जरूरी है इस समय धाॢमक मामलों में सुरक्षा के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च पानी की की तरह बहा देना। इस तरह अरबों रुपये पानी की तरह बहाने के लिए सरकार के पास पैसों की कमी नहीं है लेकिन यदि महंगाई को कम करने की बात करें तो देश की हालत ही गंभीर हो जाती है। यह है हमारे देश की स्थिति। ऐसे समय में एक बेहतर ङ्क्षजदगी जीने के लिए हमें क्या करना होगा, इसके बारे में हमें सोचने की जरूरत है। यदि सबकुछ इसी तरह चलता रहा तो आने वाला समय कितना भयावह होगा सहज ही इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
Friday, July 30, 2010
शशि प्रकाश मेरे आदर्श थे !
हमने महसूस किया कि शशि प्रकाश का शातिर दिमाग पुनर्जागरण-प्रबोधन की बात करते हुए प्रकाशन और संस्थानों के मालिक बनने की होड़ में लग गया और हमलोग उसके पुर्जे होते गए.मेरा साफ मानना है कि शशि प्रकाश को हीरो बनाने में कुछ हद तक कमेटी के वे साथी भीजिम्मेदार रहे हैं जिन्होंने सब कुछ समझते हुए भी इतने दिनों तक एक क्रांति विरोधी आदमी का साथ दिया.
जय प्रताप सिंह
रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट लीग ऑफ इंडिया एक कम्पनी है जो शहीदे आजम भगत सिंह नाम पर युवाओं को भर्ती करती है.इसके लिए कई तरह के अभियानों का नाम भी दिया जाता है. उदाहरण के लिए 'क्रांतिकारी लोग स्वराज अभियान. कार्यकर्ता चार पेज का एक पर्चा लेकर सुबह पांच बजे से लेकर रात 8बजे तककालोनियों, मोहल्लों, ट्रेनों, बसों आदि में घर-घर जाकर कम्पनी के मालिक माननीय श्री श्री शशि प्रकाश जी महाराज द्वारा रटाए गये चंद शब्दों को लोगों के सामने उगल देते हैं । लोग भगत सिंह के नाम पर काफी पैसा भी देते हैं। पैसा कहां जाता था यह सब तो ईमानदार कार्यकर्ताओं के लिए कोई मायने नहीं रखता था लेकिन इतना तो साफ था कि पारिवारिक मंडली ऐशो आराम की चीजों का उपभोग करती थी । उदाहरण के लिए लखनऊ और दिल्ली केपाश इलाके में रहने, और उनके बेटे जिन्हें भविष्य के लेनिन के नाम से नवाजा जाता था, उसके लिए महंगा से महंगा म्यूजिक सिस्टम, गिटार आदि उपलब्ध कराया जाता था।
इसी संगठन के एक हिस्सा थे कामरेड अरविन्द जो अब नहीं रहे। अरविंद एक अच्च्छे मार्क्सवादी थे, लेकिन सब कुछ जानते हुए भी संगठन का मुखर विरोध नहीं करते थे,जो उनकी सबसे बड़ी कमजोरी थी। अरविंद चूंकि जन संगठनों से जुड़े हुए थे और जनसंघर्षों का नेत्रृत्व भीकरते थे इसलिए कार्यकर्ताओं के दिल की बात को बखूबी समझते थे। कभी-कभी शशि प्रकाश से हिम्मत करके चर्चा भी करते थे। लेकिन शशि प्रकाश के पास से लौटने के बाद अरविंद उन्हीं सवालों को जायज कहते जिन संदेहों पर हमलोग सवाल उठाये होते. हालाँकि वह बातें उनके दिल से नहीं निकलती थी क्योंकि ऐसे समय में वह आंख मिलाकर बात नहीं करते थे। और फिर लोगों से उनके घरपरिवार और ब्यक्तिगत संबंधों की बातें करने लग जाते थे।
बाद में पता चला कि शशि प्रकाश और कात्यायनी के सामने अरविंद जब संगठन की गलत लाइन पर सवाल उठाते हुए कार्याकर्ताओं के सवालों को अक्षरश:रखते थे तो शशिप्रकाश इसे आदर्शवाद का नाम देकर उनकी जमकर आलोचना करते। उसके ठीक बाद अरविन्द को बिगुल, दायित्ववोध पत्रिकाओं के लिए लेख आदि का काम करने में शशि प्रकाश लगा देते.
वैसे एक बात बताते चलें कि इस दुकान रूपी संगठन में जब भी कोई साथी अपना स्वास्थ्य खराब होने की बात करता तो उसे उसकी ऐसे खिल्ली उड़ाई जाती थीकि वह दोबारा चाहे जितना भी बीमार हो उल्लेख नहीं करता था। इस संगठन में आराम तो हराम था। शायद यह भी एक कारण रहा होगा कि दिन रात काम करते रहने के कारण साथी अरविंद का शरीर रोगग्रस्त हो गया। दवा के नाम पर मात्र कुछ मामूली दवाएं ही उनके पास होती थीं। इससे अधिक के बारे में वे सोच भी नहीं सकते थे क्योंकि महंगे अस्पतालों में जा कर इलाज कराने का अधिकारतो शशि प्रकाश एंड कम्पनी को ही था।
जवाब दीजिये: हिंदी कवयित्री का सांगठनिक चरित्र
शशि प्रकाश के आंख का इलाज अमेरिका में होता था। सबसे दु:ख की बात तो यह थी कि इस क्रांति विरोधी आदमी के इलाज में जो पैसा खर्च होता था वह उन मजदूरों का होता था जो अपनीरोटी के एक टुकड़ों में से अपनी मुक्ति के लिए लड़े जा रहे आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए सहयोग करते थे।
जहां-जहां अरविंद ने नेत्रृत्वकारी के रूप में काम किया, वहां-वहां सेउन्हें मोर्चे पर फेल हो जाना बताते हुए हटा दिया गया। अंत में उन्हें गोरखपुर के सांस्कृतिक कुटीर में अकेले सोचने के लिए पटक दिया गया। यहां तक कि उस खतरनाक बीमारी के दौरान जब किसी अपने की जरूरत होती है उस समयसाथी अरविंद अकेले उस मकान में अनुवाद कर रहे थे और दायित्वबोध और बिगुल के लिए लेख लिख रहे थे। उधर उनकी पत्नी मीनाक्षी दिल्ली के एक फ्लैट में रहकर युद्ध चला रही थीं। उन्होंने दिल्ली का फ्लैट छोड़कर अरविन्द के पास आना गवारा नहीं समझा या फिर शशि प्रकाश ने उन्हें अरविन्द के पासजाने नहीं दिया। यहां तक की किसी अन्य वरिष्ठ साथी तक को साथी अरविन्द के पास नहीं भेजा। जिस समय हमारा साथी अल्सर के दर्द से तड़प-तड़प कर दम तोड़ रहा था उस समय उनके पास एक-दो नये साथी ही थे। इन सब चीजों पर अगर गौर करें तो शशि प्रकाशको अरविन्द का हत्यारा नहीं तो और क्या कहा जाएगा?
मेरा मानना है है कि शशि प्रकाश ने बहुत सोच-समझकर अरविन्द को धीमी मौत के हवाले किया था.क्योंकि वरिष्ठ साथियों और संगठनकर्ता में वही अब अकेले बचे थे। और सही मायने में उनके पास मजदूर वर्ग के बीच के कामों का शशि प्रकाश से ज्यादा अनुभव था।
मैं भी इस संगठन में 1998 से लेकर 2006 तक बतौर होलटाइमर के रूप में काम किया हूं। इस दौरान संगठन की पूरी राजनीति को जाना और समझा भी। हमने महसूस किया कि शशि प्रकाश का शातिर दिमाग पुनर्जागरण-प्रबोधन की बात करते हुए प्रकाशन और संस्थानों के मालिक बनने की होड़ में लग गया और हमलोग उसके पुर्जे होते गए. मेरा साफ मानना है कि शशि प्रकाश को हीरो बनाने में कुछ हद तक कमेटी के वे साथी भीजिम्मेदार रहे हैं जिन्होंने सब कुछ समझते हुए भी इतने दिनों तक एक क्रांति विरोधी आदमी का साथ दिया.
ऐसे साथियों का इतने दिनों तक जुडऩे का एक कारण यह भी हो सकता है कि वे जिस मध्यवर्गीय परिवेश से आये थे वह परिवेश ही रोके रहा हो. शशि प्रकाश के शब्दों में-हमें सर्वहारा के बीच रह कर सर्वहारा नहीं बन जाना चाहिए बल्कि हम उन्हे उन्नत संस्कृति की ओर ले जाएंगे। इसके लिए कमेटी व उच्च घराने से आये हुए लोगों को ब्रांडेड जींस और टीशर्ट तक पहनने के लिए प्रेरित किया जाता रहा है। ऐसा इसलिए कि शशि प्रकाश और कात्यायनी भी उच्च मध्यवर्गीय जीवन जी रहे थे। कोई उन पर सवाल न उठाए इसलिए कमेटी के अन्य साथियों के आगे भी थोड़ा सा जूठन फेंक दिया जाता रहा है। कई कमेटी के साथी शशि प्रकाश और उनके कुनबे के उतारे कपड़े पहनकर धन्य हो जाते थे। यह रोग आगे चल कर ईमानदार साथियों में भी घर कर गया और वे सुविधाभोगी होते गये।
यह भी एक सच्चाई है कि किसी को अंधेरे में रख कर गलत रास्ते पर नहीं चला जा सकता। यही कारण रहा कि शशि प्रकाश को जब भी लगा कि अब तो फलां कार्यकर्ता या कमेठी सदस्य भी सयाना हो गया और हमारे ऊपर सवाल उठाएगा तो उन सबको किनारे लगाने का तरीका अख्तियार किया। इतना तो वह समझ ही गए थे कि इन लोगों को इस कदर सुविधाभोगी बना दिया है कि अपनी सुविधाओं को ही जुटाने में लगे रहेंगे.
शशि प्रकाश इस बात को जीतें हैं कि समाज के बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों में ख्याति तो ही गयी है,लोग आते रहेंगे, दुकान से जुड़ते रहेंग। रही बात कार्यकर्ताओं की तो वे चाहे ज्यादा दिनों तक रुकें या न रुकें फिर भी जितना दिन रुकेंगे भीख मांग कर लाएंगे ही और उसकी झोली भरकर चले जाएंगे। कुल मिला कर शशि प्रकाश एंड कंपनी अपनी सोच में कामयाब हो गयी है।
इसमें मैं भी अपने आप को साफ सुथरा नहीं मानता क्योंकि जब यह संगठन इतना ही मानव द्रोही था तो इतने दिनों तक मैंने काम ही क्यों किया? मैं भी सिद्धार्थ नगर जिले के ग्रामीण परिवेश से आया और भगत सिंह की सोच को आगे बढ़ाने के नाम पर देश में एक क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा करने के लिए काम में जुट गया। इसके लिए मैंने ज्यादा पढऩा लिखना उचित नहीं समझा। मुझे यहशिक्षा भी मिली कि पढऩा लिखना तो बुद्धिजीवियों का काम है। हमें संगठन के लिए अधिक से अधिक पैसा जुटाना और युवाओं को संगठन से जोडऩा है। और मैंइसी काम में लग गया। मुझे संगठन की ओर से घर भी छोडवा़ दिया गया और मर्यादपुर में तीन सालों तक रहकर देहाती मजदूर किसान यूनियन,नारी सभा औरनौजवान भारत सभा के नाम पर काम करने के लिए लगा दिया गया। पीछे के सारे रिश्ते नाते एवं घर परिवार से संगठन ने विरोध करवा दिया जिससे कि हम बहुत जल्द वापस न जा पाएं। यही नहीं बल्कि अपना घर और जमीन बेचने के लिए अपने ही पिता के खिलाफ कोर्ट में केस भी लगभग करवा ही दिया गया था। लेकिन पता नहीं क्यों (शायद मैं अभी पूरी तरह उसकी गिरफ्त में नहीं आया था),मेरा मन ऐसा करने को नहीं हुआ।
मैं शशि प्रकाश को ही आदर्श मानता था। मुझे यह शिक्षा दी गयी थी कि भाईसाहब दुनिया में चौथी खोपड़ी हैं। मेरे अंदरयह सवाल कई बार उठा कि जब यह चौथी खोपड़ी हैं तो प्रथम, दूसरी और तीसरी खोपड़ी कौन है? बाद में पता चला कि पहली खोपड़ी मार्क्स थे,दूसरी लेनिन,तीसरी खोपड़ी माओ थे। अब माओ के बाद तो कोई हुआ नहीं। इसलिए चौथी खोपड़ी भाई साहब हुए न।
भाईसाहब कहते थे कि वही एक क्रांतिकारी संगठन है। बाकी तो दुस्साहसवादी और संशोधनवादी पार्टियां हैं। लेकिन सब्र का बांध तो एक दिन टूटना ही था। जो आप के सामने है। यदि इन सबके बावजूद कहीं कोने में भी इस मानव विरोधी संगठन को सहयोग देने के बारे में आप में से कोई सोच रहा है तो उसे बर्बाद होने से कौन रोक सकता है?
जय प्रताप सिंह
रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट लीग ऑफ इंडिया एक कम्पनी है जो शहीदे आजम भगत सिंह नाम पर युवाओं को भर्ती करती है.इसके लिए कई तरह के अभियानों का नाम भी दिया जाता है. उदाहरण के लिए 'क्रांतिकारी लोग स्वराज अभियान. कार्यकर्ता चार पेज का एक पर्चा लेकर सुबह पांच बजे से लेकर रात 8बजे तककालोनियों, मोहल्लों, ट्रेनों, बसों आदि में घर-घर जाकर कम्पनी के मालिक माननीय श्री श्री शशि प्रकाश जी महाराज द्वारा रटाए गये चंद शब्दों को लोगों के सामने उगल देते हैं । लोग भगत सिंह के नाम पर काफी पैसा भी देते हैं। पैसा कहां जाता था यह सब तो ईमानदार कार्यकर्ताओं के लिए कोई मायने नहीं रखता था लेकिन इतना तो साफ था कि पारिवारिक मंडली ऐशो आराम की चीजों का उपभोग करती थी । उदाहरण के लिए लखनऊ और दिल्ली केपाश इलाके में रहने, और उनके बेटे जिन्हें भविष्य के लेनिन के नाम से नवाजा जाता था, उसके लिए महंगा से महंगा म्यूजिक सिस्टम, गिटार आदि उपलब्ध कराया जाता था।
इसी संगठन के एक हिस्सा थे कामरेड अरविन्द जो अब नहीं रहे। अरविंद एक अच्च्छे मार्क्सवादी थे, लेकिन सब कुछ जानते हुए भी संगठन का मुखर विरोध नहीं करते थे,जो उनकी सबसे बड़ी कमजोरी थी। अरविंद चूंकि जन संगठनों से जुड़े हुए थे और जनसंघर्षों का नेत्रृत्व भीकरते थे इसलिए कार्यकर्ताओं के दिल की बात को बखूबी समझते थे। कभी-कभी शशि प्रकाश से हिम्मत करके चर्चा भी करते थे। लेकिन शशि प्रकाश के पास से लौटने के बाद अरविंद उन्हीं सवालों को जायज कहते जिन संदेहों पर हमलोग सवाल उठाये होते. हालाँकि वह बातें उनके दिल से नहीं निकलती थी क्योंकि ऐसे समय में वह आंख मिलाकर बात नहीं करते थे। और फिर लोगों से उनके घरपरिवार और ब्यक्तिगत संबंधों की बातें करने लग जाते थे।
बाद में पता चला कि शशि प्रकाश और कात्यायनी के सामने अरविंद जब संगठन की गलत लाइन पर सवाल उठाते हुए कार्याकर्ताओं के सवालों को अक्षरश:रखते थे तो शशिप्रकाश इसे आदर्शवाद का नाम देकर उनकी जमकर आलोचना करते। उसके ठीक बाद अरविन्द को बिगुल, दायित्ववोध पत्रिकाओं के लिए लेख आदि का काम करने में शशि प्रकाश लगा देते.
वैसे एक बात बताते चलें कि इस दुकान रूपी संगठन में जब भी कोई साथी अपना स्वास्थ्य खराब होने की बात करता तो उसे उसकी ऐसे खिल्ली उड़ाई जाती थीकि वह दोबारा चाहे जितना भी बीमार हो उल्लेख नहीं करता था। इस संगठन में आराम तो हराम था। शायद यह भी एक कारण रहा होगा कि दिन रात काम करते रहने के कारण साथी अरविंद का शरीर रोगग्रस्त हो गया। दवा के नाम पर मात्र कुछ मामूली दवाएं ही उनके पास होती थीं। इससे अधिक के बारे में वे सोच भी नहीं सकते थे क्योंकि महंगे अस्पतालों में जा कर इलाज कराने का अधिकारतो शशि प्रकाश एंड कम्पनी को ही था।
जवाब दीजिये: हिंदी कवयित्री का सांगठनिक चरित्र
शशि प्रकाश के आंख का इलाज अमेरिका में होता था। सबसे दु:ख की बात तो यह थी कि इस क्रांति विरोधी आदमी के इलाज में जो पैसा खर्च होता था वह उन मजदूरों का होता था जो अपनीरोटी के एक टुकड़ों में से अपनी मुक्ति के लिए लड़े जा रहे आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए सहयोग करते थे।
जहां-जहां अरविंद ने नेत्रृत्वकारी के रूप में काम किया, वहां-वहां सेउन्हें मोर्चे पर फेल हो जाना बताते हुए हटा दिया गया। अंत में उन्हें गोरखपुर के सांस्कृतिक कुटीर में अकेले सोचने के लिए पटक दिया गया। यहां तक कि उस खतरनाक बीमारी के दौरान जब किसी अपने की जरूरत होती है उस समयसाथी अरविंद अकेले उस मकान में अनुवाद कर रहे थे और दायित्वबोध और बिगुल के लिए लेख लिख रहे थे। उधर उनकी पत्नी मीनाक्षी दिल्ली के एक फ्लैट में रहकर युद्ध चला रही थीं। उन्होंने दिल्ली का फ्लैट छोड़कर अरविन्द के पास आना गवारा नहीं समझा या फिर शशि प्रकाश ने उन्हें अरविन्द के पासजाने नहीं दिया। यहां तक की किसी अन्य वरिष्ठ साथी तक को साथी अरविन्द के पास नहीं भेजा। जिस समय हमारा साथी अल्सर के दर्द से तड़प-तड़प कर दम तोड़ रहा था उस समय उनके पास एक-दो नये साथी ही थे। इन सब चीजों पर अगर गौर करें तो शशि प्रकाशको अरविन्द का हत्यारा नहीं तो और क्या कहा जाएगा?
मेरा मानना है है कि शशि प्रकाश ने बहुत सोच-समझकर अरविन्द को धीमी मौत के हवाले किया था.क्योंकि वरिष्ठ साथियों और संगठनकर्ता में वही अब अकेले बचे थे। और सही मायने में उनके पास मजदूर वर्ग के बीच के कामों का शशि प्रकाश से ज्यादा अनुभव था।
मैं भी इस संगठन में 1998 से लेकर 2006 तक बतौर होलटाइमर के रूप में काम किया हूं। इस दौरान संगठन की पूरी राजनीति को जाना और समझा भी। हमने महसूस किया कि शशि प्रकाश का शातिर दिमाग पुनर्जागरण-प्रबोधन की बात करते हुए प्रकाशन और संस्थानों के मालिक बनने की होड़ में लग गया और हमलोग उसके पुर्जे होते गए. मेरा साफ मानना है कि शशि प्रकाश को हीरो बनाने में कुछ हद तक कमेटी के वे साथी भीजिम्मेदार रहे हैं जिन्होंने सब कुछ समझते हुए भी इतने दिनों तक एक क्रांति विरोधी आदमी का साथ दिया.
ऐसे साथियों का इतने दिनों तक जुडऩे का एक कारण यह भी हो सकता है कि वे जिस मध्यवर्गीय परिवेश से आये थे वह परिवेश ही रोके रहा हो. शशि प्रकाश के शब्दों में-हमें सर्वहारा के बीच रह कर सर्वहारा नहीं बन जाना चाहिए बल्कि हम उन्हे उन्नत संस्कृति की ओर ले जाएंगे। इसके लिए कमेटी व उच्च घराने से आये हुए लोगों को ब्रांडेड जींस और टीशर्ट तक पहनने के लिए प्रेरित किया जाता रहा है। ऐसा इसलिए कि शशि प्रकाश और कात्यायनी भी उच्च मध्यवर्गीय जीवन जी रहे थे। कोई उन पर सवाल न उठाए इसलिए कमेटी के अन्य साथियों के आगे भी थोड़ा सा जूठन फेंक दिया जाता रहा है। कई कमेटी के साथी शशि प्रकाश और उनके कुनबे के उतारे कपड़े पहनकर धन्य हो जाते थे। यह रोग आगे चल कर ईमानदार साथियों में भी घर कर गया और वे सुविधाभोगी होते गये।
यह भी एक सच्चाई है कि किसी को अंधेरे में रख कर गलत रास्ते पर नहीं चला जा सकता। यही कारण रहा कि शशि प्रकाश को जब भी लगा कि अब तो फलां कार्यकर्ता या कमेठी सदस्य भी सयाना हो गया और हमारे ऊपर सवाल उठाएगा तो उन सबको किनारे लगाने का तरीका अख्तियार किया। इतना तो वह समझ ही गए थे कि इन लोगों को इस कदर सुविधाभोगी बना दिया है कि अपनी सुविधाओं को ही जुटाने में लगे रहेंगे.
शशि प्रकाश इस बात को जीतें हैं कि समाज के बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों में ख्याति तो ही गयी है,लोग आते रहेंगे, दुकान से जुड़ते रहेंग। रही बात कार्यकर्ताओं की तो वे चाहे ज्यादा दिनों तक रुकें या न रुकें फिर भी जितना दिन रुकेंगे भीख मांग कर लाएंगे ही और उसकी झोली भरकर चले जाएंगे। कुल मिला कर शशि प्रकाश एंड कंपनी अपनी सोच में कामयाब हो गयी है।
इसमें मैं भी अपने आप को साफ सुथरा नहीं मानता क्योंकि जब यह संगठन इतना ही मानव द्रोही था तो इतने दिनों तक मैंने काम ही क्यों किया? मैं भी सिद्धार्थ नगर जिले के ग्रामीण परिवेश से आया और भगत सिंह की सोच को आगे बढ़ाने के नाम पर देश में एक क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा करने के लिए काम में जुट गया। इसके लिए मैंने ज्यादा पढऩा लिखना उचित नहीं समझा। मुझे यहशिक्षा भी मिली कि पढऩा लिखना तो बुद्धिजीवियों का काम है। हमें संगठन के लिए अधिक से अधिक पैसा जुटाना और युवाओं को संगठन से जोडऩा है। और मैंइसी काम में लग गया। मुझे संगठन की ओर से घर भी छोडवा़ दिया गया और मर्यादपुर में तीन सालों तक रहकर देहाती मजदूर किसान यूनियन,नारी सभा औरनौजवान भारत सभा के नाम पर काम करने के लिए लगा दिया गया। पीछे के सारे रिश्ते नाते एवं घर परिवार से संगठन ने विरोध करवा दिया जिससे कि हम बहुत जल्द वापस न जा पाएं। यही नहीं बल्कि अपना घर और जमीन बेचने के लिए अपने ही पिता के खिलाफ कोर्ट में केस भी लगभग करवा ही दिया गया था। लेकिन पता नहीं क्यों (शायद मैं अभी पूरी तरह उसकी गिरफ्त में नहीं आया था),मेरा मन ऐसा करने को नहीं हुआ।
मैं शशि प्रकाश को ही आदर्श मानता था। मुझे यह शिक्षा दी गयी थी कि भाईसाहब दुनिया में चौथी खोपड़ी हैं। मेरे अंदरयह सवाल कई बार उठा कि जब यह चौथी खोपड़ी हैं तो प्रथम, दूसरी और तीसरी खोपड़ी कौन है? बाद में पता चला कि पहली खोपड़ी मार्क्स थे,दूसरी लेनिन,तीसरी खोपड़ी माओ थे। अब माओ के बाद तो कोई हुआ नहीं। इसलिए चौथी खोपड़ी भाई साहब हुए न।
भाईसाहब कहते थे कि वही एक क्रांतिकारी संगठन है। बाकी तो दुस्साहसवादी और संशोधनवादी पार्टियां हैं। लेकिन सब्र का बांध तो एक दिन टूटना ही था। जो आप के सामने है। यदि इन सबके बावजूद कहीं कोने में भी इस मानव विरोधी संगठन को सहयोग देने के बारे में आप में से कोई सोच रहा है तो उसे बर्बाद होने से कौन रोक सकता है?
Tuesday, July 20, 2010
भीख मांगते वनवासी
-अनिल दूबे, जौनपुर
पिछले दिनों जब मैं उत्तर प्रदेश स्थित जौनपुर जिले के अंतर्गत सुजानगंज के भुइधरा गांव लौटा तो वहां की स्थिति देखकर दंग रह गया। ब्राह्मण बाहुल्य इस गंाव में कई अन्य जातियों के लोग भी रहते हैं, जो इस व्यथा को दर्शाता है कि जाति सदैव कर्म से जुड़ी होती है। आप सिर्फ अपनी जाति द्वारा किया गया कार्य ही कर सकते हैं। खैर बढ़ती जनसंख्या एवं घटते संसाधनों ने अधिकतर नौजवानों को बड़े शहरों में जाकर कमाने के लिए मजबूर कर दिया है। गांवों में बस बूढ़े मां-बाप ही बाकी बचे हैं। इसी गांव में एक जाति है वनवासी, हालांकि उन्हें मुसहरा के नाम से भी पुकारा जाता है। गांव में बिजली, सड़क, परिवहन, विद्यालय आदि का विकास हुआ या नहीं, यह नहीं कह सकते लेकिन एक कार्य अवश्य देखने को मिला है कि पहले जहां शादी या भोज के अवसर पर लोग पत्तलों में भोजन करते थे और मिट्टी के कुल्हड़ों में पानी पीते थे। वहीं अब बाजार से खरीदे गए प्लास्टिक के बर्तनों का इस्तेमाल कर रहे हैं। ढाक एवं बरगद के पत्तों से पत्तल बनाने वाले बनवासियों के जीवन पर संकट के बादल छा गये हैं। ऐसे बादल जो शायद इस जाति के समाप्त होने पर ही हटेंगें।
एक माह पूर्व मैं सुजानगंज स्थित एक मंदिर में अपनी माताजी के साथ दर्शन के लिए गया था। मंदिर से निकलते ही सीढिय़ों पर बैठा भीखरियों का हुजूम हमारी ओर बढ़ता चला आया। मैं जैसे ही दो कदम आगे को बढ़ाया कि भिखारियों का एक परिवार जिसमें दो औरतें एक बूढ़ा और दो बच्चे हमारी तरफ आये। माताजी ने उनसे कहा कि फूटकर पैसे समाप्त हो गये हैं। इस पर एक भिखारी ने कहा कि आपने हमें पहचाना नहीं, हम आपके गांव के बनवासी हैं। माताजी ने दस रुपये के सिक्के को उन्हीं लोगों के बीच में बांट दिया।
जब परिवार के अन्य सदस्य अन्य समानों की खरीदारी में लगे हुए थे, उस समय मैंने उनसे उनकी समस्या को जानने की कोशिश की। जो कुछ उन्होंने बताया उसे सुनकर बड़ा अचंभा हुआ।
उन्होनें बाताया कि अपने पूर्वजों की तरह ढाक एवं बरगद के पत्तों से पत्तल बनाने, खलिहानी खत्म होने पर खेतों में पड़े अन्न को बीनने एवं भोज कार्य में कुत्तों से भोजन छीन कर जीवन निर्वाह करते थे। इसमें सबसे मुख्य कार्य पत्तल बनाकर बेचना था जिसमें 20 से 25 रुपये में 100 पत्तल और दोने दिये जाते थे, लेकिन पिछले दो सालों में शहर की हवा गांवों में पहुंच चुकी थी। लोग पत्तलों की बजाय प्लास्टिक के बर्तनों, जो 200 रुपये सैकड़ा था, का प्रयोग करना शुरू कर दिया। ऐसे में बनवासियों के दोने और पत्तल कौन खरीदता। जिसका सीधा असर उनके वर्तमान स्थिति से जुड़ा था। चूंकि बनवासी होने के कारण वे अन्य कार्य करने के लिए निषेध थे। गरीबी और भुखमरी के कारण उनके बच्चे कुपोषण के शिकार हो गये या असमय बूढ़े हो गये। वे काम की तलाश में आसपास के शहरों में पलायन कर चुके हैं। पिछे रह गये घर के बुजुर्ग, औरतें और बच्चे जो अब मंदिरों या गलियों में भीख मांग कर अपना तथा अपने परिवार का पेट भर रहे हैं।
जो सबसे बड़ा प्रश्न है वह यह है कि बनवासीयों की व्यथा के लिए कौन जिम्मेदार है? सरकार, प्रशासन या हम सभी। वैसे तो हम सभी शामिल हैं। बनवासी हमसे कुछ नही मांगते और न ही हमे दोष देते हैं। वे अपने बच्चों के लिए शिक्षा और बीमारी से मर रहे बुजुर्गों के लिए दवाइया व ईलाज पैसे भी नहीं मांगते। उन्हें सिर्फ पेटभर भोजन चाहिए, क्यों न दिन में एक बार ही मिले। लानत है, इस व्यवस्था, प्रशासन और समाज पर जो उन्हें पेट भर भोजन मुहैया नहीं करा सकता। मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा कि कल अगर मेरे अपने गांव से एक और नक्सलबाड़ी आंदोलन का उदय होता है, क्योंकि हमारी आदत बन चुकी है कि जब तक हमें चोट नहीं लगती तब तक हमें दूसरों के दर्द का एहसास नहीं होता, जब तक हमारे कान में कोई जोर से न चिल्लाये हमें सुनाई नहीं देता। हम सो नहीं रहे, सोने का नाटक कर रहे हैं। हम देख नहीं पा रहे बल्कि हम देखना नहीं चाहते। अब भी समय है हम नहीं चेते तो बहुत देर हो जायेगी। इस जाति व्यवस्था के चक्कर में हम एक जनजाति की बली नहीं ले सकते। किसी भी तरह गांव के लोगों को समझना होगा कि प्लास्टिक का बर्तन न केवल बनवासियों के जीवन पर मृत्यू बनकर छाया है बल्कि पर्यावरण के लिए भी घातक है। बनवासियों हिम्मत मत हारना, हमे तुम्हारी आवष्कता है, कोशिश जारी है। तबाही की गर्त में जाने वाले अकेले तुम ही नहीं हो बल्कि हम सभी हैं। यह व्यवस्था खुद-ब खुद हमें तबाही गर्त की ओर ले जाने का प्रयास कर रही है। हमें इस व्यवस्था, इस समाज को ही बदलना होगा।
पिछले दिनों जब मैं उत्तर प्रदेश स्थित जौनपुर जिले के अंतर्गत सुजानगंज के भुइधरा गांव लौटा तो वहां की स्थिति देखकर दंग रह गया। ब्राह्मण बाहुल्य इस गंाव में कई अन्य जातियों के लोग भी रहते हैं, जो इस व्यथा को दर्शाता है कि जाति सदैव कर्म से जुड़ी होती है। आप सिर्फ अपनी जाति द्वारा किया गया कार्य ही कर सकते हैं। खैर बढ़ती जनसंख्या एवं घटते संसाधनों ने अधिकतर नौजवानों को बड़े शहरों में जाकर कमाने के लिए मजबूर कर दिया है। गांवों में बस बूढ़े मां-बाप ही बाकी बचे हैं। इसी गांव में एक जाति है वनवासी, हालांकि उन्हें मुसहरा के नाम से भी पुकारा जाता है। गांव में बिजली, सड़क, परिवहन, विद्यालय आदि का विकास हुआ या नहीं, यह नहीं कह सकते लेकिन एक कार्य अवश्य देखने को मिला है कि पहले जहां शादी या भोज के अवसर पर लोग पत्तलों में भोजन करते थे और मिट्टी के कुल्हड़ों में पानी पीते थे। वहीं अब बाजार से खरीदे गए प्लास्टिक के बर्तनों का इस्तेमाल कर रहे हैं। ढाक एवं बरगद के पत्तों से पत्तल बनाने वाले बनवासियों के जीवन पर संकट के बादल छा गये हैं। ऐसे बादल जो शायद इस जाति के समाप्त होने पर ही हटेंगें।
एक माह पूर्व मैं सुजानगंज स्थित एक मंदिर में अपनी माताजी के साथ दर्शन के लिए गया था। मंदिर से निकलते ही सीढिय़ों पर बैठा भीखरियों का हुजूम हमारी ओर बढ़ता चला आया। मैं जैसे ही दो कदम आगे को बढ़ाया कि भिखारियों का एक परिवार जिसमें दो औरतें एक बूढ़ा और दो बच्चे हमारी तरफ आये। माताजी ने उनसे कहा कि फूटकर पैसे समाप्त हो गये हैं। इस पर एक भिखारी ने कहा कि आपने हमें पहचाना नहीं, हम आपके गांव के बनवासी हैं। माताजी ने दस रुपये के सिक्के को उन्हीं लोगों के बीच में बांट दिया।
जब परिवार के अन्य सदस्य अन्य समानों की खरीदारी में लगे हुए थे, उस समय मैंने उनसे उनकी समस्या को जानने की कोशिश की। जो कुछ उन्होंने बताया उसे सुनकर बड़ा अचंभा हुआ।
उन्होनें बाताया कि अपने पूर्वजों की तरह ढाक एवं बरगद के पत्तों से पत्तल बनाने, खलिहानी खत्म होने पर खेतों में पड़े अन्न को बीनने एवं भोज कार्य में कुत्तों से भोजन छीन कर जीवन निर्वाह करते थे। इसमें सबसे मुख्य कार्य पत्तल बनाकर बेचना था जिसमें 20 से 25 रुपये में 100 पत्तल और दोने दिये जाते थे, लेकिन पिछले दो सालों में शहर की हवा गांवों में पहुंच चुकी थी। लोग पत्तलों की बजाय प्लास्टिक के बर्तनों, जो 200 रुपये सैकड़ा था, का प्रयोग करना शुरू कर दिया। ऐसे में बनवासियों के दोने और पत्तल कौन खरीदता। जिसका सीधा असर उनके वर्तमान स्थिति से जुड़ा था। चूंकि बनवासी होने के कारण वे अन्य कार्य करने के लिए निषेध थे। गरीबी और भुखमरी के कारण उनके बच्चे कुपोषण के शिकार हो गये या असमय बूढ़े हो गये। वे काम की तलाश में आसपास के शहरों में पलायन कर चुके हैं। पिछे रह गये घर के बुजुर्ग, औरतें और बच्चे जो अब मंदिरों या गलियों में भीख मांग कर अपना तथा अपने परिवार का पेट भर रहे हैं।
जो सबसे बड़ा प्रश्न है वह यह है कि बनवासीयों की व्यथा के लिए कौन जिम्मेदार है? सरकार, प्रशासन या हम सभी। वैसे तो हम सभी शामिल हैं। बनवासी हमसे कुछ नही मांगते और न ही हमे दोष देते हैं। वे अपने बच्चों के लिए शिक्षा और बीमारी से मर रहे बुजुर्गों के लिए दवाइया व ईलाज पैसे भी नहीं मांगते। उन्हें सिर्फ पेटभर भोजन चाहिए, क्यों न दिन में एक बार ही मिले। लानत है, इस व्यवस्था, प्रशासन और समाज पर जो उन्हें पेट भर भोजन मुहैया नहीं करा सकता। मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा कि कल अगर मेरे अपने गांव से एक और नक्सलबाड़ी आंदोलन का उदय होता है, क्योंकि हमारी आदत बन चुकी है कि जब तक हमें चोट नहीं लगती तब तक हमें दूसरों के दर्द का एहसास नहीं होता, जब तक हमारे कान में कोई जोर से न चिल्लाये हमें सुनाई नहीं देता। हम सो नहीं रहे, सोने का नाटक कर रहे हैं। हम देख नहीं पा रहे बल्कि हम देखना नहीं चाहते। अब भी समय है हम नहीं चेते तो बहुत देर हो जायेगी। इस जाति व्यवस्था के चक्कर में हम एक जनजाति की बली नहीं ले सकते। किसी भी तरह गांव के लोगों को समझना होगा कि प्लास्टिक का बर्तन न केवल बनवासियों के जीवन पर मृत्यू बनकर छाया है बल्कि पर्यावरण के लिए भी घातक है। बनवासियों हिम्मत मत हारना, हमे तुम्हारी आवष्कता है, कोशिश जारी है। तबाही की गर्त में जाने वाले अकेले तुम ही नहीं हो बल्कि हम सभी हैं। यह व्यवस्था खुद-ब खुद हमें तबाही गर्त की ओर ले जाने का प्रयास कर रही है। हमें इस व्यवस्था, इस समाज को ही बदलना होगा।
Saturday, July 17, 2010
अहा! कितने मजेदार थे वे दिन
गांव के बच्चे मुंह अंधेरे जानवरों को लेकर खेत में निकल जाया करते थे और देर शाम तक तरह-तरह का खेल खेलते रहते थे। उस समय किसी-किसी गांव में टीवी हुआ करता था। जो आम लोगों की पहुंच से बहुत दूर था। इसके बावजूद मनोरंजन के अनेक साधन थे। कठघोड़वा नाच, चंगेरा अदि तरह के नामों से विशेष मौकों पर प्रदॢशत करते थे, जिसे लोग काफी आनंद के साथ देखते थे। कुछ और भी उन्नत किस्म के कलाकार नौटंकी नाच का भी प्रदर्शन करते थे। जिसमें हारमोनियम, ढोलक के साथ-साथ नगाड़ा आदि वाद्ययंत्रों का प्रयोग होता था, जिसकी आवाज दूर-दूर तक सुनाई देती थी। नौटंकी करवाने के लिए लोगों को अधिक पैसा खर्च करना पड़ता था। यही कारण था कि चंगेरा और कठघोड़वा आदि को लोग ज्यादातर पसंद करते थे। चंगेरा तो गांवों के ही कुछ लोग मिल कर आयोजित करते थे। इस ड्रामा में गांवों में प्रचलित पौराणिक कथाएं जैसे सती बिहुला, बालेलखंदर आदि का मंचन किया जाता था, जिसका गांववाले भरपूर आनंद लेते थे। कठघोड़वा में मात्र तीन-चार कलाकार होते थे। उसमें से एक कलाकार काठ के बने घोड़े के अंदर खड़ा होकर अपना हावभाव घोड़े के आकार में बना कर नाचना शुरू कर देता था। बाकी कलाकार वाद्य यंत्र बजाने के साथ-साथ सुर व ताल मिलाकर समूह गीत गाते थे। जोकर तो अक्सर सभी नौटंकी में होता था जो गांवों की बुराइयों पर कमेंट कर लोगों को हंसाता रहता था। उसका एक कमेंट तो अभी भी नहीं भूलता हूं। हुआ यह कि नाटक की शुरुआत में देवी-देवताओं की जय-जयकार होती थी। उसी प्रकृया में जोकर ने शंकर भगवान की जय, गऊ माता की जय के नारे लगाते-लगाते सांड़ बप्पा की जय के नारे भी लगा दिया। आवेश में आ कर दर्शक भी सांड़ बप्पा की जय के नारे लगाए। अचानक लोग चौंक पड़े कि यह क्या है? बिना देर किये लोग जोकर पर टूट पड़े और वह अपना आंसू पोछ कर सफाई देते हुए कहा कि जब गऊ माता हो सकती हैं तो सांड़ बप्पा क्यों नहीं? कुछ लोग ठहाका मार कर हंसने हंस दिये। इसके बाद लोग सबकुछ भूलकर ड्रामा देखने में मस्त हो गये थे। इसको देखने के लिए दूर-दूर के गांवों तक जाना पड़ता था। काफी रोने-धोने के बावजूद अनुमति नहीं मिलती थी। लेकिन किसी भी कीमत पर देखना तो था ही, चाहे जो कुछ भी हो जाए। शाम को ही यह तय कर लिया जाता था कि भोजन करने के बाद जब सब लोग सो जाएंगे तो हम गांव के नुक्कड़ पर मिलेंगे। बनी-बनाई तरकीब के तहत रात में भागकर दूर-दराज के गांवों में नाच दखने के लिए चले जाते थे।
दादा की भूतों की कहानियां
बच्चों को डराने के लिए दादा भूतों की मनगढ़ंत कहानियां सुनाया करते थे। एक बार तो उन्होंने अति ही कर दिया था। वह कह रहे थे कि बागीचे में आज एक भूत मिला था और वह खैनी मांग रहा था, लेकिन उसको मैंने खैनी नहीं दी। क्योंकि खैनी को हाथ में देने पर भूत पकड़ लेता है। इस बात को सोच कर डर तो बहुत लगता था, लेकिन नाच देखने के समय सारे डर हवा हो जाते थे। मैं दादा जी के पास इसलिए सोता था कि वह रात में छोटी-बड़ी कहानियां सुनाया करते थे। वह दिन भर की भागदौड़ के बाद जल्दी ही सो जाते थे। जैसे ही उनका नाक बजना शुरू होता कि मैं उठकर मित्रों द्वारा तय किये गए जगह पर पहुंच जाता और नाच देखकर मुंह अंधेरे वापस आकर सो जाता था। किसी को पता तक नहीं चलता। लेकिन कभी-कभार पकड़ भी लिए जाते थे।
जब जाते थे भैंस को चराने
भैंसों को चराने का मात्र एक बहाना था। मुख्य काम तो रात को देखी हुई नौटंकी का नकल करके खेतों में ही ड्रामा करने का होता था। घरवालों को पता चलने पर पिटाई भी होती थी। उनका कहना था कि ऊंची जातियों के लड़के यह सब खेल नहीं खेलते। वे जितना ही रोकने की कोशिश करते खेलने की लालसा उतनी ही अधिक बढ़ती जाती थी। एक मोटी सी लाठी लेकर भैंस पर ऐसे बैठते थे जैसे कि हाथ में तलवार लिए कोई राजा हाथी पर सवार हो। कभी-कभी तो भूल ही जाते थे कि हम भैंस पर बैठे हैं और हाथी के ख्वाबों में खो जाते थे। अचानक भैंस को पोखर का याद आता था और वह दौडऩा शुरू कर देती थी। उसके भागने की देर थी कि मैं जमीन पर चारो खने चित हो जता था। जब तक मैं संभलता कि भैंस पोखर में डुबकी लगा रही होती थी। खेतों में डाक्टर तो हाते नहीं थे इसलिए अन्य साथी ही शरीर को इधर-उधर खींच-तान करके सही कर देते थे। क्योंकि वही एक मात्र दवा थी। चोट कितना भी हो डाक्टर के पास बहुत ही कम जाना पड़ता था। आसपास कोई सरकारी अस्पताल भी नहीं होता था। जो था भी उसमें डाक्टर ही नहीं होते थे। इस बात की जानकारी घर वालों को होने पर ऊपर से डांट भी पड़ती थी।
स्कूलों में पढऩे जाने का था अपना मजा
गांवों में बहुत सारे बच्चे होते थे, जो साथ में प्राइमरी स्कूल में पढऩे जाते थे। हमारे गांव से डेढ़ किलो मीटर दूर दूसरे गांव में एक ही प्राइमरी स्कूल था। उसमें भी दक्षिण टोला के बहुत ही कम बच्चे पढऩे जाते थे। उनके पास फीस देने के लिए पैसे नहीं होते थे। उनका कहना था कि हम पढ़ कर क्या करेंगे, भगवान ने तो हमें हरवाही करने के लिए ही बनाया है। जब बाप-दादा हरवाही कर रहे हैं तो हमें करने में क्या दिक्कत है। सवर्णों के लड़कों के साथ-साथ कुछ अन्य जाति के लोग भी शामिल हो जाते थे। जात-पात भूलकर साथ-साथ स्कूल जाते थे।
पटरी पर छपते थे गोल-गोल चमकते अक्षर
स्कूल जाते समय सभी के हाथ में एक ही तरह की लकड़ी की पटरी हुआ करती थी। तब एक से पांचवीं तक की पढ़ाई में स्याही का इस्तेमाल नहीं होता था। दवात में खडिय़ा घोलकर नरकट के कलम से लिखा जाता था। फिर पटरी को कलर किया जाता था। जो तवे के नीचे पड़े कालिख या भूजा भूनने वाले हंडी के नीचे की कालिख का प्रयोग होता था। लोग अपनी-अपनी पटरी की सुंदरता निखारने में पीछे नहीं रहते थे। उसके लिए कांच की दवात से पटरी को रगड़ा जाता था। दवात को रगडऩे से पटरी में चमक आ जाती थी, और उसपर लिखने से अक्षर निखर जाते थे। स्कूलों में अलग-अलग गांवों के गुट हुआ करते थे। हफ्ते दस दिन में इन गुटों में एक बार भिड़ंत जरूर होती थी। इन संघर्षों का एक मात्र हथियार होता था पटरी, जिससे लोगों का सिर भी फट जाता था। लेकिन दो-तीन दिन बाद ही एक-दूसरे के साथ बैठकर दोपहर के खाने का लुत्फ लिया जाता था।
जब स्कूल में बेहया के डंडे से हुई पिटाई
एक बार स्कूल में बहुत देर से पहुंचा। और उस समय मास्टर साहब कुर्सी पर बैठे-बैठे ऊंघ रहे थे। वहां पर पहुंचते ही एक लड़के से मेरी लड़ाई हो गई और मास्टर साहब की नींद हराम हो गई। उन्होंने आव देखा न ताव और बेहया (एक प्रकार का पौधा) के डंडे से मेरी जमकर पिटाई कर दी। वे पिटाई बंद नहीं करने वाले थे लेकिन अफसोस कि मास्टर साहब का डंडा टूट गया और मैं बच गया। वैसे मास्टर साहब बहुत मारते थे। इसी डर से कुछ लोग उनके हाथ-पांव भी दबाते थे। दलित बच्चों के साथ मास्टर का नजरिया कुछ और ही था वे हर वक्त बच्चों को उनके दलित होने का एहसास दिलाते थे। मास्टर भी ज्यादातर सवर्ण होते थे। पढ़ाई के समय बच्चों को खेतों से मूंगफली लाने के लिए भेज दिया करते थे। पढ़ाते-पढ़ाते मास्टर साहब सो जाते थे। बच्चे इसका फायदा उठाकर खेलने निकल जाते थे। वे तबतक खेलते रहते थे जबतक कि मास्टर साहब के हाथ में बेहया का डंडा नहीं लहराता। छुट्टी होने से एक घंटा पहले स्कूल के सभी बच्चे गोलाई में बैठ जाते थे और जोर-जोर से गिनती गिनते थे। वह भी गाने की तर्ज पर। इसकी आवाज इतनी तेज होती थी कि गांव तक सुनाई देती थी। घंटी बजते ही घर की तरफ भागते थे। रूखा-सूखा खाने के तुरंत बाद ही गांव के बीचो-बीच खाली पड़े मैदान में कंचा खेलने निकल जाते थे।
छोटे-छोटे बेलों से खेलते थे गोली
कंचा खेलने के लिए कांच की गोलियां हमारे पहुंच से बहुत दूर थीं। इसकी जगह बगिया में से छोटे-छोटे बेल को तोड़कर उसी से खेलते थे, जिसमें बड़ा मजा आता था। छुट्टियों में तो खेलते-खेलते पूरा दिन बीत जाता था। बेलों को टकराने से कई-कई बेल टूट जाते थे और दोबारा बगिया में जा कर पेड़ों से बेल तोड़ लाते थे और फिर जुट जाते थे ङ्क्षजदगी के महत्वपूर्ण खेलों में। भइया या बाबूजी के पहुंचने पर नौ-दो ग्यारह हो जाते थे। बाद में पकड़े जाने पर मारने-पीटने के बाद हाथ में किताब पकड़ा कर बैठा दिया जाता था। लेकिन दूसरे दिन फिर वही प्रकृया शुरू हो जाती थी।
जब लटक रहे थे पीले-पीले आम
छुट्टियों में जब आम पकने का समय होता था तो उस समय बच्चे कभी-कभार ही घर पर दिखते थे। पूरा समय वे छोटे-छोटे पेड़ों पर चढ़ कर आम को तोड़ते और नमक के साथ चटकारे ले-लेकर पेड़ों की टहनियों पर लटक कर लखनी खेलते थे। उस समय लखनी और चिक्का दो ही मुख्य खेल था। चिक्का तो बहुत ही खतरनाक खेल होता था जिसमें चोट लगना आम बात थी। लेकिन फिर भी खेल बहुत ही मजेदार होता था। उसमें जमीन पर गोलाई लिए हुए एक जगह बनाई जाती थी और लकीर के बाहर के व्यक्ति के पैर में पैर से मारा जाता था। देर शाम को घर लौटते थे। उस समय घर पर कभी-कभी ही मार खानी पड़ती थी। क्योंकि लौटते समय कुछ आम बड़े भाई को दे देते थे, जिसे खाने में ही वे मस्त हो जाते थे। उस समय एक-दूसरे के पेड़ों से आम तोड़कर खाते थे। गिरे हुए आम को खाने के लिए कोई बोलता नहीं था। यहां तक की लोग बगीचे को बेचते भी नहीं थे। धीरे-धीरे पूरा का पूरा बागीचा सूना होता गया। लोग पेड़ों को काटकर खेती करने लगे। कुछ लोग खेतों में कलमी आम लगाने लगे जो बौर लगते ही पूरा बागीचा बेच देते थे। अब तो देसी आमों के बगीचे गांवों में इक्के-दुक्के ही नजर आते हैं। जो बचे-खुचे हैं वे पर्यावरण की मार झेल रहे हैं और एक भी फल नहीं देते।
जब पिछवाड़े चिपक जाती थीं जोंकें
हमारे गांव में कई-कई पोखर थे। उन पोखरों में हमेशा पानी भरा रहता था। जिसमें भैंसों को नहलाते थे। भैंसें जबतक पानी में डूबी रहती थीं तबतक हम लोग भी पानी में डूब कर तमाम तरह के खेल खेलते रहते थे। कुछ बच्चे तो तैरना सीखते थे। कई-कई लोग तो पानी के ऊपर तैरने वाले विशेष किस्म के एक जाति के कीड़े को पानी के साथ घोंट जाते थे। बच्चों का मानना था कि इन कीड़ों को जिंदा पी जाने से शीघ्र तैरना आ जाता है। लेकिन ढेर सारे जिंदा कीड़े पानी के साथ घोंट जाने के बावजूद मुझे कभी भी तैरने नहीं आया। नहाते वक्त सारे बच्चे बिलकुल प्राकृतिक अवस्था में होते थे, जिसका फायदा उठाकर पिछवाड़े जोंकें चिपक कर खून चूसने में मस्त हो जाती थीं। खुजली होते ही हम समझ जाते थे कि मामला कुछ गड़बड़ है। भागकर पानी से बाहर आते और उन्हें एक-एक कर निकाल फेंकते। कपड़े पहन कर भैंसों को लेकर घर वापस आ जाते थे।
तीज-त्योहारों में आता था खूब मजा
तीज त्योहार में तो बहुत ही आनंद आता था। खासकर होली और दिवाली में। होली की तो एक महीने पहले से ही तैयारी चलती थी। पंद्रह दिन पहले से ही सम्मत गाडऩे के बाद उस पर खर-पतवार रखने की तैयारी होती थी। गांवों के लगभग सारे लोगों की भागीदारी होती थी। जिस रात होलिका दहन का समय होता था, उस रात तो सोना भी हराम था। लोगों के उपले, खर-पतवार यहां तक की छप्पर तक भी सम्मत के हवाले कर दिया जाता था। लोग एक-दो दिन गाली-गुप्ता करके फिर सामान्य हो जाते थे। होलिका दहन के बाद गांव के बच्चे/बुजुर्ग हारमोनियम, ढोलक, तबला आदि वाद्य यंत्र लेकर होलिका गीत गाते थे। उस दिन सारे गिले-शिकवे माफ होते थे। सुबेरे लोगों के नाबदान तक में कीचड़ और पानी नहीं बचता था। लोग इसी से होली खेलते और एक-दूसरे को पकड़कर कीचड़ में सराबोर हो जाते थे। उस समय रंग का बहुत कम चलन था। लोग रंग में पैसा खर्च करना मुनासिब नहीं समझते थे। होली खेलने के बाद घर-घर जाकर होली गीत गाते, होली खेलते और लोगों से गुड़ और कुछ राशन इक_ा कर शाम को सामूहिक भोज करते थे। उस समय लोग भंग के रस में सराबोर रहते। किसी का भी परिवार भंग पीने के लिए मारता-पीटता नहीं था। यही नहीं बल्कि दीपावली में भी लोग एक-दूसरे के घर जा कर पटाखा फोड़ते और अधिकार पूर्वक पकौड़े, गुलगुले, पूड़ी आदि मीठे पकवान मांग-मांग कर खाते थे। ऐसा करने में लोग अपने को बहुत खुशनशीब समझते थे। लेकिन एक बात तो थी कि इस तरह के माहौल की वजह से लोगों की चेतना भी पुरानी मुल्य मान्यताओं पर आधारित थी। शहर की तरफ जाना लोग मुनाशिब नहीं समझते थे। मां-बाप भी अपने बेटे को आंखों से ओझल नहीं होने देते थे। यही कारण था कि लोगों में काफी हद तक अशिक्षा मौजूद थी।
काका-काकी और दादा-दादी का प्यार
अब तो काका-काकी और दादा-दादी का प्यार भी पैसों के तराजू में तौला जाने लगा है। उस समय आपसी प्रेम-भाव होने के बावजूद जातीयता हाबी थी। मजाल क्या कि कोई ऊंची जाति वालों के सामने चारपाई पर बैठ जाये। काम की मनाही करने पर उसकी पिटाई भी कर दी जाती थी। लोगों से काफी हद तक बेगार भी करवाया जाता था। अब तो जातियता के नाम पर केवल दिखावा मात्र ही रह गया है। गांवों में पुराने मूल्य मान्यताओं को मानने वाले बहुत ही कम लोग रह गये हैं। सवर्ण भी अब दलितों के घरों पर बैठ कर पानी पीते हैं। वहां उनके लिए अलग से कुर्सी नहीं बल्कि उसी चारपाई पर साथ-साथ बैठते हैं। बच्चे तो एक-दूसरे के साथ सामान्य रूप से झगड़ लेते हैं। जो पहले नामुमकिन था। ऐसा बदलाव बहुत ही जरूरी था। लेकिन इसके साथ-साथ लोगों के यहां आना-जाना भी बंद हो गया। जो लोग जाते हैं उनके बारे में कहा जाता था कि जरूर इनको कोई मतलब होगा।
ठंडक में जब कौड़े पर जमती थी मंडली
पहले ठंडक के समय में लोगों के दरवाजे पर कौड़ा रखा जाता था जहां पर हमेशा सुबह-शाम आग जलती रहती थी। गांव के बुजुर्ग वहां पर बैठकर गांव की राजनीति पर बहस करते थे। मजेदार बात तो यह होती थी कि सभी लोग बैठकर किस्से कहानी गढ़ते रहते थे। उसमें से जो पहले चला जाता था उसकी वहां पर उपस्थित लोग बुराई करने में जुट जाते थे। फिर दूसरे के जाने के बाद बाकी लोग उसे भी नहीं छोड़ते। यह प्रकृया तबतक चलती रहती थी जबतक की कौड़े पर एक आदमी बचता है। वह बची-खुची बुराइयों को कौड़ा में राख से अगले दिन तक ढक देता और बिस्तर पर जा कर सो जाता। यही नहीं बल्कि वह सूचना के आदान-प्रदान का भी एक जगह हुआ करता था। उससे लोगों के अंदर एक-दूसरे के प्रति प्रेम की भावना भी उत्पन्न होती थी। यह भी अब खत्म हो गया।
जब बढऩे लगी लोगों में दूरियां
जैसे-जैसे हम बड़े होते गये। वैसे-वैसे गांव के बच्चों से दूरियां बढ़ती गयीं। कई ऐसे बच्चे थे जो 6वीं, 7वीं तक पढऩे में काफी तेज थे। लेकिन अब उनके मां-बाप इससे आगे पढ़ाने में असमर्थ थे। बचपन में ही रोटी-रोजी के लिए उन्हें शहर में जाकर मजदूरी करनी पड़ी। गांव की खेती बिलकुल तबाही की कगार पर पहुंच गयी थी। जिनके पास ज्यादा खेती थी वे उसका कुछ ही हिस्से पर किसानी कर रहे थे क्योंकि खाद-बीज इतना महंगा होता जा रहा था कि उसके लिए बाहर की कमाई की जरूरत थी। जो बहुत ही कम लोगों के पास थी। अनाज भी लोगों को बाजार से खरीदना पड़ रहा था। धीरे-धीरे बाजार व्यवस्था गांवों में पैठ बनानी शुरू कर दी। खेती भी बाजार के हिसाब से होने लगी। जिनके पास पैसा था वे अच्छा खाशा पैदावार काटते थे और बाकी लोगों के खाने के लाले पड़ जाते थे। यही कारण था कि लोग शहरों की तरफ पलायन करना शुरू कर दिए। बच्चों के बीच में भी खाई पैदा हो गयी है। कुछ लोग तो शिर्फ छुट्टी मनाने के लिए ही गांव जाते हैं। सवर्णों और दिलितों के बीच की खाई, गरीब और अमीर के रूप में बदल गई है।
लहलहा रहे थे कालानमक के धान
जहां पर हम रहते थे वह क्षेत्र चावल के अच्छे पैदावार के रूप में जाना जाता था। वहां पर एक विशेष किश्म के धान की पैदावार होती थी जिसका नाम था कालानमक। जिस खेत में कालानमक की बिजाई होती थी उधर से गुजरने पर पूरा वातावरण सुगंधित हो उठता था। मोटा चावल जैसे सरजूउनचास, सरजूबावन आदि को कोई पूछता नहीं था। गरीब हो या अमीर सभी लोग कालानमक जरूर खाते थे। लेकिन बाजारवाद ने ऐसी पल्टी मारी कि पूरे के पूरे गांव को तबाह कर दिया।
गांवों की बहुत सारी बुराइयां भी थीं, जिसको बाजारवाद ने खत्म तो किया ही साथ ही उन अच्छाइयों को भी खत्म कर दिया जिसे बचाना बहुत ही जरूरी था। मानवीय मूल्य जैसे धरोहर का भी नाश हो गया। मां, बाप और बेटे के प्यार को भी पैसे से तौला जाने लगा। धीरे-धीरे लोग खेतों में नये-नये बीज बोना शुरू कर दिए। जिसका असर यह हुआ कि कालानमक धान जैसे अच्छे किश्म के स्वादिस्ट अनाज भी खत्म हो गये। प्राकृतिक आपदाओं को भी नहीं झेल पाये। महंगाई इस कदर हाबी हो गई कि अब गांवों में रहना दूभर हो गया। जो लोग शहर में चले गये उनका परिवार काफी मजे में रहने लगा और बच्चे भी अच्छे स्कूलों में पढ़ाई करने लगे। लेकिन गांव में रहने वालों को न तो अच्छी शिक्षा मिलती है और न ही अच्छी तरह की खेती कर पाते हैं। खेती करने के लिए उनके पास पैसा भी नहीं होता है। कर्ज लेकर अगर कोई किसान धान लगा भी देता है तो उसमें रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं की कमी से ऐन वक्त पर सबकुछ तबाह हो जाता है। खेती युक्त जमीनें इस कदर ऊसर हो चुकी हैं कि महंगे रसायनिक खाद और कीटनाशक के पैदावार ही नहीं काट पाते। जो पैदा भी होता है उसका आय के अपेक्षा लागत मूल्य अधिक होता है। ज्यादातर लोग पूरी खेती भी नहीं कर पाते हैं। अब लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं।
कबड्डी चिक्का और कंचे ने ले लिया जुआ का रूप
कंचा, चिक्का, कबड्डी और लखनी जैसा खेल तास के पत्तों ने ले लिया है। जो जुआ का रूप धारण कर लिया है। जब अपने गांव जाता हूं तो वहां दूर-दूर तक गुल्ली-डंडा और कबड्डी का खेल नजर नहीं आता। लेकिन क्रिकेट का टुर्नामेंट जरूर दिखाई दे जाता है। खाली पड़े घरों या पेड़ों के नीचे ज्यादातर बच्चे पूरा का पूर दिन जुआ खेलने में मस्त रहते हैं। कभी कभार पलिस हत्थे चढऩे पर पुलिस वालों को कुछ चढ़ावा देकर छुट्टी पा जाते हैं। गांवों की राजनीति भी बहुत गंदा हो चुकी है। लोगों के बीच पार्टीबंदी इस कदर हाबी है कि चुनाओं के समय एक-दूसरे की हत्या तक करने में पीछे नहीं रहते। युवा वर्ग तो लगभग शहरों की ओर पलायन कर चुका है। कुछ लोग तो ऐसे हैं जो शिर्फ बिजाई, रोपाई और कटाई के समय ही गांवों में आते हैं। बाकी समय वे अपने जीवकोपार्जन के लिए शहर में ही रहते हैं। लोगों के अंदर धीरे-धीरे मानवीयता भी खत्म होती दिखाई दे रही है। दबंगों की दबंगई अभी भी जारी है। पहले वे खेतों में काम करवाते हुए अपनी दबंगई दिखाते थे, लेकिन अब राजनीति में आकर करते हैं। पहले के न तो बच्चे रह गए और न ही दादा काका और बाबा ही हैं। सारे परिवार के सदस्य अलग-अलग अपनी जीविका चला रहे हैं। किसी के घर जाने पर लोग यही सोचते हैं कि यह जरूर किसी काम से आया होगा। पढऩे-लिखने और मेहनत मशक्कत करने वाले शहर की ओर पलायन कर रहे हैं।
प्राइमरी स्कूलों की स्थिति और भी खराब है। कहने के लिए तो गांव में एक मिडिल स्कूल है लेकिन तीन सालों में कोई अध्यापक ही नियुक्त नहीं हुआ है। बीच में एक अध्यापक आए भी थे लेकिन छह माह बाद उनकी मौत हो गयी। इसके बाद अध्यापक नियुक्त होना तो दूर उसकी चर्चा तक नहीं होती। यही है मेरे गांव की राम कहानी।
-पुर्वांचल के एक गांव की तस्वीर-
-जय प्रताप सिंह
दादा की भूतों की कहानियां
बच्चों को डराने के लिए दादा भूतों की मनगढ़ंत कहानियां सुनाया करते थे। एक बार तो उन्होंने अति ही कर दिया था। वह कह रहे थे कि बागीचे में आज एक भूत मिला था और वह खैनी मांग रहा था, लेकिन उसको मैंने खैनी नहीं दी। क्योंकि खैनी को हाथ में देने पर भूत पकड़ लेता है। इस बात को सोच कर डर तो बहुत लगता था, लेकिन नाच देखने के समय सारे डर हवा हो जाते थे। मैं दादा जी के पास इसलिए सोता था कि वह रात में छोटी-बड़ी कहानियां सुनाया करते थे। वह दिन भर की भागदौड़ के बाद जल्दी ही सो जाते थे। जैसे ही उनका नाक बजना शुरू होता कि मैं उठकर मित्रों द्वारा तय किये गए जगह पर पहुंच जाता और नाच देखकर मुंह अंधेरे वापस आकर सो जाता था। किसी को पता तक नहीं चलता। लेकिन कभी-कभार पकड़ भी लिए जाते थे।
जब जाते थे भैंस को चराने
भैंसों को चराने का मात्र एक बहाना था। मुख्य काम तो रात को देखी हुई नौटंकी का नकल करके खेतों में ही ड्रामा करने का होता था। घरवालों को पता चलने पर पिटाई भी होती थी। उनका कहना था कि ऊंची जातियों के लड़के यह सब खेल नहीं खेलते। वे जितना ही रोकने की कोशिश करते खेलने की लालसा उतनी ही अधिक बढ़ती जाती थी। एक मोटी सी लाठी लेकर भैंस पर ऐसे बैठते थे जैसे कि हाथ में तलवार लिए कोई राजा हाथी पर सवार हो। कभी-कभी तो भूल ही जाते थे कि हम भैंस पर बैठे हैं और हाथी के ख्वाबों में खो जाते थे। अचानक भैंस को पोखर का याद आता था और वह दौडऩा शुरू कर देती थी। उसके भागने की देर थी कि मैं जमीन पर चारो खने चित हो जता था। जब तक मैं संभलता कि भैंस पोखर में डुबकी लगा रही होती थी। खेतों में डाक्टर तो हाते नहीं थे इसलिए अन्य साथी ही शरीर को इधर-उधर खींच-तान करके सही कर देते थे। क्योंकि वही एक मात्र दवा थी। चोट कितना भी हो डाक्टर के पास बहुत ही कम जाना पड़ता था। आसपास कोई सरकारी अस्पताल भी नहीं होता था। जो था भी उसमें डाक्टर ही नहीं होते थे। इस बात की जानकारी घर वालों को होने पर ऊपर से डांट भी पड़ती थी।
स्कूलों में पढऩे जाने का था अपना मजा
गांवों में बहुत सारे बच्चे होते थे, जो साथ में प्राइमरी स्कूल में पढऩे जाते थे। हमारे गांव से डेढ़ किलो मीटर दूर दूसरे गांव में एक ही प्राइमरी स्कूल था। उसमें भी दक्षिण टोला के बहुत ही कम बच्चे पढऩे जाते थे। उनके पास फीस देने के लिए पैसे नहीं होते थे। उनका कहना था कि हम पढ़ कर क्या करेंगे, भगवान ने तो हमें हरवाही करने के लिए ही बनाया है। जब बाप-दादा हरवाही कर रहे हैं तो हमें करने में क्या दिक्कत है। सवर्णों के लड़कों के साथ-साथ कुछ अन्य जाति के लोग भी शामिल हो जाते थे। जात-पात भूलकर साथ-साथ स्कूल जाते थे।
पटरी पर छपते थे गोल-गोल चमकते अक्षर
स्कूल जाते समय सभी के हाथ में एक ही तरह की लकड़ी की पटरी हुआ करती थी। तब एक से पांचवीं तक की पढ़ाई में स्याही का इस्तेमाल नहीं होता था। दवात में खडिय़ा घोलकर नरकट के कलम से लिखा जाता था। फिर पटरी को कलर किया जाता था। जो तवे के नीचे पड़े कालिख या भूजा भूनने वाले हंडी के नीचे की कालिख का प्रयोग होता था। लोग अपनी-अपनी पटरी की सुंदरता निखारने में पीछे नहीं रहते थे। उसके लिए कांच की दवात से पटरी को रगड़ा जाता था। दवात को रगडऩे से पटरी में चमक आ जाती थी, और उसपर लिखने से अक्षर निखर जाते थे। स्कूलों में अलग-अलग गांवों के गुट हुआ करते थे। हफ्ते दस दिन में इन गुटों में एक बार भिड़ंत जरूर होती थी। इन संघर्षों का एक मात्र हथियार होता था पटरी, जिससे लोगों का सिर भी फट जाता था। लेकिन दो-तीन दिन बाद ही एक-दूसरे के साथ बैठकर दोपहर के खाने का लुत्फ लिया जाता था।
जब स्कूल में बेहया के डंडे से हुई पिटाई
एक बार स्कूल में बहुत देर से पहुंचा। और उस समय मास्टर साहब कुर्सी पर बैठे-बैठे ऊंघ रहे थे। वहां पर पहुंचते ही एक लड़के से मेरी लड़ाई हो गई और मास्टर साहब की नींद हराम हो गई। उन्होंने आव देखा न ताव और बेहया (एक प्रकार का पौधा) के डंडे से मेरी जमकर पिटाई कर दी। वे पिटाई बंद नहीं करने वाले थे लेकिन अफसोस कि मास्टर साहब का डंडा टूट गया और मैं बच गया। वैसे मास्टर साहब बहुत मारते थे। इसी डर से कुछ लोग उनके हाथ-पांव भी दबाते थे। दलित बच्चों के साथ मास्टर का नजरिया कुछ और ही था वे हर वक्त बच्चों को उनके दलित होने का एहसास दिलाते थे। मास्टर भी ज्यादातर सवर्ण होते थे। पढ़ाई के समय बच्चों को खेतों से मूंगफली लाने के लिए भेज दिया करते थे। पढ़ाते-पढ़ाते मास्टर साहब सो जाते थे। बच्चे इसका फायदा उठाकर खेलने निकल जाते थे। वे तबतक खेलते रहते थे जबतक कि मास्टर साहब के हाथ में बेहया का डंडा नहीं लहराता। छुट्टी होने से एक घंटा पहले स्कूल के सभी बच्चे गोलाई में बैठ जाते थे और जोर-जोर से गिनती गिनते थे। वह भी गाने की तर्ज पर। इसकी आवाज इतनी तेज होती थी कि गांव तक सुनाई देती थी। घंटी बजते ही घर की तरफ भागते थे। रूखा-सूखा खाने के तुरंत बाद ही गांव के बीचो-बीच खाली पड़े मैदान में कंचा खेलने निकल जाते थे।
छोटे-छोटे बेलों से खेलते थे गोली
कंचा खेलने के लिए कांच की गोलियां हमारे पहुंच से बहुत दूर थीं। इसकी जगह बगिया में से छोटे-छोटे बेल को तोड़कर उसी से खेलते थे, जिसमें बड़ा मजा आता था। छुट्टियों में तो खेलते-खेलते पूरा दिन बीत जाता था। बेलों को टकराने से कई-कई बेल टूट जाते थे और दोबारा बगिया में जा कर पेड़ों से बेल तोड़ लाते थे और फिर जुट जाते थे ङ्क्षजदगी के महत्वपूर्ण खेलों में। भइया या बाबूजी के पहुंचने पर नौ-दो ग्यारह हो जाते थे। बाद में पकड़े जाने पर मारने-पीटने के बाद हाथ में किताब पकड़ा कर बैठा दिया जाता था। लेकिन दूसरे दिन फिर वही प्रकृया शुरू हो जाती थी।
जब लटक रहे थे पीले-पीले आम
छुट्टियों में जब आम पकने का समय होता था तो उस समय बच्चे कभी-कभार ही घर पर दिखते थे। पूरा समय वे छोटे-छोटे पेड़ों पर चढ़ कर आम को तोड़ते और नमक के साथ चटकारे ले-लेकर पेड़ों की टहनियों पर लटक कर लखनी खेलते थे। उस समय लखनी और चिक्का दो ही मुख्य खेल था। चिक्का तो बहुत ही खतरनाक खेल होता था जिसमें चोट लगना आम बात थी। लेकिन फिर भी खेल बहुत ही मजेदार होता था। उसमें जमीन पर गोलाई लिए हुए एक जगह बनाई जाती थी और लकीर के बाहर के व्यक्ति के पैर में पैर से मारा जाता था। देर शाम को घर लौटते थे। उस समय घर पर कभी-कभी ही मार खानी पड़ती थी। क्योंकि लौटते समय कुछ आम बड़े भाई को दे देते थे, जिसे खाने में ही वे मस्त हो जाते थे। उस समय एक-दूसरे के पेड़ों से आम तोड़कर खाते थे। गिरे हुए आम को खाने के लिए कोई बोलता नहीं था। यहां तक की लोग बगीचे को बेचते भी नहीं थे। धीरे-धीरे पूरा का पूरा बागीचा सूना होता गया। लोग पेड़ों को काटकर खेती करने लगे। कुछ लोग खेतों में कलमी आम लगाने लगे जो बौर लगते ही पूरा बागीचा बेच देते थे। अब तो देसी आमों के बगीचे गांवों में इक्के-दुक्के ही नजर आते हैं। जो बचे-खुचे हैं वे पर्यावरण की मार झेल रहे हैं और एक भी फल नहीं देते।
जब पिछवाड़े चिपक जाती थीं जोंकें
हमारे गांव में कई-कई पोखर थे। उन पोखरों में हमेशा पानी भरा रहता था। जिसमें भैंसों को नहलाते थे। भैंसें जबतक पानी में डूबी रहती थीं तबतक हम लोग भी पानी में डूब कर तमाम तरह के खेल खेलते रहते थे। कुछ बच्चे तो तैरना सीखते थे। कई-कई लोग तो पानी के ऊपर तैरने वाले विशेष किस्म के एक जाति के कीड़े को पानी के साथ घोंट जाते थे। बच्चों का मानना था कि इन कीड़ों को जिंदा पी जाने से शीघ्र तैरना आ जाता है। लेकिन ढेर सारे जिंदा कीड़े पानी के साथ घोंट जाने के बावजूद मुझे कभी भी तैरने नहीं आया। नहाते वक्त सारे बच्चे बिलकुल प्राकृतिक अवस्था में होते थे, जिसका फायदा उठाकर पिछवाड़े जोंकें चिपक कर खून चूसने में मस्त हो जाती थीं। खुजली होते ही हम समझ जाते थे कि मामला कुछ गड़बड़ है। भागकर पानी से बाहर आते और उन्हें एक-एक कर निकाल फेंकते। कपड़े पहन कर भैंसों को लेकर घर वापस आ जाते थे।
तीज-त्योहारों में आता था खूब मजा
तीज त्योहार में तो बहुत ही आनंद आता था। खासकर होली और दिवाली में। होली की तो एक महीने पहले से ही तैयारी चलती थी। पंद्रह दिन पहले से ही सम्मत गाडऩे के बाद उस पर खर-पतवार रखने की तैयारी होती थी। गांवों के लगभग सारे लोगों की भागीदारी होती थी। जिस रात होलिका दहन का समय होता था, उस रात तो सोना भी हराम था। लोगों के उपले, खर-पतवार यहां तक की छप्पर तक भी सम्मत के हवाले कर दिया जाता था। लोग एक-दो दिन गाली-गुप्ता करके फिर सामान्य हो जाते थे। होलिका दहन के बाद गांव के बच्चे/बुजुर्ग हारमोनियम, ढोलक, तबला आदि वाद्य यंत्र लेकर होलिका गीत गाते थे। उस दिन सारे गिले-शिकवे माफ होते थे। सुबेरे लोगों के नाबदान तक में कीचड़ और पानी नहीं बचता था। लोग इसी से होली खेलते और एक-दूसरे को पकड़कर कीचड़ में सराबोर हो जाते थे। उस समय रंग का बहुत कम चलन था। लोग रंग में पैसा खर्च करना मुनासिब नहीं समझते थे। होली खेलने के बाद घर-घर जाकर होली गीत गाते, होली खेलते और लोगों से गुड़ और कुछ राशन इक_ा कर शाम को सामूहिक भोज करते थे। उस समय लोग भंग के रस में सराबोर रहते। किसी का भी परिवार भंग पीने के लिए मारता-पीटता नहीं था। यही नहीं बल्कि दीपावली में भी लोग एक-दूसरे के घर जा कर पटाखा फोड़ते और अधिकार पूर्वक पकौड़े, गुलगुले, पूड़ी आदि मीठे पकवान मांग-मांग कर खाते थे। ऐसा करने में लोग अपने को बहुत खुशनशीब समझते थे। लेकिन एक बात तो थी कि इस तरह के माहौल की वजह से लोगों की चेतना भी पुरानी मुल्य मान्यताओं पर आधारित थी। शहर की तरफ जाना लोग मुनाशिब नहीं समझते थे। मां-बाप भी अपने बेटे को आंखों से ओझल नहीं होने देते थे। यही कारण था कि लोगों में काफी हद तक अशिक्षा मौजूद थी।
काका-काकी और दादा-दादी का प्यार
अब तो काका-काकी और दादा-दादी का प्यार भी पैसों के तराजू में तौला जाने लगा है। उस समय आपसी प्रेम-भाव होने के बावजूद जातीयता हाबी थी। मजाल क्या कि कोई ऊंची जाति वालों के सामने चारपाई पर बैठ जाये। काम की मनाही करने पर उसकी पिटाई भी कर दी जाती थी। लोगों से काफी हद तक बेगार भी करवाया जाता था। अब तो जातियता के नाम पर केवल दिखावा मात्र ही रह गया है। गांवों में पुराने मूल्य मान्यताओं को मानने वाले बहुत ही कम लोग रह गये हैं। सवर्ण भी अब दलितों के घरों पर बैठ कर पानी पीते हैं। वहां उनके लिए अलग से कुर्सी नहीं बल्कि उसी चारपाई पर साथ-साथ बैठते हैं। बच्चे तो एक-दूसरे के साथ सामान्य रूप से झगड़ लेते हैं। जो पहले नामुमकिन था। ऐसा बदलाव बहुत ही जरूरी था। लेकिन इसके साथ-साथ लोगों के यहां आना-जाना भी बंद हो गया। जो लोग जाते हैं उनके बारे में कहा जाता था कि जरूर इनको कोई मतलब होगा।
ठंडक में जब कौड़े पर जमती थी मंडली
पहले ठंडक के समय में लोगों के दरवाजे पर कौड़ा रखा जाता था जहां पर हमेशा सुबह-शाम आग जलती रहती थी। गांव के बुजुर्ग वहां पर बैठकर गांव की राजनीति पर बहस करते थे। मजेदार बात तो यह होती थी कि सभी लोग बैठकर किस्से कहानी गढ़ते रहते थे। उसमें से जो पहले चला जाता था उसकी वहां पर उपस्थित लोग बुराई करने में जुट जाते थे। फिर दूसरे के जाने के बाद बाकी लोग उसे भी नहीं छोड़ते। यह प्रकृया तबतक चलती रहती थी जबतक की कौड़े पर एक आदमी बचता है। वह बची-खुची बुराइयों को कौड़ा में राख से अगले दिन तक ढक देता और बिस्तर पर जा कर सो जाता। यही नहीं बल्कि वह सूचना के आदान-प्रदान का भी एक जगह हुआ करता था। उससे लोगों के अंदर एक-दूसरे के प्रति प्रेम की भावना भी उत्पन्न होती थी। यह भी अब खत्म हो गया।
जब बढऩे लगी लोगों में दूरियां
जैसे-जैसे हम बड़े होते गये। वैसे-वैसे गांव के बच्चों से दूरियां बढ़ती गयीं। कई ऐसे बच्चे थे जो 6वीं, 7वीं तक पढऩे में काफी तेज थे। लेकिन अब उनके मां-बाप इससे आगे पढ़ाने में असमर्थ थे। बचपन में ही रोटी-रोजी के लिए उन्हें शहर में जाकर मजदूरी करनी पड़ी। गांव की खेती बिलकुल तबाही की कगार पर पहुंच गयी थी। जिनके पास ज्यादा खेती थी वे उसका कुछ ही हिस्से पर किसानी कर रहे थे क्योंकि खाद-बीज इतना महंगा होता जा रहा था कि उसके लिए बाहर की कमाई की जरूरत थी। जो बहुत ही कम लोगों के पास थी। अनाज भी लोगों को बाजार से खरीदना पड़ रहा था। धीरे-धीरे बाजार व्यवस्था गांवों में पैठ बनानी शुरू कर दी। खेती भी बाजार के हिसाब से होने लगी। जिनके पास पैसा था वे अच्छा खाशा पैदावार काटते थे और बाकी लोगों के खाने के लाले पड़ जाते थे। यही कारण था कि लोग शहरों की तरफ पलायन करना शुरू कर दिए। बच्चों के बीच में भी खाई पैदा हो गयी है। कुछ लोग तो शिर्फ छुट्टी मनाने के लिए ही गांव जाते हैं। सवर्णों और दिलितों के बीच की खाई, गरीब और अमीर के रूप में बदल गई है।
लहलहा रहे थे कालानमक के धान
जहां पर हम रहते थे वह क्षेत्र चावल के अच्छे पैदावार के रूप में जाना जाता था। वहां पर एक विशेष किश्म के धान की पैदावार होती थी जिसका नाम था कालानमक। जिस खेत में कालानमक की बिजाई होती थी उधर से गुजरने पर पूरा वातावरण सुगंधित हो उठता था। मोटा चावल जैसे सरजूउनचास, सरजूबावन आदि को कोई पूछता नहीं था। गरीब हो या अमीर सभी लोग कालानमक जरूर खाते थे। लेकिन बाजारवाद ने ऐसी पल्टी मारी कि पूरे के पूरे गांव को तबाह कर दिया।
गांवों की बहुत सारी बुराइयां भी थीं, जिसको बाजारवाद ने खत्म तो किया ही साथ ही उन अच्छाइयों को भी खत्म कर दिया जिसे बचाना बहुत ही जरूरी था। मानवीय मूल्य जैसे धरोहर का भी नाश हो गया। मां, बाप और बेटे के प्यार को भी पैसे से तौला जाने लगा। धीरे-धीरे लोग खेतों में नये-नये बीज बोना शुरू कर दिए। जिसका असर यह हुआ कि कालानमक धान जैसे अच्छे किश्म के स्वादिस्ट अनाज भी खत्म हो गये। प्राकृतिक आपदाओं को भी नहीं झेल पाये। महंगाई इस कदर हाबी हो गई कि अब गांवों में रहना दूभर हो गया। जो लोग शहर में चले गये उनका परिवार काफी मजे में रहने लगा और बच्चे भी अच्छे स्कूलों में पढ़ाई करने लगे। लेकिन गांव में रहने वालों को न तो अच्छी शिक्षा मिलती है और न ही अच्छी तरह की खेती कर पाते हैं। खेती करने के लिए उनके पास पैसा भी नहीं होता है। कर्ज लेकर अगर कोई किसान धान लगा भी देता है तो उसमें रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं की कमी से ऐन वक्त पर सबकुछ तबाह हो जाता है। खेती युक्त जमीनें इस कदर ऊसर हो चुकी हैं कि महंगे रसायनिक खाद और कीटनाशक के पैदावार ही नहीं काट पाते। जो पैदा भी होता है उसका आय के अपेक्षा लागत मूल्य अधिक होता है। ज्यादातर लोग पूरी खेती भी नहीं कर पाते हैं। अब लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं।
कबड्डी चिक्का और कंचे ने ले लिया जुआ का रूप
कंचा, चिक्का, कबड्डी और लखनी जैसा खेल तास के पत्तों ने ले लिया है। जो जुआ का रूप धारण कर लिया है। जब अपने गांव जाता हूं तो वहां दूर-दूर तक गुल्ली-डंडा और कबड्डी का खेल नजर नहीं आता। लेकिन क्रिकेट का टुर्नामेंट जरूर दिखाई दे जाता है। खाली पड़े घरों या पेड़ों के नीचे ज्यादातर बच्चे पूरा का पूर दिन जुआ खेलने में मस्त रहते हैं। कभी कभार पलिस हत्थे चढऩे पर पुलिस वालों को कुछ चढ़ावा देकर छुट्टी पा जाते हैं। गांवों की राजनीति भी बहुत गंदा हो चुकी है। लोगों के बीच पार्टीबंदी इस कदर हाबी है कि चुनाओं के समय एक-दूसरे की हत्या तक करने में पीछे नहीं रहते। युवा वर्ग तो लगभग शहरों की ओर पलायन कर चुका है। कुछ लोग तो ऐसे हैं जो शिर्फ बिजाई, रोपाई और कटाई के समय ही गांवों में आते हैं। बाकी समय वे अपने जीवकोपार्जन के लिए शहर में ही रहते हैं। लोगों के अंदर धीरे-धीरे मानवीयता भी खत्म होती दिखाई दे रही है। दबंगों की दबंगई अभी भी जारी है। पहले वे खेतों में काम करवाते हुए अपनी दबंगई दिखाते थे, लेकिन अब राजनीति में आकर करते हैं। पहले के न तो बच्चे रह गए और न ही दादा काका और बाबा ही हैं। सारे परिवार के सदस्य अलग-अलग अपनी जीविका चला रहे हैं। किसी के घर जाने पर लोग यही सोचते हैं कि यह जरूर किसी काम से आया होगा। पढऩे-लिखने और मेहनत मशक्कत करने वाले शहर की ओर पलायन कर रहे हैं।
प्राइमरी स्कूलों की स्थिति और भी खराब है। कहने के लिए तो गांव में एक मिडिल स्कूल है लेकिन तीन सालों में कोई अध्यापक ही नियुक्त नहीं हुआ है। बीच में एक अध्यापक आए भी थे लेकिन छह माह बाद उनकी मौत हो गयी। इसके बाद अध्यापक नियुक्त होना तो दूर उसकी चर्चा तक नहीं होती। यही है मेरे गांव की राम कहानी।
-पुर्वांचल के एक गांव की तस्वीर-
-जय प्रताप सिंह
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